Monday, November 8, 2010

परिकथा के युवा कविता विशेषांक मई-जून 2010 में प्रकाशित भरत प्रसाद की तीन कविताएं

भरत प्रसाद
जन्म : 1980, संत कबीर नगर (उ.प्र.), शिक्षा : जे.एन.यू. से हिन्दी में एम.ए. व एम. फिल
प्रकाशन : अब तक अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, आलोचना आदि प्रकाशित
और फिर एक दिन (कहानी संग्रह),  एक पेड़ की आत्मकथा (काव्य संग्रह)
सहित कुछ और पुस्तकें प्रकाशित
संप्रति : पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय (शिलांग) में हिन्दी के सहायक प्रोफेसर पद पर कार्यरत
संपर्क,  हिन्दी विभाग, पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग, मो. 09863076138

परिकथा के युवा कविता विशेषांक मई-जून 2010 में प्रकाशित तीन कविताएं

1) पीठ पर भविष्य ढोता बच्चा



कल्पना से बहुत दूर जा चुके बचपन को

फिर से जी लेने की कल्पना अभी जीवित है उसमें

यह बचपन ही तो है

जो अंग-अंग में धंसे हुए दुर्भाग्य से

अनजान रखता है उसे



इस बचपन के सिवा और कौन-सी उम्र है?

जिसमें वह अपने आदमी होने पर यकीन कर सके

पेट की अगिन जिसकी झोंक में इंसान काठ हो जाता है

निर्जीव पुतला बन जाता है

इसने न जाने कैसे लड़-लड़कर जीत लिया है उसे

उसकी कोमल ऑंखों में झाँक कर देखना जरूर

वहाँ सूना रेगिस्तान नजर आएगा

सूखा हुआ दरिया दिखाई देगा

और दिखाई देंगी मरी हुई तमाम हसरतें

जो होश संभालने के बाद कभी पूरी ही नहीं हुईं

पागल बना देने वाली बदबू के मारे

जहाँ किसी का एक पल भी रुकना मुश्किल हो जाए

वहाँ वह लावारिस जानवर की तरह

भटकता हुआ मिल जाता है

वहाँ होगा औरों के लिए दर-नरक

उसे तो अपनी मुक्ति सिर्फ यहीं नजर आती है

किधर से भी कूड़े की नई बास मिलते ही

उसकी पुतलियाँ खुशी के मारे नाचने लगती हैं

सैकड़ों तरह से बस्साते

कूड़े के जंगल में जब वह धंसता है

तब उसमें वह चलती-फिरती लाश नजर आता है

कैसा भी तिरस्कार उसे तोड़ ही नहीं सकता

जमाने की बेइज्जती को जैसे वह दाएँ-बाएँ का खेल समझता हो

अपमान की कठिन से कठिन मार का

उस पर कोई असर ही नहीं पड़ता

उसकी आत्मा चोट सहने की इतनी अभ्यस्तहै

कि प्रताड़ित होने का उसके लिए कोई अर्थ ही नहीं

यातना को चुपचाप पी जाने में उसे गंजब की सिद्धि हासिल है

यकीन मानें

उसके मानस में चौबीसों घण्टे दीनता का आसमान झरता है

हताशा की काली ऑंधियाँ घहरती हैं

धू-धू कर जलती है उसकी उमंग

और खण्ड-खण्ड उड़ जाती है उसके जीने की ललक

वह दृश्य देख पाना किसी के लिए भी मुश्किल है

जब वह तन्हाई के क्षणों में अपनी माँ को याद करता है

या फिर

भूख से पछाड़ खाकर नि:शब्द रोता है

उसके बारे में उससे कभी मत पूछना

क्या दुख और क्या सुख?

वह ढंग से महसूस ही नहीं कर सकता

कुछ बोलता है तो चमड़ी काँपने लगती है

चेहरा धुँआ-धुँआ हो जाता है

निगाहें रोने लगती हैं

कैसे कहूँ कि

इंसान की तरह विश्वासपूर्वक बोलना

उसने कभी जाना ही नहीं

उसकी पीड़ा ही कुछ इस कदर है

कि उसे अब कोई पीड़ा नहीं होती

बेरहमी से रौंदा गया पौधा वह

अपनी पीठ पर इंसानियत का भविष्य ढोता है



2) प्रतिरोध

('वे इसलिए मरे क्योंकि उन्होंने अपने शत्रुओं का साथ नहीं दिया। वे इसलिए मरे क्योंकि वे अपने पड़ोसियों से प्यार करते थे। उनका दोष यही था न कि उन्होंने मानवता पर विश्वास किया। उनकी मौत का कारण यही था कि उन्होंने अत्याचारों पर अत्याचार नहीं किए।')

(खलील जिब्रान)


जब फुफकारती हुई मायावी सत्ता का आतंक

जहर के मानिन्द हमारी शिराओं में बहने लगे

जब झूठ की ताकत, सच के नामोनिशान मिटाकर

हमारी आत्मा पर घटाटोप की तरह छा जाए

जब हमारी जुबान-फिजाओं में उड़ती दहशत की सनसनी से

गूँगी हो जाए

जब हमारा मस्तक सैकड़ों दिशाओं में मौजूद तानाशाही की माया से

झुकते ही चले जाने का रोगी बन जाए

तो प्रतिरोध अनिवार्य है

अनिवार्य है वह आग जिसे इंकार करते हैं

बेबसी वह जंजीर है जो हमें मुर्दा बना देती है

विक्षिप्त कर देती है वह पराजय

जो दिन-रात चमड़ी के नीचे धिक्कार बनकर टीसती है

गुलामी का अर्थ

अपने वजूद को गिरवी रखना भर नहीं है

न ही

अपनी आत्मा को बेमौत मार डालना है

बल्कि उसका अर्थ

अपनी कल्पना को अंधा बना देना भी है

अपने इंसान होने का मान यदि रखना है

तो ऑंखें मूँदकर कभी पीछे-पीछे मत चलना

हाँ, हाँ की आदत अर्थहीन कर देती है हमें

जी, जी कहते-कहते एक दिन नपुंसक हो जाते हैं हम

तनकर खड़ा न होने की कायरता

एक दिन हमें जमीन पर रेंगने वाला कीड़ा बना देती है

जरा देखो! कहीं अवसरवादी घुटनों में घुन तो नहीं लग गए हैं?

पंजों की हड्डियाँ कहीं खोखली तो नहीं हो गई हैं?

हर वक्त झुके रहने से

रीढ़ की हड्डी गलने तो नहीं लगी है?

पसलियाँ चलते-फिरते ढाँचे में तब्दील तो नहीं होने लगी हैं?

जरा सोचो!

दोनों ऑंखें कहीं अपनी जगह से पलायन तो नहीं करने लगी हैं?

अपमान की चोट सहकर जीने का दर्द

पूछना उस आदमी से

जो अपराध तो क्या, अन्याय तो क्या

सूई की नोंक के बराबर भी झूठ बोलते समय

रोवां-रोवां काँपता है

याद रखना

आज भी जालसाज की प्रभुसत्ता

सच्चाई के सीने पर चढ़कर उसकी गर्दन तोड़ते हुए

खूनी विजय का नृत्य करती है

आज भी ऐय्याश षडयन्त्र के गलियारे में

काटकर फेंक दी गई ईमानदारी की आत्मा

मरने से पहले सौ-सौ ऑंसू रोती है

अपनी भूख मिटाने के लिए

न्याय को बेच-बाचकर खा जाने वाले व्यापारी

फैसले की कुर्सी पर पूजे जाते हैं

आज भी

आज का आदमी

उन्नति के बरगद पर क्यों उल्टा लटका नजर आता है?

आज दहकते हुए वर्तमान के सामने

उसका साहसिक सीना नहीं

सिकुड़ी हुई पीठ नजर आती है

आज हम सबने अपने-अपने सुरक्षित बिल ढूँढ़ लिए हैं

जमाने की हकीकत से भागकर छिपने के लिए

इसके पहले कि तुम्हारे जीवन में

चौबीस घण्टे की रात होने लगे

रोक दो मौजूदा समय का तानाशाह पहिया

मोड़ दो वह अन्धी राह

जो तुम्हें गुमनामी के पागलखाने के सिवाय

और कहीं नहीं ले जाती

फिजां में खींच दो न बंधु!

इनकार की लकीर

आज तनिक लहरा दो न!

'ना' कहने वाला मस्तक

बर्फ की तरह निर्जीव रहकर

सब कुछ चुपचाप सह जाने का वक्त

नहीं है यह!



3) रेड लाइट एरिया



यहाँ दिन में कभी दिन नहीं होता

चौगुनी रात रहती है

जिधर सूरज की रोशनी-

सिर्फ इच्छा में संभव है

जहाँ के मौसम में हमेशा

पतन की ंखौफनाक बदबू उड़ती है



यह वही श्मशान है

जहाँ वासना की जिंदा लाशें

हवस का नृत्य करती हैं

जिसकी दिशाओं से दमन की गूँज उठती है

जिसकी हवाओं में बदनाम आत्माओं की चीखें सुनाई देती हैं



यहाँ आते ही औरत की सारी परिभाषाएँ उलट जाती हैं

वह न तो बहन है, न बेटी

न ही किसी की पत्नी

माँ कहलाने की गलती वह सपने में भी न करे

यहाँ वह औरत भी कहाँ रह जाती है?

वह तो बस

प्रतिदिन परोसी जाने वाली थाली है

या फिर कोई मैली झील

जो सिर्फ जानवरों की प्यास बुझाने के काम आती है



शरीर पर जख्म चाहे जितने भी गहरे हों

गिने जा सकते हैं

परन्तु हृदय के जख्मों की गिनती कैसे कीजाए?

ऐसे घावों के इलाज के लिए

कोई दवा ही नहीं बनी आज तक

किसी लावारिस खिलौने की तरह

उससे इस तरह खेला जाता है

कि उसको चाहे जितनी बार जमीन पर फेंको

कोई आवाज ही नहीं आती

यकीनन, उसके भीतर से

आत्मा का नामोनिशान मिट चुका है

अपनी इच्छा के लिए उसमें अब कोई जगहनहीं

सपने देखना तो जीवन भर के लिए प्रतिबन्धित है

आजादी का हक उसे मरने के बाद सम्भव है

और तो और

अपने एहसास पर भी उसका कोई अधिकारनहीं

हाँ, उसको यदि कोई छूट है

तो बस गुमनाम रहकर

चुपचाप जमीन में दफन हो जाने की

पृथ्वी पर जीने की एक शर्त

यदि हलाहल नफरत को पी जाना हो

तो वह सबसे पहले इसी पर लागू होती है

बंजर इससे कहीं ज्यादा उपजाऊ है

तिनका इससे कहीं ज्यादा मजबूत

आदमी दुर्गन्ध से भी इतनी घृणा नहीं करता

उम्र कैदी की आत्मा भी इतना विलाप नहींकरती

मैं और क्या कहूँ?

कोई निर्जीव वस्तु भी इतनी जड़ कहाँ होतीहै?

इसके बावजूद

उसमें औरत की तरह जीने की बेचैनी अभी बाकी है

बाकी है सलाखें तोड़कर निकल भागने की हसरत

अपनी भस्म पर फसल लहलहाने की हिम्मत अभी बाकी है

कोई देखे जरा

सब कुछ लुट जाने के बावजूद

उसकी ऑंखों में अभी कितना पानी शेष है

यकीन नहीं होता कि

वह अब भी हँस सकती है

रो सकती है, नाच सकती है, खुश हो सकतीहै

सबसे आश्चर्यजनक यह कि

वह अभी भी प्यार कर सकती है

खैर मनाइए

आपके आदमी होने से अभी भी उसका विश्वास उठा नहीं है
*गवाह है पंक्तियाँ

''मुश्किल से 15 वर्ष की माया एक दुधमुंहे बच्चे की माँ है। मुम्बई के रेडलाइट एरिया में धन्धा कर रही माया पहले तो कुछ महीने के अपने बच्चे को नशा देकर वहीं कोठरी में अपनी चारपाई के नीचे रखती थी... 10 साल की माया को उसकी चाची ने गोरखपुर में 3000 रुपये में बेच दिया था। जब माया ने धन्धे के लिए 'न' कह दिया तो उसकी जमकर धुनाई की गई और पीड़ा पहुँचाने के लिए उसके ऊपर साँप फेंके गए...।''
कविताओं को परिकथा के युवा कविता अंक में http://www.parikathahindi.com/ यहां जाकर भी पढ़ सकते हैं ।

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