Friday, March 12, 2010

नया, नया नहीं है भरत प्रसाद

नया है, वह नया नहीं है, जो लघु है वह लघु नहीं है, जो कच्चा है वह कच्चा नहीं है। सवाल उठाइए कि कैसे? वह ऐसे कि उस नये तरह की कल्पना, अनुभूति और सोच का ताजापन हमारे पास नहीं है। वह जीवन-जगत को सर्वाधिक अज्ञात, नये और ताजा रंग के साथ देखने का मालिक है। उसकी लघुता सिर्फ उम्र की या आकार-प्रकार की है भावनाओं की नहीं, हृदय की सक्रियता की नहीं, भावनात्मक पवित्रता की नहीं। इसी प्रकार एक नवसर्जक यदि कच्चा है तो जीवन के व्यापक अनुभवों में, न कि अपने सृजन-संकल्प में, स्तरीय निष्कर्ष में या समकालीन यथार्थ के विवेकपूर्ण विश्लेषण में। नवसर्जक में रचने की प्राकृतिक शक्तियाँ अतिशय तीव्रता के साथ सक्रिय रहती हैं, उसकी मानसिक और भावनात्मक ऊर्जा पल-प्रतिपल ज्वारभाटे की प्रकृति धारण किए रहती है। एक तरह से उसके समूचे लघु आकर में प्रत्येक दृश्य, अदृश्य, ज्ञात-अज्ञात, सूक्ष्म-स्थूल को जान लेने, छू लेने, पा लेने की बेचैनी मची रहती है। धारणा को पलट देने, परिभाषा को खारिज कर देने, लीक से इंकार कर देने और असम्भव को सम्भव बनाने की अप्रकट क्षमता, प्रतिभा और कूवत नवसर्जक में अकूत, असीम होती है। उसकी काबिलियत उस लघु जल धारा की तरह है, जो किसी ऊँचाई से गिरने का अवसर पाकर ही दिगन्तव्यापी अभिनव स्वर का कमाल दिखा पाती है। तो फिर नवसर्जक कैसे हुआ लघु? कैसे हुआ कच्चा? कैसे हुआ चलताऊ मुहावरे में नव?
नवसर्जक की विकल्पहीन महत्ता भी इसी में है कि वह भाषा, शिल्प, गठन, संवेदना और कल्पनाशीलता अर्थात् साहित्य के प्रत्येक विभाग में अपनी मौलिक क्षमता का परचम लहराए। लगे कि हाँ, उसकी भाषा नए युग के जन्म की आहट दे रही है, ऐसी शब्द-सामर्थ्य तो पहले कभी नहीं देखी गई, प्रखर कल्पनाशीलता का ऐसा नमूना पहले कभी नहीं दिखाई दिया। समय के प्रति उठे छोटे-बड़े सवालों का उत्तर नवसर्जक ठीक वैसे ही नहीं देता, जैसा कि अब तक दिया गया है। वह पुराने उत्तर से बगावत जरूर करता है या फिर अनिवार्यत: अपनी ओर से कुछ नया जोड़ता है। समकाल पर अत्यन्त नए किन्तु कीमती तरीके से कलम चलाने की उम्मीद नए लेखक से की जाती है। नवसर्जक के अध्ययन का दायरा सीमित होने के बावजूद तरोताज है, इसीलिए किसी विषय के दरसत्य पर जब उसकी सोच खुलती है तो कुछ अविस्मरणीय मार्मिकता और तात्विकता देकर ही शान्त होती है। नवसर्जन की कलम में समसामयिक जीवन बिलकुल आधुनिक स्वर में बोलता है, ऐसी तमाम सामाजिक, मानवीय और सांस्कृतिक प्रवृत्तियाँ जो दबे पाँव, छिप-छिपकर, शनै: शनै: पैठ बना रही हैं, जो समकाल की पूरी संरचना को अस्त-व्यस्त और दिशाहीन कर दे रही हैं, उस पर बेहद तत्पर, जागरूक और पैनी नजर नवसर्जक की रहती है और युग की घातक प्रवृत्तियों के खिलाफ पहला मोर्चा खोलने का युगीन दायित्व नवसर्जक पर ही है।
वर्ष 2009 में साहित्यिक पत्रकारिता की प्रथम पंक्ति में अपनी पहचान कायम करने वाली पत्रिका रही 'लमही'। इसका 'अक्टूबर-दिसम्बर-2009' का अंक 'कहानी-विशेषांक' है। प्रस्तुत अंक में सुपरिचित कथाकार 'महेश कटारे' की कहानी 'बच्चों को सब बताऊँगी' प्रकाशित हुई है। इसमें गिरिजा एक बेसहारा नवयुवती है, उसके बाल-बच्चे हैं। गाँव के सरपंच, डकैत और भी न जाने कैसे, कितने छुटभैया, बड़भैया उसकी आकर्षक काया से मनमाना खेल खेलते हैं। गिरिजा भी निर्लज्जतापूर्वक अपने शरीर का शोषण होने देती है। गाँव-देहात की गरीब-गुरबा स्त्री का शरीर नोच-नोच कर खाए जाने लायक मांस के टुकड़े के सिवाय मानो कुछ होता ही नहीं। महेश जी ने गिरिजा की नंगी असलियत के पीछे उसकी पराजित आत्मपीड़ा को ही आवाज दी है। इसी क्रम में राकेश कुमार सिंह की कहानी ''कहानी खत्म नहीं होती'' प्रेमचन्द की कहानी 'कफन' के कालजयी चरित्रों घीसू-माधो को इस सदी की कहानी के बहाने उठाना यह प्रमाणित करता है कि ये अभी मरे नहीं हैं, कहीं न कहीं जीवित है। इनकी नियति और भयावह हो गई है। अन्त्यज लोकजीवन के कथाकार राकेश कुमार सिंह ने अपने कल्पना-कौशल के बल पर वर्तमान यथार्थ की पीड़ा को प्रेमचन्द के ऐतिहासिक दुख के साथ कुशलतापूर्वक जोड़ा है। आगे शैलेय जी की कहानी ''यहीं कहीं से।'' प्रस्तुत कहानी में लोकेन्द्रनाथ जैसे साहित्य के शिक्षक की वैचारिक-संघर्ष व्यथा के बहाने उन तमाम बौद्धिकों के जीवन में टूट पड़ने वाली दुश्वारियों का चित्रण किया गया है, जो समाज में आर्थिक और सामाजिक समता देखना चाहते हैं। शैलेयजी घटना और विषय को उसकी अपनी प्रकृति के अनुसार देखने से कहीं ज्यादा अपने संकल्पी मन के नजरिए से देखते हैं। इस अर्थ में वे सार्थक बदलाव की जिद रखने वाले परिवर्तनकारी कथाकार हैं। इसी अंक में अशोक मिश्र की कहानी ''गाँव की मौत।'' में शहर जाकर बसे हुए 'रतन' नामक युवक के भीतर अपनी जड़ों से लगातार कटने का असहाय दर्द तो है ही, साथ ही साथ 21वीं सदी में अव्यवस्थित और दिशारहित तरीके से बदलते हुए उत्तरप्रदेशी गाँवों का नक्शा भी है, मगर सूचनात्मक और लगभग निबन्धात्मक दायरे में बँधकर रह जाने वाला। कुछ आगे बढ़ने पर रणीराम गढ़वाली की कहानी ''पारा उर्फ पारस उर्फ...।'' यह कहानी पहाड़ पर रचे-बसे वर्तमान गाँवों की रूढ़िवादी, उजड्ड और दिग्भ्रमित मानसिकता पर चोट करती है। गढ़वाली ने इस कहानी की स्त्री-पात्र सुन्दरी (जो कि विधवा है) का दुबारा विवाह दिखाकर पुन: इस सवाल को हवा दी है कि क्या आपस में प्रेम करने वाला जोड़ा, चाहे वह किसी भी धर्म का हो, जाति का हो समाज-स्वीकार्य विवाह सफलतापूर्वक कर सकता है? (लमही, अक्टूबर-दिसम्बर, 09, सम्पादक-विजय राय)Ð
'प्रगतिशील वसुधा' के अंक-82 में प्रकाशित गजेन्द्र रावत की कहानी- 'बारिश, ठंड और वह'। इसमें कहानीकार ने मधुमेह रोग से ग्रस्त एक लावारिस इंसान की खानाबदोशी टे्रजडी को साकार किया है। कूड़ेदान मे फेंकी गई निरर्थक वस्तुओं की तरह हमारे आज के मौजूदा समाज में एक दो नहीं, हजारों बल्कि लाखों इंसान घनघोर अपमान, घृणा और तिरस्कार की ंजिंदगी ढो रहे हैं। अदृश्य हवा, घूमती हुई पृथ्वी और चिर-मौन आकाश के अलावा जिसका दुनिया में अपना कहलाने वाला कोई नहीं है। इसी अंक में है नीरज वर्मा की कहानी 'गुम होते लोग'। यह कहानी सदी के पहले दशक में असहाय और अशब्द होकर लगातार पिछड़ते-गिरते, विपन्न होते ग्रामीण भारत की प्रामाणिक कथा है। 'चरका' दलित वर्ग का मामूली किसान है जिसकी आत्मा जाति-धर्म और ऊँच-नीच के जड़-संस्कारों से निर्मित है, वह गाँव के ही विसेसर पंडित की सेवा-टहल के प्रति गुलामों की तरह कृतज्ञतापूर्वक समर्पित है। 'मुन्ना' जो कि चरका का बेटा है, इस गुलाम नियति के खिलाफ सिर से पैर तक विद्रोही है। उसे फटाफट धन कमाने, आधुनिक सुख-सुविधा से लैस रहने और धनिकों की तरह ऐशोआराम लूटने का पूरा चस्का है। (प्रगतिशील वसुधा, जुलाई-सितम्बर, 09, सम्पादक-कमलाप्रसाद)Ð
'दोआबा', के अक्टूबर अंक में प्रकाशित देवेन्द्र सिंह का उपन्यास अंश 'हम बाजि रहल छी पलटू' शीर्षक से प्रकाशित है। इसमें बिहार के गाँवों से रात-दिन पलायन करते ग्रामीणजन की अश्रुपूर्ण कथा के बहाने उनकी चिन्ता में सिसकते हुए विचारों को खुलकर प्रस्तुत किया गया है। गाँवो का दलित हिन्दुस्तानी अन्धी गली में उगी हुई पीली-ठण्डी दूब है। वह अपनी प्राणघातक विपन्नता से भयभीत होकर महानगर में भाग आता है, जिसकी जिन्दगी प्रतिदिन अपने रोम-रोम के नीचे स्थित खून को बहाने और स्लमों के अन्धकारमय रसातल में डूब जाती है। कुछ पंक्तियाँ पढ़िए ''तब देश दरका था, अब गाँव दरके हैं। कस्बे तथा शहर दरके हैं। घर-परिवार बंटे हैं। आधा वहाँ, आधा यहाँ। यहाँ ये खोभारियों में रहते हैं। पटरियों पर सोते हैं। सब दुख सहकर महानगर के सबसे कठिन काम संभालते हैं। एवज में दुरदुराए जाते हैं।'' पृष्ठ संख्या, 110, ('दोआबा' अक्टूबर, 09, सम्पादक-जाबिर हुसेन)।
'इरावती' पत्रिका के 'अंक-9' में प्रकाशित सुषमा मुनीन्द्र की कहानी 'ट्रीटमेंट'। इसमें सुषमा जी ने 'संजोग' नामक कपड़ा व्यवसायी के विवाहेतर यौन-सम्बन्ध का मुद्दा उठाया है। संजोग बाल-बच्चेदार है, सांस्कारिक पृष्ठभूमि का है, अपनी पत्नी रतन का एकनिष्ठ प्यार पाया है उसने, फिर भी...। कहानी आजकल बेहिसाब दर से मूल्यहीन होते आदमी का सच उजागर करती है, मगर एक रेखीय वर्णन-विन्यास की शैली में। आगे है राजनारायण की कहानी ''इम्तहान''। आधुनिक से आधुनिक होकर भी कैसे प्रेम की मानवीय गरिमा को बचाए रखा जा सकता है, यह कहानी इस दुर्लभ यथार्थ का पठनीय उदाहरण है। यहाँ दो युवा प्रेमियों के बीच टटकी चाहत की भारी उथल-पुथल मची रहने के बावजूद किसी के आचरण में मर्यादाहीन हो उठने की सनक नहीं है और इसी अमर-प्रकृति को एक नया अंजाम देती अमित मनोज की कहानी ''स्टेशन पर प्रेम''। अचानक चलते-फिरते, घूमते-घामते प्रेम जगा देने वाली उम्र में डूबे हुए युवक तरुण और ज्योत्स्ना के बीच अव्यक्त किन्तु पक्के प्रेम की हकीकत है यह कहानी। प्रेम जैसे शाश्वत मंत्रमुग्धकारी मुद्दे को क्षण-क्षण बदलती भावनात्मक स्थितियों के सूक्ष्म चित्रण से कहानी को और वेदनापूर्ण बनाया जा सकता था, परन्तु अमित मनोज विषय के ऊपर-ऊपर तैरते हुए, बिना तबियत से डुबकी लगाए सीधे-सीधे पार निकल गए। (प्रगतिशील इरावती, अंक, 9, सम्पादक-राजेन्द्र राजन)Ð
साहित्य जगत में अपनी नई उपस्थिति दर्ज कराने वाली पत्रिका 'अभिनव-मीमांसा' के प्रवेशांक 09, 'अगस्त' के अंक में प्रकाशित उषा महाजन की कहानी- 'एंटीक', आज के अति आधुनिक बाजारवादी अपसंस्कृति में आकंठ रमी हुई नवयौवना 'गोगी' और सामाजिक मूल्यों, संस्कारों एवं मर्यादाओं में जीने वाली, यौन-शुचिता को अंधविश्वास की हद तक महत्व देने वाली माँ के बीच वैचारिक टकराहट की कहानी है। कहानी का निष्कर्ष है कि सिर्फ प्रेम की जमीन पर खड़े होने वाले सम्बन्ध निष्कंटक नहीं हैं, यहाँ भी शरीर के प्रति भोगवादी मानसिकता चरम से कुछ नीचे सक्रिय नहीं रहती। (अभिनव मीमांसा, प्रवेशांक, 09, सम्पादक-विवेक पांडेय)Ð
'परिकथा' के 'नवम्बर-दिसम्बर-09' अंक में नसीम साकेती की कहानी 'सौदा'। यह कहानी पृथ्वी की हवा, मिट्टी, पानी और धरती की मातृ-शक्ति को न सिर्फ बचाने, बल्कि उसके लिए जान की कुर्बानी भी दे देने को तत्पर दिखाई देती है। पृथ्वी को आगे जीवित रखने के लिए उसका स्वास्थ्य बचाए रखने पर कोपेनहेगन में विश्व के राष्ट्राध्यक्षों की बैठकें हुईं। मुद्दा है प्रत्येक जिम्मेदार देश Co2 गैस (कार्बन 'डाईआक्साइड' के उत्सर्जन में कुछ प्रतिशत (10-15) की कमी लाएँ। बात-बहस में देश एक दूसरे का सिर फोड़कर खा जाने को तैयार हैं, मगर इस सृष्टि-विनाशक गैस को कम उत्सर्जित करने के लिए तैयार नहीं हैं। आगे इसी अंक में रामाशीष की कहानी 'हिसाब'। इसमें कहानीकार ने मजाकिया और हँसोड़ शैली में 'हुनीलाल' जैसे मामूली और बेरोजगार आदमी के नाचीज दरसत्य को उभार कर रख दिया है। पैसे की बेतरह तंगी और बेरहम भूख के कारण वह होटल में खाना परोसने का काम करता है। कुछ ही दूरी पर मौजूद दिखती है हरि दिवाकर की कहानी 'चंदा'। इसमें धर्म की खोल में छिपे उस साम्प्रदायिक, उन्मादी और चरितभ्रष्ट लम्पट को दिखाया गया है, जो धर्म के नाम पर हिंसा, बलात्कार, अपहरण और लूट का नंगा नृत्य खेलने से जरा भी संकोच नहीं करता। आजकल त्यौहार, पर्व, उत्सव बुद्धिशून्य दिखावेबाजी और धार्मिक रुतबा जमाने का माध्यम बन गया है। दुर्गापूजा हो, गणेशपूजा हो या फिर लक्ष्मीपूजा सब में यही विवेकमुक्त प्रदर्शनबाजी बढ़-चढ़कर दिखाई देती है। ('परिकथा', नवम्बर-दिसम्बर, 09)Ð
हिमाचल प्रदेश में बैठकर समकालीन हिन्दी कविता में पहचान बनाने वाले कवि सुरेश सेन निशांत। 'प्रगतिशील इरावती' में उनकी कुल दस कविताएँ प्रकाशित हुई हैं, जिनमें शिमला माल रोड पर, नादान बेटी का पिता, लड़कियाँ, घर और पहाड़ शीर्षक कविताएँ अपनी सार्थकता प्रमाणित करने में पूर्णत: सक्षम हैं। शिमला माल रोड आधुनिक उपभोक्तावादी दिग्भ्रमित संस्कृति का प्रतीक है, वहाँ लोकक्षेत्रों में कर्मशील शुष्क-धूमिल चेहरों के लिए जगह कहाँ? 'घर' कविता वर्तमान मनुष्य के मानवीय पुनर्निमाण का संकल्प दुहराती है। 'घर' प्रतीक है शरीर का, जिसका न जाने किन-किन कारणों से, हद दर्जे के उस पार तक पतन हो चुका है। जायसी लिखते हैं 'यथा-यथा पिण्डे, तथा-तथा ब्रह्माण्डे' तो फिर अन्त: व्यक्तित्व के अभ्युत्थान के बिना सृष्टि की रक्षा सम्भव है क्या? केशव शरण ने अपनी कविता 'खतरे और डर बाँधने वाले' में आदमी के भीतर समाए हुए अवैध, अन्यायी भय की प्रभुसत्ता को बेनकाब किया है। (प्रगतिशील इरावती, अंक 09)Ð
सृजन की दुनिया में तेजी से अग्रसर हो रही पत्रिका 'जनपथ' का 'नवम्बर' अंक 'कविता का गिरना' मलयालम के सुप्रसिद्ध कवि के. सच्चिदानंदन पर केन्द्रित है। समकालीन मलयालम कविता में अयप्प-पणिक्कर, ओ.एन.वी. कुरूप, बाल चन्द्रन चुल्लीकाड़ के साथ-साथ के. सच्चिदानन्दन का नाम निर्भ्रांत विश्वास के साथ लिया जाता है। समकाल की मूल्यवत्ता को मलयालम भाषा में जुबान देने वाले इन सभी कवियों ने स्मरणीय यात्रा-कविताएँ लिखी हैं। जैसे अयप्प-पणिक्कर की 'अमेरिकी स्केच्स', 'रात व दिन' तथा 'इवाना'। के. सचिदानन्दन की बाकायदा पहचान ही यात्रा-कवि के रूप में होती है। 'पल लोकम', पल कालम् (कई दुनिया, कई समय), और 'मुनू यात्रा' (तीन यात्राएँ) इनकी यात्राओं से सम्बन्धित रोचक काव्य संकलन हैं। 'जनपथ' के इस अंक की अधिक से अधिक दस कविताएँ ही अन्तर्वस्तु की महत्ता का गहरा सुख दे पाती हैं, वरना अधिकांश कविताएँ उड़ती हुई वे शुष्क पत्तियाँ हैं, जिनके ठौर-ठिकाने का कुछ अता-पता नहीं। वे बेअर्थ ही रह गई है, उनकी भीड़ के बीच एकाध हरी पत्ती दिख जाए तो संयोग की बात है। संतोष अलेक्स ने एक अनुवादक का संतोषजनक दायित्व निभाया है। (जनपथ, नवम्बर, 09, सम्पादक-अनंत कुमार सिंह)Ð
'प्रगतिशील वसुधा' में प्रकाशित चन्द्रकांत देवताले की कविता 'सुदीप के न रहने पर'। देवताले जी ने जो कि स्वयं भी स्व. सुदीप बनर्जी के समानधर्मी सर्जक व्यक्तित्व हैं, सुदीप बनर्जी के शब्द से परे साहित्येत्तर व्यक्तित्व को काव्य-पंक्तियों में प्रवाहित किया है। इसी अंक में वरिष्ठ कवि कुँवरनारायण की आठ कविताएँ। इसमें पहली कविता 'घुड़सवार' दृष्टिपूर्ण है। कहीं सुदूर, गहरे अतल में सक्रिय रहती सूक्ष्म रचनात्मक अनुभूतियों को ध्यान और एकाग्रता के भ्रम से प्रकाशित कर ले आने की कला कुँवरनारायण की प्रतिभा का मूल हिस्सा है। इस कविता की तीन पंक्तियाँ प्रवेश करना चाहता हूँ किसी ऐसी सदी में जिसकी सदियों से प्रतीक्षा है (पृ. संख्या-61)। लम्बी कविता के चलन में अपना नाम जोड़ती कविता 'कबूलनामा', सृजनकर्ता हैं युवा कवि 'निशांत'। यह कविता इस अर्थ में अलग है कि यह एकल अर्थ के विस्तार की कविता नहीं, बल्कि असंख्य खण्डित अर्थ देने वाली कविता है। यह एक व्यक्ति के रूप में अपनी लघुता, स्वार्थपरता और चलताऊ संकीर्णता के सहर्ष आत्म-स्वीकार की कविता है। आत्मसत्य कहने का साहस इसके बिखरे-छितराए हुए महत्व का एकमात्र कारण है। इसी अंक में ज्ञानेन्द्रपति की कविता 'रेत के द्वीप पसर आए हैं।' सदियों-सहस्राब्दियों से काशी से सटकर, अभिन्न होकर बहने वाली कर्मवीरा, धर्मवीरा अजस्र ममता-प्रवाहिनी 'गंगा' के प्रति कवि-पुत्र का अनोखा उदग्र अनुराग रो पड़ा है। गंगा है तो बनारस है, गंगा नहीं तो बनारस को भी मरा हुआ ही समझिए। देखिए दो पंक्तियाँ गंगा भय से भी सिकुड़ी जाती हैं उर तक रेत और ऑंखों में भरा हुआ पानी (पृ. सं. 163)। उमा शंकर चौधरी की पाँच कविताएँ। इसमें उमाशंकर स्त्री के आधुनिक चित्त के तार को पहले बारीकी से पकड़ते हैं, फिर शब्दों की धीमी चोट से उसमें ध्वनि पैदा करते हैं। इसीलिए इनकी कविताओं का अर्थ एक-दो वाक्य में नहीं, पूरे विन्यास में खुलता है। (प्रगतिशील वसुधा, जुलाई-सितम्बर, 09)Ð
'अभिनव मीमांसा' के प्रवेशांक में प्रतिष्ठित युवा कवि 'बोधिसत्व' की आठ कविताएँ हैं, लगभग आठों कविताएँ दस-पन्द्रह मिनट के औसत से करीब दो घण्टे में आराम से निबटा दी गई कविताएँ लगती हैं। वैसे बोधिसत्व अपने सामाजिक, पारिवारिक और आंचलिक परिवेश से जुडे हुए अनेक लोक विषयों को मूल्यवान अर्थों की गरिमा से यादगार बनाने में सक्षम हैं। 'कुछ बातें' शीर्षक कविता में सुमन सिंह प्रत्येक इंसान का सच बताने की कोशिश करती हैं। (अभिनव मीमांसा, प्रवेशांक, अगस्त-09)Ð
समकालीन सृजन परिदृश्य में अपनी निरन्तर उपस्थिति बनाए रखने वाली उत्तराखण्ड की प्रतिनिधि हिन्दी पत्रिका 'आधारशिला'। पच्चीस वर्ष का सफर पूरा करने के उपलक्ष्य में इसका 'त्रिलोचन-विशेषांक' प्रकाशित हुआ है। शुरुआत ही लोकचित्त के गायक कवि की प्रतिनिधि कविता 'चंपा काले-काले अच्क्षर नहीं चीन्हती' से हुई है। वाक्य साधारण, सीधा-सादा। चम्पा का व्यक्तित्व-चित्रण बिलकुल सीधी रेखा में। कविता का प्रवाह सरल रेखीय, परन्तु क्या अर्थ इसका इतना सपाट है, ऊपर-ऊपर तैर रहा है? नहीं। त्रिलोचन की पहचान बन चुकी इस कविता में चम्पा के प्रति कवि के भीतर आकंठ आत्मीयता है, पितृवत् स्नेह है और उसकी निरक्षरता में पवित्र मानव-विवेक खोज लेने की प्रफुल्ल उत्सुकता है। चम्पा अपने बालम के प्रति अटूट नेह जिस भोलेपन के साथ कह डालती है, वही इस कविता की दीर्घायु का कारण बन जाता है। (आधारशिला, त्रिलोचन विशेषांक, 09, सम्पादक-दिवाकर भट्ट)Ð
'दोआबा' के अंक में प्रकाशित अरुण कुमार का आलेख 'विस्थापन'। तथ्य, घटना, चिंतन और प्रभाव के उचित मिश्रण से किसी जटिल मुद्दे को किस तरह जानने योग्य बनाया जा सकता है, अरुण जी का यह लेख इसका प्रमाण है। साहित्यकार हरिराम मीणा का लेख 'निशाने पर आदिवासी' मात्र जानकारी रखने योग्य सर्वेक्षण बनकर रह गया है, जबकि वे आदिवासियों के विस्थापन जैसी पुरानी, बेइलाज, गहरी पीड़ा को अनम्य स्वर दे सकते थे। वही स्वर पाठक के मन में आदिवासियों के अकथ दुख को अविस्मरणीय बना देता। आगे इसी मुद्दे पर युवा कवि अशोक सिंह का लेख 'विनाश की ओर'। कवि ने बिहार और झारखण्ड के आदिवासी-बहुल क्षेत्रों में पश्चिमी देशों की मुनाफेबाज कम्पनियों के शोषणजाल को 'अर्धनग्न' किया है। (दोआबा, अक्टूबर, 09, सम्पादक-जाबिर हुसैन)Ð
'आधारशिला' के त्रिलोचन-विशेषांक में हरिपाल त्यागी का संस्मरणात्मक लेख ''उस जनपद के कवि को याद करते हुए।'' हरिपाल जी ने सधी हुई कलम से कहीं ज्यादा अतिशय अनौपचारिक आत्मीयता के साथ 'जनपद-कवि' को याद किया है। त्रिलोचन निराला नहीं हैं, मगर उनके सृजन का अंदाज निराला जैसा ही निराला है। अपने ढग की मंदगामी गहन अर्थधारा सिर्फ त्रिलोचन ही लिख सकते थे। राम कुमार कृषक का संस्मरण- ''बंद गली के आखिरी मकान में।'' इस 'शब्द-शास्त्री' को कृषक जी ने अपूर्व स्नेह के साथ याद किया है मानो इस महत् कवि की अनोखी महत्ता कृषक जी के हृदय को अपना अव्वल दीवाना बनाकर भावविभोर नृत्य करवा रही हो। सुभाष चन्द्र कुशवाहा का संस्मरण 'त्रिलोचन का घर।' कथाकार का लेख एक मायने में हमें सावधान करता है कि हिन्दी का साहित्यिक जगत आज भी अपने निर्माताओं, शिल्पियों और भविष्य द्रष्टाओं का सलीके से सम्मान करना नहीं जानता। (आधारशिला, त्रिलोचन विशेषांक, 2009)Ð
'परिकथा' के नवम्बर-दिसम्बर 09 अंक में आलोचक शंभुनाथ का आलेख 'एशियाई संस्कृतिमहानता, अंतर्विरोध और चुनौतियाँ।' आलोचक शंभुनाथ जी ने इसमें, आधुनिक विश्व में विभिन्न राष्ट्रों (अमेरिका, चीन, जापान, भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश) की संस्कृतियों के बीच वर्चस्व, अन्तर्विरोध, टकराहट और युद्धोन्माद को रेखांकित करने का कुशल श्रम किया है। जापान के नोबेल साहित्यकार पुरस्कार विजेता 'केंजाबुरो ओए' पर विदेशी साहित्य के मर्मज्ञ जितेन्द्र भाटिया का आलेख 'हिरोशिमा का अंधेरा...।' 'निप द बड्स, शूट दि किड्स,' 'ए पर्सनल मैटर' और 'ए हीलिंग फैमिली' केंजाबुरो के प्रमुख प्रसिद्ध उपन्यास हैं। (परिकथा, नवम्बर-दिसम्बर, 09)Ð