Tuesday, May 11, 2010

साहित्य में स्वप्न की ऐतिहासिक भूमिका भरत प्रसाद

21 वीं सदी में विकासशील हिन्दी साहित्य के मौजूदा चरित्र और व्यवहार को देखते हुए एक स्पष्ट तस्वीर उभरने लगी है कि उसका आगामी उत्थान और व्यक्तित्व कैसा होगा। इस समय साहित्य में एक ओर नव-जनवाद है, तो दूसरी तरफ मारे जोश, अहंकार और प्रभुता में निर्लज्ज होकर नाचता खालिस कलावाद। इस कलावाद में चमकती हुई नाटकीय भाषा का खेल है, विषय के स्वाभाविक स्वरूप को ऐंठ-वैंठ कर बदरूप और अविश्वसनीय बना देने का गुर है और सृजन की विधा के किसी भी पूर्व-प्रचलित, पूर्व-स्थापित ढाँचे में एक सिरे से तोड़-फोड़ पैदा कर उसे अपनी खिलंदड़ी, स्वच्छन्द महत्वाकांक्षा के मुताबिक फिर से रच डालने की बहकी
हुई जिद।
यहाँ धरातल पर प्रतिदिन अपने मामूली अस्तित्व के लिए हैरान-परेशान, आम आदमी की जिन्दा दुश्वारियाँ स्वर पाती हैं, यहाँ वर्तमान संघर्ष के अविश्वसनीय सच को आश्रय मिलता है। यहाँ लोक-सर्जक कागज पर कलम उठाते ही ऑंखों में चक्रवात की भाँति उठते आम दु:ख से एकाकार होने लगता है।
आज जिम्मेदार से जिम्मेदार लेखक की जुबान अति-प्रशंसा के आवेश में उनके प्रति ही खुल रही है जो पुरस्कारबाज हैं, जो जीवन की जद्दोजहद रचने का विशुद्ध नाटक करते हैं, जो पन्ने-दर-पन्ने पर सिर्फ बनावटी, गैर वास्तविक लोक वेदना के ऑंसू बहाते हैं। जिनके मजे हुए व्यावसायिक हृदय में समय के केन्द्रीय संघर्षों, दु:खों और व्यापक पराजयों को उद्दाम स्वर देने का रत्ती भर भी संकल्प शेष नहीं बचा है। बार-बार दुहराने की जरूरत नहीं कि अपने समय, समाज और संस्कृति के जमीनी सरोकारों से सर्वाधिक कटा हुआ साहित्य आज केन्द्र में आने को बेचैन है, इन दिनों जिस सर्जक के भीतर समकालीन मुद्दों से सीधे टकराने, जूझने, संवाद करने का खुद्दार जज्बा है, उनको ईश्वरनुमा सम्पादक भाव नहीं देते और उनकी रचनाओं को सपाट, भावुक, गैर व्यवहारिक करार देकर मेज के नीचे मुँह बायी रद्दी टोकरी के हवाले कर देते हैं। खुलेआम कहें तो सीधी, सच्ची और खरी बात कह देने वाली रचनाओं को गैर-साहित्यिक घोषित कर देने का मानो आज षडयन्त्रकारी अभियान ही चल पड़ा है और सिर पीटकर, मुट्ठी बाँधते हुए, तनकर खड़े हो जाने के लिए विवश कर देने वाला आश्चर्य यह कि इस दागी और गैर जिम्मेदार अभियान में कवि, कथाकार, आलोचक और सम्पादक बढ़-चढ़कर शामिल हैं।
इन समस्त मायावी आकर्षणों, चमत्कारों और दिग्भ्रमित कर देने वाले शब्द जालों के बावजूद सृजन और सर्जक के उम्र की शर्त क्या है, इसे जर्मन नाटककार और कवि 'बेर्टोल्ट ब्रेष्ट' की इन पंक्तियों से बूझिए
और मैं हमेशा सोचता था
एकदम सीधे-सादे शब्द ही पर्याप्त होने चाहिए
मैं जब कहूँ कि चीजों की असलियत क्या है
प्रत्येक का दिल छलनी हो जाना चाहिए
कि धँस जाओगे मिट्टी में एक दिन
यदि खुद नहीं खड़े हुए तुम
सचमुच तुम देखना एक दिन
(1953-56 ई.)Ð

काश! कविता रोटी बन सकती
'वर्तमान साहित्य' के फरवरी- 2010 अंक में प्रतिष्ठित कवि एकान्त श्रीवास्तव की छ: कविताएँ। लगभग सभी कविताओं के वाक्य-दर-वाक्य में लोक जीवन के ठेठ यथार्थ के भीतर धँसे रहने की आकांक्षा झलकती है। एकान्त जी की लोक-वेदना में समकालीन सृजन की स्वीकार्य कलात्मकता का घुमाव है और चित्त को सहज लगने वाले अर्थों की समुचित गरिमा कायम रखने का विवेक भी। इसी अंक में 'स्नेह सुधा' की कविता 'फर्क नहीं पड़ता'। इसमें कवयित्री ने आपबीती कटुता का बयान बिना किसी हिचक और लाग-लपेट के किया है। आत्मसत्य बयाँ करने के लिए तथाकथित कलात्मकता को इंकार करने वाली कलात्मकता यही है (वर्तमान साहित्य : फरवरी 2010)Ð
'कथन' के 'जनवरी-मार्च 10' अंक में प्रकाशित युवा कवि अरुण आदित्य की तीन कविताएँ। पहली कविता 'ऐसी एक कविता' शीर्षक से। वस्तुत: बड़ी से बड़ी कविता किसी के मुँह की रोटी नहीं बन सकती, विकलांग की वैशाखी नहीं हो सकती, मृतक को जिंदा नहीं कर सकती। मगर कविता की सर्वश्रेष्ठ महत्ता ऐसे ही असम्भव कार्य को हूबहू कर दिखाने में ही है। व्यावहारिक जगत में यदि वह किसी के गहरे जख्म की टीस कम न कर सके, यदि किसी लाचार के ऑंसू न कम कर सके, यदि निराशा के खण्डहर में भयाक्रांत होकर जीते इंसान की साँसों की ताकत न बन सके, तो वह कविता किस काम की? अरुण आदित्य की कविता में कुछ ऐसा ही दुर्लभ महत उद्देश्य प्रकट हुआ है (कथन : जनवरी-मार्च 10)Ð
'पाखी' के फरवरी 10 अंक में पाणिनी आनन्द की कविता 'बस, एक बार'। अभिव्यक्ति की जज्बाती और निर्भीकतापूर्ण शैली में कवि ने समय के तात्कालिक यथार्थ का पोस्टमार्टम किया है। वह यथार्थ जो सर्वव्यापी सत्य है, मगर हमारे जिगर में इतनी ताकत नहीं कि सीधे-सीधे उस सच से ऑंखें मिला सके और उस भयावह सच के प्रति चिंतन करने को अपने मूल संस्कार का हिस्सा बना सकें। गौर करें इन पंक्तियों पर बस, एक बार ही सही  पर उस रोटी को तो देखें  जिसे सुअर भी नहीं खाते, पर  इंसानों की एक नस्ल उसी पर जिंदा है (पृ. संख्या 76), (पाखी : फरवरी 10)Ð
'परिकथा' के नवलेखन अंक 10 में प्रकाशित दिलीप शाक्य की कविता 'हमारी आग' में अपने मौलिक मानवीय अधिकार छिनते जाने और उसे पुन: हासिल करने का अखण्ड संकल्प है, वहीं कुमार की कविता 'वार्ताओं की मेज' में आजकल के लोक-कल्याणकारी योजनाओं की घृणित और कायर सच्चाई से पर्दा उठाया गया है। प्रभाकर सिंह अपनी कविता 'सभ्यता-समीक्षा' में समय की भयावह सर्वशक्तिमानता का रहस्य खोलते हैं, और आम जनमानस की भयाक्रांत दशा का चित्रण पेश करते हैं। सुजीत कुमार सिंह अपनी लम्बी, मगर स्मरणीय अर्थों से पूर्ण कविता 'यह आजमगढ़ है' में अटूट कथात्मक सूत्र के सहारे अतीत, वर्तमान, इतिहास, परिवार, साहित्य और श्रमिक सबको इस कदर फेंट देते हैं कि अंत तक विकसित होते-होते कविता उत्तर प्रदेशीय भारत का वास्तविक चेहरा बन जाती है। संतोष श्रेयंस की कविता 'मृगतृष्णा' आज के असहाय मनुष्य के आत्मसत्य का प्रकाशन है। वेदिमित्र शुक्ल ने अपनी एकहरी कविता 'गाँधी जयन्ती मनाई गोडसों ने' में एक नहीं, कई गोडसों के पैदा होने का रहस्य खोला है। आज की राजनीति गोडसे बापू के हत्यारे से कहीं अधिक खतरनाक है, क्योंकि वह गांधी के पुनर्जन्म को बर्दाश्त नहीं कर सकता, हाँ, वह हर वर्ष गांधी की जयन्ती अवश्य मनाता है। इसी प्रकार प्रियोवती निड.व्थौजा ने 'इन्तजार' कविता में, मंजू श्री ने 'बूढ़ा वृक्ष और आदमी' कविता में, अनार सिंह वर्मा ने 'प्रेम करने के दिन' कविता में समकालीन मनुष्य के अन्त: बाह्य यथार्थ को प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत किया है (परिकथा : जनवरी-फरवरी 10)Ð
'अभिनव कदम' के अंक 21 में युवा कवि केशव तिवारी की कविता 'बिसेसर'। जाति, धर्म, सम्प्रदाय के बहाने खाँटी अवसरवाद की राजनीति खेलने वाली सत्ता के मायाजाल में बिसेसर जैसा अनपढ़ सरल हिन्दुस्तानी कैसे अपनी भावुकता और सिधाई के कारण ठगा-चूसा जाता है इस दर हकीकत का खुलासा केशव तिवारी ने सीधे प्रवाह के अंदाज मे किया है। इसी अंक में शैलेय की तीन कविताएँ। पहली कविता 'दुर्घटना' में कवि ने आम दुर्घटना से हटकर ज्वलन्त भावुकता की मौत को दुर्घटना सिद्ध करना चाहा है। यदि हमारा सत्य का पक्षधर आक्रोश मर रहा है, असंतोष मर रहा है, बेचैनी समाप्त हो रही है तो वाकई हम मर रहे हैं। यह सांसारिक दुर्घटनाओं से कहीं ज्यादा भयावह दुर्घटना है कि प्रत्यक्ष दिखती दुर्घटनाओं के प्रति हमारी मानवीय भावुकता ही मर जाए (अभिनव कदम : जून-नवम्बर 09)Ð
समकालीन अंधकार से मुठभेड़ करने वाली कहानी
भोपाल से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'प्रेरणा' के नवीनतम अंक में प्रकाशित प्रदीप पंत की कहानी 'कसाई'। यह कहानी कसाई के अनजाने मानवीय व्यक्तित्व को सामने लाती है। कसाई गिरी उसका पेशा है, जीवनयापन का जरिया है। इससे उसका घर-परिवार चलता है। कसाई रोज बकरी हलाल जरूर करता है, मगर वह खूनी प्रवृत्ति का नहीं है। उसके भी दिल में इंसानियत की आग जलती है। अन्याय और चरित्रहीनता देखकर उसके रोम-रोम में क्रोध की लहर उठ जाती है। 'तय तो करना ही है' यह शीर्षक है जाने-पहचाने कहानीकार राधेलाल बिजधावने की कहानी का। बिजधावने सद्गुणों की निर्मल सुन्दरता के पक्ष में खड़े हैं। समकालीन ग्राम जीवन के संवेदनशील कहानीकार के रूप में बिना हल्ला किए अपनी पहचान बना रहे रणीराम गढ़वाली की कहानी 'राहुकेतु'। यह कहानी यकीनन अथाह और बेहिसाब चरित्रहीनता के घुप्प अंधकार से, ऑंखें खोलकर सीधे टकरा जाने वाली कहानी है। जिसने पेशेवर भिखारियों की दिशाशून्य, श्मशानी और बेइंतहा बर्बाद दुनिया को खुली ऑंखों से नहीं देखा है वे इस कहानी के वीभत्स सत्य पर यकीन नहीं कर पाएँगे (प्रेरणा : जुलाई-दिसम्बर 09)Ð
वर्तमान साहित्य के फरवरी 10 अंक में उभरते कहानीकार रूपलाल बेदिया की कहानी 'घनी होती झाड़ियाँ'। रूपलाल ने कहानी के चरित्रों में सफलतापूर्वक व्यक्तित्वांतरण किया है, संकल्प के साथ, जिद्द के साथ, तपी हुई दृष्टि के साथ। गाँव में पला-बढ़ा बेटा मुलायम गद्दी वाली कुर्सी में धँसने का रुतबा और तीन मंजिली इमारत की हैसियत पाकर बूढ़े माँ-बाप के प्रति आकंठ निर्दयी हो जाता है। इसी अंक में जयप्रकाश कर्दम की कहानी 'गोष्ठी'। यह इस अर्थ में पठनीय है कि आजकल के दलित लेखकों की सोच-समझ में घुसी-धंसी हुई जातिवादी बीमारी को उजागर करती है (वर्तमान साहित्य : फरवरी 10)Ð
'कथन' के जनवरी-मार्च 10 अंक में प्रतिष्ठित लेखक जाबिर हुसैन की प्रकाशित कहानी 'इल्तिजा'। जिन्दगी की दु:ख-दर्द भरी रौनक के कथाकार जाबिर हुसैन ने एक पेड़ के कटने पर उसकी गूँगी, अशब्द अन्तर्वेदना को मनुष्य की आवाज प्रदान की है। किसी मार्मिक उद्देश्य की सघन अनुभूति संक्षेप में कैसे करा दी जाए, 'इल्तितजा' कहानी इसका पठनीय उदाहरण प्रस्तुत करती है। इसी अंक में नीला प्रसाद की कहानी 'एक जुलूस के साथ-साथ। इसमें एक महिला कालेज की वाडर्ेन जी.वी. द्वारा हॉस्टल की कुछ भोली-सीधी लड़कियों के यौन-शोषण का पर्दाफाश हुआ है। इसमें वर्तमान उच्च शिक्षा जगत का एक नापाक सच है। मगर यह कहानी न तो जी.वी. की अपराध बोध ग्रस्त मानसिक दशा का विश्लेषण करती है और न ही ऐय्याशबाज व्यवसायियों की कामातुर इच्छाओं की शिकार लड़कियों की विषम-जटिल मनोदशा का। (कथन : जनवरी-मार्च 2010)Ð
साहित्य का मुद्दा
पत्रिका 'पाखी', फरवरी, 2010 ई.। मुद्दा है कि 'पुरानों को नहीं पढ़ती नई पीढ़ी'। तो खैर! 'पीढ़ियाँ आमने-सामने' की इस बुद्धि-उत्तेजक बहस में कुछ अह्म मुद्दे चमके अवश्य-मगर बिना कोई सर्वमान्य और निर्णायक निष्कर्ष दिए ठण्डे होकर बुझ भी गए। अहम् सवाल तो यह कि पुराने लेखकों को नई पीढ़ी पढ़ती ही नहीं। यदि यह आरोप सच है तो सौ में से सिर्फ पचास प्रतिशत ही, क्योंकि नई पीढ़ी जितनी ललक, आशा और सहृदयता के साथ वरिष्ठ रचनाकारों को पढ़ती है उतना खुद वरिष्ठ लेखक अपने समवयस्क लेखकों को नहीं पढ़ते। वजह साफ है कि आज की युवा पीढ़ी में समकालीन सृजन की क्षमताओं को जानने की तीक्ष्ण भूख है। लेखन के स्तर की गंभीर कलात्मकता पकड़ने की महत्वाकांक्षा है और अपने विगत की मूल्यक्ता को चित्त में धारण करने का दायित्व बोध है। जो बरसाती युवा लेखक 'अहंब्रह्मास्मि' की मुर्दा अकड़ में या जीते जी जूनियर खुदा की गद्दी पा लेने की सनक में अपनी सृजन-परम्परा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों को पढ़ना-आत्मसात करना बंद कर दे रहे हैं, देखते ही देखते लेखन की दुनिया से उनकी मरणासन्न कलम का जनाजा बेवक्त उठ जा रहा है।
रही बात वरिष्ठ लेखकों की, तो वे निन्न्यानवे प्रतिशत सुनिश्चित रूप से नए लेखकों के बारे में सकारात्मक, स्वस्थ और लोकतान्त्रिक धारणा नहीं रखते। आज की युवा आलोचना को खींचकर चार झापड़ मार दिया जा रहा है और घोषणा कर दी जा रही है कि युवा आलोचना सतही है, दो कौड़ी की रह गई है। इसी तरह बारम्बार युवा कविता पर व्यंग्य कसते हुए मुनादी की जा रही है कि यह विधा साहित्य की विलुप्त प्रजाति बन जाने के कगार पर खड़ी है। यहाँ शालीनता किन्तु दृढ़ विश्वास के साथ कहना जरूरी है कि वरिष्ठ लेखक युवा लेखन का बिना चार अक्षर पढ़े ऑंखें मूँदकर फैसला देने की भूल कर रहे हैं। समकालीन हिन्दी आलोचना और कविता दोनों में मजबूत, प्रतिभा सम्पन्न और सृजन दक्षता से आकंठ भरे हुए युवा स्वर जन्म ले रहे हैं। ऐन इसी वक्त, इसी जगह नाम लेने की बेचैनी मचलने के बावजूद युवा लेखकों की फेहरिस्त पेश करने से रोकता हूँ अपने आपको। आज यदि युवा लेखन में बेहतरी के बावजूद गड्डमगड्ड हो उठने की अनियंत्रित स्थिति कहीं है तो युवा कहानी में। 'हम सब कहानी के वर्तमान जिन्दा ईश्वर हैं' जैसी पागल आत्म मुग्धता कूट-कूट कर भरी हुई है यहाँ। ऐसे गुट का सरकारी रजिस्ट्रेशन भले न हुआ हो, मगर आपसी एका किसी दहशतगर्द संगठन से भी ज्यादा मजबूत है। ये युवा कहानीकार एक दूसरे का नाम 'राम-राम' स्टाइल में रट रहे हैं और साक्षात्कार, परिचर्चा, मंच, आमने-सामने की बहस में अपने गुट के यार-दोस्तों की कहानियाँ उछाल रहे हैं, मानो उन आठ-दस कहानीकारों के सिवाय पृथ्वी पर और कोई युवा कहानीकार जिन्दा ही न हो। यदि संयोग से होगा भी तो इस योग्य नहीं कि भूलकर भी एकाध बार उसका नाम ले लिया जाए। दुखद आश्चर्य यह कि इस परिचर्चा में सिर्फ उन्हीं कहानीकारों के नाम लगभग तयपूर्वक लिए गए हैं, जो चर्चित हैं, उनसे बखूबी आमने-सामने और बगल में बैठने वाला परिचय है, जिनका नाम लेने में फिलहाल कोई रिस्क-विस्क नहीं है (पाखी : फरवरी 2010 ई.)Ð
सम्पादकीय कलम का मूल्य
वरिष्ठ कथा लेखिका नमिता सिंह का सम्पादकीय 'अपनी बात' अपने हालात-ए-वक्त की अहम् समस्याओं के साथ मजबूती से खड़ा होता है। बाल यौन शोषण जो कि सरकारी और गैर सरकारी दोनों क्षेत्रों में कैंसर की तरह पसरा हुआ है आज की मुख्य समस्या है। 14 वर्षीया रूचिका की आत्महत्या के पीछे राठौड़ जैसे तानाशाह दैत्यों का नापाक हाथ होना कोई अनहोनी घटना नहीं है। नमिता जी की सम्पादकीय कलम का अर्थ महज किसी फौरी मुद्दे का पोस्टमार्टम कर सम्पादकीय की औपचारिकता निभा देना भर नहीं है, बल्कि वह मोर्चा की तरह हमें उस समस्या के प्रति वे अनिवार्यत: चिंतनशील और संवेदनशील करती हैं (वर्तमान साहित्य : फरवरी 2010 ई.)Ð
अभिनव कदम के अंक 21 में डॉ. सी.पी. राय का लेख 'भोजपुरी भाषा और भोजपुरी समाज।' अपनी ताकत के बावजूद इस स्तरीय लेख की सीमा यह है कि भोजपुरी क्षेत्र के साधारण जन की श्रमधारा को उस असाधारण कृतज्ञता के साथ नहीं याद किया गया है, जिसके हकदार वे हजारों वर्षों से रहे हैं (अभिनव कदम : जून-नवम्बर 09)Ð
'बहुवचन' पत्रिका के सम्पादक और आलोचक राजेन्द्र कुमार जी का सम्पादकीय 'सपनों के स्यापे का समय नहीं है यह'। दरअसल सपना मौलिक लक्ष्य देता है, संकल्प की आग सुलगाता है, अभिनव दिशा सृजित करता है, प्राणों में चेतना की सुबह की ताजगी भरता है और असम्भव शिखर पा लेने का आत्मविश्वास जगाता है। 'छायावाद' यूँ ही हिन्दी कविता का दूसरा स्वर्णकाल नहीं है। वहाँ भी कल्पना, जो कि सपने की सगी बहन है, छायावाद की काव्य-प्रवृत्ति है। राजेन्द्र जी ने अपने संक्षिप्त सम्पादकीय में 'स्वप्न' की अनिवार्य भूमिका को रेखांकित किया है। 2009 के लिए साहित्य की नोबेल पुरस्कार विजेता हेरेटा मुलर का आत्मवृत्त 'बहुवचन' के नए अंक में। यह वृत्त उन्हें पुरस्कार मिलने के ठीक दो दिन बाद लंदन के दैनिक पत्र 'द गार्डियन' में प्रकाशित हुआ। यह आत्मवृत्त वस्तुत: एक प्रतिबद्ध और निर्भीक की बेहिसाब बेइज्जती और शारीरिक प्रताड़ना का श्वेतपत्र है। कहने के लिए तो जर्मनी पृथ्वी के पाँच विकसित देशों में से एक है, परन्तु उसकी चमकती खोल के भीतर कलाकारों, बुद्धिजीवियों और लेखकों के प्रति कैसा उत्पीड़नकारी तानाशाह मन छिपा हुआ है। इसका अंदाजा मुलर को दी गई शारीरिक और मानसिक यातना के आधार पर सहज ही लगाया जा सकता है (बहुवचन : अक्टूबर-दिसम्बर, 09)Ð
नए अंक : एक रचना
1. इन्किलाब जिन्दाबाद और उर्दू (मंज्मून), पी.पी. श्रीवास्तव, 'शेष' जनवरी-मार्च, 10, सम्पादक हसन जमाल।
2. अमर्त्य सेन का भारत... (आलेख), रवि श्रीवास्तव, 'वाक्' जनवरी-मार्च, 10, सम्पादक सुधीश पचौरी।
3. आगे-आगे परछाईं (केदारनाथ सिंह, सुधीर रंजन की बातचीत),  'प्रगतिशील वसुधा', अक्टूबर-दिसम्बर, 09, सम्पादक कमला प्रसाद।
4. आग की कविता बल्गारिया से (अनुवाद - गोबिन्द प्रसाद), 'आलोचना', जनवरी-मार्च, 10, सम्पादक अरुण कमल।
5. क्यों लिखता हूँ- शंख घोष (अनुवाद राम शंकर द्विवेदी), 'दस्तावेज', अप्रैल-जून, 09, अप्रैल-जून, 09, सम्पादक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी।
6. चखों की स्वच्छन्द विषमता का गायक - निराला, रामचन्द्र शुक्ल, 'अक्षरशिल्पी', अक्टूबर-दिसम्बर, 09, विजय।
7. चुगारे (कविता) - निशांत, 'कृति ओर', जनवरी-मार्च, 10, सम्पादक रमाकांत शर्मा।
8. विचारधारा पर आधारित समाजों की शिनाख्त (सम्पादकीय राजेन्द्र यादव), 'हंस', फरवरी, 10, सम्पादक राजेन्द्र यादव।
9. सम्बद्ध (कहानी) - मीरा सीकरी, नया ज्ञानोदय, फरवरी, 10, सम्पादक रवीन्द्र कालिया।
10. भूमंडलीकरण का वैचारिक आधार (आलेख), गिरीश मिश्र, परस्पर, फरवरी, 10 ई., सम्पादक आनन्द बहादुर।


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