tag:blogger.com,1999:blog-31822886954534138362024-02-21T06:06:10.852+05:30देशधारादेशधारा समसामयिक साहित्य की घटनाओं का ब्लाग है जहां पर आप साहित्य की ताजातरीन जानकारियों से रूबरू हो सकते हैं ।भरत प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/15701950336360578610noreply@blogger.comBlogger8125tag:blogger.com,1999:blog-3182288695453413836.post-71014900380831257612011-01-07T13:57:00.001+05:302011-01-07T13:57:03.976+05:30लंबी कहानियाँ क्या कहानी के भविष्य का विकास कर रही हैं?<p>भरत की अंतप्र्रांतीय भाषाओं में जाने-पहचाने मराठी भाषा के प्रसिद्ध लेखक भालचंद नेमाड़े। उनके एक असुविधाजनक विचार का सारांश 'प्रकाशन समाचार' पत्रिका (राजकमल प्रकाशन समूह) के जुलाई 10 अंक में प्रकाशित है। नेमाड़े के अनुसार 'छोटी कहानियाँ कथा-विधा की अकूत संभावना को अवरुद्ध कर रही हैं' (पृष्ठ 1)। काबिल-ए-ंगौर है कि यह कठोर विचार तब दिया गया जब गीत चतुर्वेदी जैसे लंबी कहानी के पैरोकार की किताब का लोकार्पण हो रहा था। यदि नेमाड़े आज की लंबी कहानी को कहानी के मानदंड और शैली के रूप में देखते हैं, तो सुचिंतित तर्क के साथ। उन्हें अपने निष्कर्ष को बकायदा सिद्ध करना चाहिए। ऐसा एकतरफा निर्णय लघु कहानियों की बेमिसाल अर्थवत्ता को भी दरकिनार कर देता है। हो न हो, यह निष्कर्ष मौजूदा कहानी परिदृश्य में थीसिस या शोध-पत्रनुमा भारी-भरकम, लंबी-चौड़ी कहानियों के शोरगुल के कारण दिया गया हो। वरना नेमाड़े जी को बखूबी पता है कि प्राय: छोटे आकार-प्रकार की मारक, तत्वदर्शी और तपी-पकी हुई कहानियों को सूत्र-वाक्यों में साधने वाले एन्तोन चेखव, ओ. हेनरी, मोंपासा, खलील जिब्रान <br />और प्रेमचंद का विश्व साहित्य में क्या स्थान है? <br />समकालीन सृजन की कसौटी पर न तो लंबी कहानी को खारिज किया जा सकता है और न ही छोटी कहानी को। विषय में निहित सत्य की माँग के अनुसार कहानी के आकार-प्रकार का निर्धारण होना चाहिए। यदि कहानीकार को कोरी गपबाजी नहीं करनी है, यदि भूलभुलैया में घुमाती रहने वाली धुँआ-धुँआ भाषा का मायाजाल नहीं बुनना है, यदि उसकी मर्मभेदी निगाह विषय के असली नाजुक स्थलों पर जम गई है तो निश्चय ही वह चेतना की बेचैनी में जलते हुए अपने कीमती भावों को लंबी-लंबी कहानियों में जाया नहीं करेगा। इधर हिंदी कहानी में उदय प्रकाश ही एक ऐसे कथाकार हैं, जिन्होंने लंबी कहानियों में रोचक पठनीयता बरकरार रखते हुए उसे सर्व स्वीकार्य बनाया है। आज लंबी कहानियाँ विषयों की जटिल प्रकृति या अनेक अनसुलझे सवालों का अविस्मरणीय उत्तर देने के लिए नहीं, देखी-देखा ंफैशनपरस्ती में लिखी जा रही हैं। लंबी कहानी के लिए जिस अथक अंतर्दृष्टि, विवेक के अटूट तनाव और विषय को जड़-मूल-शाखा और फल-फूल सहित सम्पूर्णत: आत्मसात कर डालने वाले धैर्य की आवश्यकता होती है, वह आज लंबी कहानियाँ 'गढ़ने' वाले हिंदी के अधिकांश युवा कहानीकारों के व्यक्तित्व से नदारद है। आम पाठक तो बहुत दूर, साहित्य के 'परमानेंट' पाठक भी इन लघु शोध प्रबंधनुमा लंबी कहानियों को चाव से पढ़नेकी हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। जो पाठक दो सौ पेज का उपन्यास दो दिन में अक्षरश: पढ़ डालने की भूख पाले रहते हैं, वे 40 पेज की कहानी पढ़ने के पहले 40 बार सोच रहे हैं। आखिर कारण क्या है इसका, आइए, वरिष्ठ आलोचक विजय बहादुर सिंह के शब्दों में समझते हैं ''इस पीढ़ी में कुछ लोग लंबी कहानियाँ लिख रहे हैं। अगर कहानी कंटेट के कारण खिंचती जाए तो बात अलग है, लेकिन यहाँ तो कंटेट के बिना ही खींचा जा <br />रहा है।'' <br />युवा स्वर <br />सोनू उपाध्याय अभी बिल्कुल अभी इसी साल की नई पौध हैं। 'प्र्रगतिशील वसुधा' के अप्रैल-जून 10 अंक में अपनी कहानी 'रोजाना' के साथ हांजिर हैं। इसमें सोनू ने अपनी पल-पल की सूक्ष्म अनुभव-दृष्टि का परिचय दिया है। कहानी में 'अन्ना' मछली बेचती है और रंजन से प्यार करती है। एक रात वह पुलिस की अंधी वासना का शिकार बनती है। इसी बीच रंजन लोकल ट्रेन से सफर करते वक्त आतंकी बम-ब्लास्ट में अपने दोनों पैर गवाँ बैठता है। उसे एहसास हो चुका है कि उसका बाकी जीवन आधा मरे हुए इंसान के समान है। अत: वह जान-बूझकर ऐसी पागल हरकतें करता है कि अन्ना उसकी पत्नी बनने का विचार त्याग दे। कहानी में मुम्बई जैसे महानगर की कुचली हुई जिंदगी का सैलाब चित्रमय हो उठा है। (प्रगतिशील, वसुधा, <br />अप्रैल-जून 10)Ð <br />युवा संपादक प्रकाश त्रिपाठी के संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'वचन'। इसमें गोरखपुर की कवयित्री रंजना जायसवाल की कहानी 'अगले जनम मोहि बिटिया न कीजो'। प्राय: रंजना की कहानियों में स्त्री के प्रति पुरुष के अन्याई, अत्याचारी और उसके स्थाई दुहरे चरित्र को दर्शाया गया है। स्वयं रंजना का आक्रोश इतना तल्ख है कि पुरुष लहूलुहान हो जाए। ऐसा लगता है जैसे कवयित्री के हृदय में पुरुष के लिए कोई रियायत, कोई उदारता या सहानुभूति नहीं। प्रस्तुत कहानी एक ऐसी प्रताड़ित स्त्री के पक्ष में खडी है, जिसका पति समलैंगिक है। <br />आगे है शैलेंद्र तिवारी की कहानी 'दाँव'। अपनी पुत्री समान पतोहू के साथ अनैतिक संबंध बनाने का घिनौना प्रयास करने वाले ससुर के सड़े-बदबूदार चरित्र पर आक्रमण करती है यह कहानी। इसमें चंद्रबली भ्रष्ट आचरण वाला बाप है, वह तीन-तिकड़म लगाकर बेटे रतन को परदेश कमाने भेज देता है क्योंकि पतोहू निर्मला के प्रति उसकी नियति बहशियाना है। यह आज के जिस्मवादी और मूल्यहीनता में शौकिया अंधे हुए आ रहे ग्रामीण समाज का सर्वव्यापक सच है, जिसे शैलेंद्र तिवारी ने स्वाभाविक प्रमाणिकता के साथ प्रस्तुत किया है। (वचन, मई 10)Ð <br />अपूर्व जोशी की देख-रेख और संपादन में प्रकाशित होनी वाली 'दि संडे पोस्ट' पत्रिका का 'साहित्य विशेषांक-10'। इसमें सुभाष चंद्र कुशवाह की कहानी 'यही सब चलेगा?' इसमें चंद्रेश्वर प्रतिभावान है, उसमें कुछ दुर्लभ बात हासिल कर लेने का जंज्बा है। आई.ए.एस. की परीक्षा में उत्तीर्ण न हो पाना उसकी सख्त ग्रंथि बन चुका है। पिता राजबली यादव बेटे को अफसर देखने की हसरत लिए-दिए मर गए। चंद्रेश्वर विद्यालय खोलते हैं और उसे मान्यता दिलाने के लिए शरीर पर बहते पसीने का खून को रंग दे डालते हैं, मगर असफलता 99 प्रतिशत नहीं, पूरे 101 प्रतिशत हाथ लगती है। सुभाष चंद्र ने नई सदी की बदलती, बिखरती, टूटती और दिशाशून्य होकर जीती युवा प्रतिभा के दुखद यथार्थ को विविध रंग-भंगिमा के साथ प्रस्तुत किया है। इसी अंक में कविता की कहानी 'नदी जो अब भी बहती है...' प्रकाशित है। कविता ने इसमें ऐसा अप्रत्याशित विषय चुना है, जो 'रेयर इन द रेयर्स' है। इमसें एक नव विवाहिता पत्नी के पेट में दो सिरों वाला बच्चा पल रहा है, जिसके हृदय भी दो हैं। स्वाभाविक है, ऐसे शिशु को जन्म देने वाली माँ की मानसिकता ठीक-ठाक दशा में न रहे। कविता ने अपने भाव-प्रवरण और सामयिक, अनौपचारिक भाषा-कौशल के बूते माँ की विकट और किंकर्तव्यविमूढ़ मनोदशा को पूरी संजीदगी से साधा है। (शब्द दुर्ग पर दस्तक, दि संडे पोस्ट, साहित्य विशेषांक 10)Ð <br />हिमाचल प्रदेश के संभावनाशील कहानीकार मुरारी शर्मा की कहानी 'मेरे घर का दरवाजा', 'असिक्नी' पत्रिका में प्रकाशित है। इसमें सोमा नामक एक ऐसी ग्रामीण युवती की करुण-कथा है, जो अपनी हरी-भरी उम्र में घर-गृहस्थी और पति-परिवार का सुख नहीं ले पाती। विजय नामक एक फौजी युवक से विवाह के बाद उसे हर कदम पर उपेक्षा, अपमान,र् ईष्या और प्रताड़ना का शिकार बनना पड़ता है। कुछ समय के बाद सोमा की दूसरी शादी सोहन लाल जैसे महापियक्कड़ से होती है। सोहन लाल की अकाल मौत के बाद उसका बड़ा भाई सोमा की जवानी से खेलना चाहता है। सोमा अपनी इज्जत की रक्षा करती है और जेठ द्वारा जबरदस्ती किए जाने पर जसकी डंडे से बाकायदा धुनाई भी कर देती है। मुरारी शर्मा के पास सामाजिक यथार्थ को उसकी जीवंतता में प्रस्तुत करने की कुशल भाव दृष्टि है। ('असिक्नी', जुलाई 10, संपादक-निरंजन देव शर्मा)Ð <br />'वर्तमान साहित्य' के अगस्त 10 अंक में सुषमा मुनींद्र की कहानी 'अप्रत्याशित'। इसमें एक चरित्र हैं गुरुजी, जिनकी पत्नी का नाम है 'गंजी'। रूपक गुरुजी का बेटा है, जो कि आर्मी में मेडिकल  ऑफिसर है। गुरुजी को अफसर बेटे की शादी में मोटी रकम के साथ-साथ सभ्य, सुशील और सुंदर बहू भी चाहिए। रूपक अपने धनजीवी पिता के स्वार्थी स्वभाव से तंग आकर आर्मी के ही एक अन्य अफसर की बेटी से प्रेम-विवाह कर लेता है। जब धनलोलुप गुरुजी को बेटे की असलियत का पता चलता है, तो उनके पैर के तले जमीन ही नहीं खिसकती, ऊपर का आसमान भी गायब दिखाई देता है। इसी अंक में रणीराम गढ़वाली की कहानी 'खिस्सू' प्रकाशित है। यह उत्तराखंड के ग्रामीण पहाड़ी हिस्सों में पाँव पसारे हुए अंधे सामंतवाद की कहानी है। गढ़वाली अपने भीतर के उद्वेलित और भावुक कहानीकार के मुताबिक ही विषय को छाँटते हैं, फिर उसे तीव्र वेदना की ऑंच में पकाते हैं, पुख्ता बनाते हैं। निरंतर दैनिक जीवन की कठिन जद्दोजहद को उठाने वाले कहानीकार अखिलेश श्रीवास्तव चमन इस अंक में अपनी कहानी 'जेबकतरा' के साथ उपस्थित हैं। इसमें अखिलेश ने भारत की नाकारा पुलिस और हृदयहीन वकील के शातिर खेल में पिस-पिसकर मरते हुए आम हिंदुस्तानी की दुर्दशा का मर्मस्पर्शी दृश्य पेश किया है। प्रतिवर्ष भारत के भ्रष्टाचारी व्यक्तित्व का विश्व रिकार्ड प्रकाशित होता है। वह कभी टॉप-10, कभी-15 और कभी-25 भ्रष्टतम देशों की सूची में अवश्य रहता है। प्रश्न है, किसके कारण? उत्तर साफ-साफ लीजिएराजनेताओं, माफिया मंत्रियों, घनघोर अहंकारी नौकरशाहों, दलाल पूँजीपतियों, कमीशनखोरों और बजबजाते हुए पतन के दलदल में भैंसा की तरह रात-दिन लोटने-पोटने वाले सुशिक्षित बाबुओं, कर्मचारियों और अधिकारियों के कारण। इस देश ने ही घूसखोरी को सम्मानित संबोधन दिया है 'सुविधा शुल्क'। (वर्तमान साहित्य, अगस्त10)Ð <br />एक साथ हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में प्रकाशित होने वाली साहसधर्मी पत्रिका का 'साहित्य विशेषांक-10' प्रकाशित है। आम पाठकवर्ग की हिंदी पत्रिकाओं को जो सीधे साहित्य से सरोकार नहीं रखतीं, चिरस्थाई भ्रम रहता है कि साहित्य का श्रेष्ठ चमकते हुए कलमकारों के आस-पास सिमटा हुआ है। इसीलिए वे ऑंख मूँदकर उन्हीं नामों के पीछे भागती हैं, जिनका नाम येन-केन-प्रकारेण सिक्के की तरह साहित्य के बाजार में चल निकला है। खुलेआम रचनाएँ आमंत्रित करने की महत्वाकांक्षा ऐसी पत्रिकाओं से गायब हो गई है। काश, 'तहलका' समूह ने यहाँ भी हिम्मत का परिचय दिया होता। खैर! बात कहानियों की... सर्वप्रथम प्रकाशित है वंदना राग की कहानी 'देवा... देवा'। इसमें 'बाबा' नामक चरित्र की अकथनीय, असीम पीड़ा और आर्थिक तंगी को छिपे और संकेतात्मक ढंग से कहने की कोशिश की गई है, मगर... इस कहानी का मूल उद्देश्य बाबा की अदृश्य अंतर्पीड़ा को सजीव-स्वर देना नहीं, बल्कि एक प्रफुल्ल और आनंदमग्न भाषा-शैली में बाबा की मात खाई हुई बेचारगी को समाचार की तरह सुना देना है। इसीलिए यह कहानी एक आर्थिक तंगी के मारे हुए किसान की मर्मव्यथा नहीं, स्वयं वंदना राग की उत्सवधर्मी कला का पंसदीदा विस्तार ही नजर आती है। गौरव सोलंकी की कहानी 'रेडियो'। इसमें कहानीकार ने माँ की दबी हुई आकांक्षा को रेखांकित किया है। माँ शादी के पूर्व किसी की बेटी रहती है और एक-दो नहीं दर्जनों दृश्य-अदृश्य बंदिशों की कठपुतली रहती है। उस वक्त उसकी व्यक्तिगत इच्छाओं और हसरतों का कोई अर्थ नहीं होता। यदि इस कहानी में तल्ख और भावासिक्त शब्दों को सुचिंतित ढंग से और जगह मिल गई होती तो कहानी की छाप और स्पष्ट रूप से अंकित हो जाती। इसी अंक में चंदन पांडेय की कहानी 'नया' प्रकाशित है। कहानी में राकेश कुशवाहा एक ग्रामीण शिक्षक है। कम तनख्वाह में घर-परिवार की परवरिश, नमक-तेल, लकड़ी का खर्च। ढंग से खेती-बाड़ी न हो तो साल भर का खर्च कैसे चले? राकेश कुशवाहा के बहाने चंदन लिखते हैं, एक बलबलाता, बौखलाया हुआ गरम पत्र देश के प्रधानमंत्री के नाम, जिसमें वे आर्थिक दुश्वारियों का कम, मौजूदा वक्त में जमी हुई दुश्वारियों का रोना अधिक रोते हैं। इस कहानी में भी चंदन पांडेय रोक नहीं पाए, मुद्दों से भाषाई खेल खेलने की कलाकारी। मानो वे देश के प्रधानमंत्री को मुद्दों पर संवेदनशील बनाने के बजाय उन्हें उनकी कमजोरियों पर चिढ़ाना चाहते हों, हम सपना देख रहे हैं कि चंदन में सामयिक मुद्दों के प्रति जिम्मेदार संजीदगी लौट रही है। ठीक आगे युवा कवि गिरिराज किराडू की कहानी 'दिनों की स्क्रिप्ट'। इसमें कवि ने एक अनोखी शैली इंजाद की है टुकड़े-टुकड़े वाक्यों में एक टुकड़ा बात कह देने की शैली। भूल जाइए कि इसमें एक मूल उद्देश्य है, कोई एक विषयवस्तु है, कोई एक केंद्रीय संवेदना है। दरअसल यह कोलाज है धुऑं वाक्यों का। एक ऐसा बेतरतीब अर्थमेला जिसका कोई सिरा ढंग से पकड़ में न आए। कवि ने कुछ पात्र, कुछ स्थितियाँ, कुछ घटनाएँ चुन ली हैं और उनमें अपनी खेलधर्मी भाषा की जमकर हवा भर दी है। इसीलिए पूरी कहानी में एक ही पात्र, एक ही स्थितियाँ, एक ही घटनाएँ गुब्बारे की तरह पन्नों पर तैरती हुई आपस में बार-बार टकरा रही हैं और हमें भ्रम हो रहा है कि नहीं, वे तो कोई नया दृश्य है। (तहलका, साहित्य विशेषांक, जून 10)Ð <br />सुपरिचित कहानी लेखिका उर्मिला शिरीष की कहानी 'अभिशाप', 'पाखी' के अगस्त 10, अंक में प्रकाशित है। इसमें उर्मिला शिरीष ने खुद को एक सचेत और प्रतिबद्ध बौद्धिक प्रगतिशील की भूमिका में रखते हुए कर्मकांडी धर्म के आपराधिक पडयंत्र को बेनंकाब किया है। इसमें सिद्धियाँ हासिल की हुई एक धर्मकांडी 'माँ' है, जो पहले कभी नर्स रह चुकी है, उसे पेट से बच्चा गिराने का लंबा अनुभव है। यह माँ हताश, मूक और मत्था टेकने में आस्था रखने वाले अंध-भक्तों का वर्षों से शारीरिक, मानसिक और आर्थिक शोषण करती है। आजकल शायद ही कोई धार्मिक स्थल हो, जहाँ आस्था और कल्याण के नाम पर धर्मांध पब्लिक का गाय-बैल की तरह शोषण न होता हो। तंत्र-मंत्र, पूजा-पाठ, सिद्धियाँ, चमत्कार न कभी मानवतावादी स्वरूप के रहे हैं और न कभी हो सकते हैं। यह भारत ही है, जो दवा से कई गुना ज्यादा झाड़-फूँक में, अंधभक्ति में और अदृश्य, अमूर्त के प्रति निछावर रहने में यकीन रखता है। (पाखी, अगस्त 10)Ð <br />मध्य प्रदेश के कवि जितेंद्र चौहान के संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'गुंजन' का 'अगस्त' अंक। इसमें वर्ष 2010 की नई पौधजयश्री राय की कहानी 'पिंजरा' प्रकाशित है। इसमें जयश्री ने एक ऐसी नवविवाहिता स्त्री के मन की अतृप्त वासना को शब्द दिया है, जो अपने शराबी और कर्महीन पति की करतूतों से आहत रहती है। इसी कारण वह दूर से सही अपने देवर की ओर भीतर-भीतर दिल को झुका हुआ महसूस करती है। जयश्री राय की माँग स्पष्ट है हर हाल में औरत को मानसिक और भावनात्मक स्वाधीनता चाहिए क्योंकि यह मौलिक इच्छा पृथ्वी की प्रत्येक स्त्री की आत्मा का अमर स्वभाव है। (गुंजन, संपादक-जितेन्द्र चौहान, अगस्त 10)Ð <br />'कथाक्रम' के जुलाई-सितम्बर अंक में सुपरिचित कथाकार प्रियंवद से लेकर नवधा शब्द-बीज राकेश भ्रमर और उषा ओझा तक की कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं। प्रियंवद ने 'एक छंद की निर्विध्न मृत्यु' में मूल संवेदना को वर्णनात्मकता के सामायिक शिल्प-कौशल में ढाला है। वहीं किसलय पंचोली की कहानी 'एकांड्रोप्लेजिया उर्फ बेड नंबर फोर्टी' में एक ऐसे भयावह रोग से रू-ब-रू कराया गया है, जिसमें बचपन से ही हड्डियों में कार्टिलेज का जमाव रुक जाता है। यही कार्टिलेज बच्चों के स्वाभाविक विकास के लिए जिम्मेदार है। अपेक्षाकृत नाटे कद का बना देने वाले इस विकट रोग का नाम है 'एकांड्रोप्लेजिया'। राकेश भ्रमर की कहानी 'पाँचवा घर' ऐसी लाचार और बदहाल स्त्री की व्यथा है, जिसका पति बेरोजगार है और वह खुद घर-घर मेहनत-मजूरी करके परिवार रूपी पहिया-विहीन गाड़ी खींचती है। (कथाक्रम, जुलाई-सितम्बर 10)Ð <br />'परिकथा' के जुलाई-अगस्त-10 अंक में प्रकाशित होने वाले स्थापित कथा-हस्ताक्षर भालचंद जोशी। उनकी कहानी 'जंगल' वन, वनवासी, उत्सव, पुलिस एनकाउंटर, दाम्पत्य प्रेम के व्यवस्थित मेल से तैयार हुई है। फिर भी दाम्पत्य जीवन की प्रेमकथा इस कहानी की आत्मा में है। यह असंदिग्ध है कि भालचंद समकालीन यथार्थ को जीवन की दर वास्तविक भाषा में सफलतापूर्वक खोलने वाले कथाकार हैं, इसी अंक में हैं 'नसीम साकेती', अपनी पहचान को लगातार सुदृढ़ बनाते हुए कहानीकार। अपनी कहानी 'ये घर ये लोग' में साकेती ने अनुभव-यथार्थ को इतनी सीधी-सरल अभिव्यक्ति में फैला दिया है कि रोचकता दम तोड़ देती है। यहाँ वे संकेतों में कहने या व्यंजना में अर्थ की खनक पैदा करने वाले कहानीकार नहीं, उबड़-खाबड़ जीवन की वास्तविकता को ज्यों का त्यों पाठकों के समक्ष रख देने वाले प्रवक्ता नजर आते हैं। यह कहानी ऐसे मुस्लिम परिवार के दारूण सच को सामने लाती है, जहाँ बच्चे पर बच्चा पैदा करना एक जुनून, एक पैशन, एक अनिवार्य कर्तव्य की तरह है। (परिकथा, जुलाई- <br />अगस्त 10)Ð <br />नये अंक : एक रचना <br />1.    विसर्जन, शब्बीर अहमद, शेषजुलाई-सितंबर 10, सम्पादक-हसन जमाल। <br />2.    मोतीचूर के लड्डू, श्याम सुंदर पोकरा, अक्सरअप्रैल-जून 10, सम्पादक-हेतु भारद्वाज। <br />3.    खामोशियों के देश में, जया जादवानी, सम. भार. साहित्य, जुलाई-अगस्त 10, सम्पादक-प्रभाकर श्रोत्रिय। <br />4.    'उधार', हबीब कैंफी, प्रतिश्रुति, अप्रैल-जून 10, सम्पादक-रमाकांत शर्मा। <br />5.    गोलकीपर, प्रियदर्शन मालवीय, बहुवचन, अप्रैल-जून 10, सम्पादक- राजेंद्र कुमार। <br />6.    पापा, साँप और मैं, लुइस बर्नार्डो होनवाना, दूर्वादल, मई-अक्टूबर 10, सम्पादक-परमात्मा नाथ द्विवेदी। <br />7.    हारे हुए लोग, सुधा गोयल, अक्षर पर्व, जुलाई 10, सम्पादक-सर्वमित्र सुरजन। <br />8.    लाजवंती, बद्री सिंह भाटिया, हिमाचल मित्र, वर्ष 10, सम्पादक- कुशल कुमार। <br />9.    लेखक का विक्षोभ, अजय श्रीवास्तव, युवा संवाद, जुलाई 10, सम्पादक-ए.के. अरुण। <br />10.    लंगड़े पिता, राकेश झरपुरे, वर्तमान साहित्य, जुलाई 10, सम्पादक-नमिता सिंह। <br />11.    गोलू गुरुजी की विदाई, समारोह, चंद्रमोहन प्रधान, जनपथ, जनवरी 10, सम्पादक-अनंत कुमार सिंह। <br />12.    गरहन, उषा ओझा, जनपथ, मार्च 10, सम्पादक-अनंत कुमार सिंह। <br />q q q</p> भरत प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/15701950336360578610noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3182288695453413836.post-55338819755675201662011-01-07T13:55:00.001+05:302011-01-07T13:55:06.755+05:30महुआ-पट्टी (कहानी - भरत प्रसाद)<p>नींद में डूबी हुई सुबहें <br />गल से कुछ दूर आगे निकल जाने पर नन्दा को कहीं किसी ओर से मोटर साइकिल जैसी आवाज की भनक मिली... दग्... दग्... दग्... दग्... नन्दा ने खुद से पूछकर संदेह पक्का किया 'इ त बुलट क आवाज ह'। अपने ठीक आगे गट्ठर लादे रेंग रही बेलवा को नन्दा ने चौंकाया... 'तू भी कुछ सुन रही है बेलवा?' <br />'नहीं तो? बेलवा बोली।' <br />'इ तरफ केहू मोटर साइकिल चलावत आवत बा'नन्दा ने फिर आशंका जताई। <br />'अच्छा...? आवे द दीदी, देखल जा तनी के ह।' बेलवा थोड़ी देर चुप रहकर कुछ सोचते हुए बोली... 'दीदी, उ हरामी डिप्टी दरोगवा त नाहीं ह? पिछले महीना जंगलवा में तोहार बाँह पकड़ि लिहले रहल और तू जोर से चिल्लाइल रहली'। 'मुँह बंद कर आपन केहू सुन लेई त खैरियत नाईं बा' नन्दा ने डाँटते हुए बेलवा को चुप कराया। <br />दोनों युवतियों की गुप्त बातचीत का सिलसिला चल रहा था, उधर आकाश की ऊँचाईयों में सिंदूरी संध्या का रहस्यमय धुंधलापन प्रगाढ़ होता चला जा रहा था। नन्दा का अंदेशा सही निकला। सामने डिप्टी दरोगा चौहान की बुलेट दग्... दग्... दग्... दग् का दिल दहलाने वाला शोर मचाती हुई दिखाई दी। दो मिनट, एक मिनट, तीस सेकेंड, दस सेकेंड... पाँत में सबसे आगे चलती हुई बेलवा चौहान की मोटर साइकिल के ठीक-ठीक निशाने पर। चौहान ने गाड़ी बुझा दी, भूरा चमकदार चश्मा भी उतार लिया और गाड़ी की अंडाकार टंकी को फालतू धुन में बजाता हुआ बोला 'तुम सब ये फोकट का माल लेकर कहाँ से आ रही हो? ऐं...? जंगल से? तुम सबने बाप का धंधा समझ रखा है? किसी दिन जेल में सड़ाऊँगा, तब समझ में आएगा, तुम सालियों को।' <br />दारोगा की भद्दी गाली सुनते ही बेला मारे गुस्से के ऐंठ कर रह गई। आखिर जब नहीं रहा गया, तो बोली 'आपके पता होई दरोगा जी, हम लकड़ी काटिला नाईं, पेड़ से सूखि के गिरल लकड़ी बीनी ला। इ त कौनो गुनाह नाईं है?' <br />'अरे चुप्! जुबान लड़ाती है। सब समझता हूँ। इसी उम्र में जवानी चढ़ने लगी है क्या? बोल! तेरी वो दीदी नन्दा कहाँ है?' एक कतार में बोझा लेकर खड़ी औरतों को बेहया निगाहों से घूरा 'तो यहाँ खड़ी हो तुम! ऐं, मैंने तो सोचा तुम इधर आना ही बंद कर दी होगी, लेकिन कमाल है तुम तो साक्षात् सामने दिखाई दे रही हो। बताओ नन्दा। कैसी हो? थाने पर, घर पर, कहीं भी रहूँ, बैठा-बैठा तुम्हारे बारे में ही सोचता रहता हूँ। तुमसे मिलने की कई बार कोशिश की, मगर एक तुम हो कि हमें मौका ही नहीं देती।' चौहान के अपमानजनक, जहरीले शब्द नन्दा के एक-एक अंग में अजीब-सी थरथराहट पैदा कर रहे थे। वह चिल्लाए, रोए, बोझ पटककर भाग जाए, इस नालायक को भर कंठ गालियाँ दे या दसों अंगुलियों से उसका गंदा मुँह नोच डाले, कुछ समझ में न आ रहा था। <br />लकड़ी का बोझ संभाले जब बेला को लगा कि अब चक्कर खाकर गिर पड़ेगी, तो हिम्मत जुटाकर एक बार फिर बोली 'हम सबके जाए द दारोगा जी! माथे पर बोझा लिहले हईं। घरे पहुँचत-पहुँचत राति हो जाइ।' चौहान ने कुछ सोचकर बेला को त्योरियों के बल घूरते हुए कहा 'अच्छा? घर जाना चाहती है? डर लग रहा है? जाओ!' <br />डिप्टी दारोगा का आदेश पाकर पाँत जब फिर आगे खिसकने लगी तो गाड़ी से सटकर गुजरती हुई इक्कीस वर्षीया नन्दा को सुनाते हुए चौहान फिर फुसफुसाया 'मैं तुम्हारे जवाब का बेसब्र्री से इंतजार करूँगा, नन्दा! मुझे तुम पर पूरा भरोसा है। काफी समझदार हो तुम।' पाँच मिनट के बाद जब पूरी पाँत चौहान के बगल से होते हुए गुजर गई तो सबसे अंतिम औरत से कड़क आवाज में लगभग आदेश देते हुए बोला 'दो दिन बाद ठेकेदार तुम्हारे गाँव जाएगा।' <br />छोटी-छोटी दर्जन भर बस्तियों का यह ठंडा-सपाट अंचल शहर की मुख्य सड़क से करीब 12 कि. मी. के फासले पर है। इस अंचल में उतरने वाले रास्ते टूटे-फूटे, कच्चे और घुमावदार कुछ इस कदर हैं कि पूछिए मत। आना है चंदनपुर तो दस बार अपनी धड़कन रुकने के बारे में सोच लीजिए। देखना है बनकटिया, तो अपनी ऑंखों के साहस पर पुनर्विचार कर लीजिए। पहुँचना है महुआपुर तो बिना किसी सवारी के पैदल चलने की हिम्मत बाँध लीजिए। कहने-सुनने के लिए ये आजकल के गाँव हैं। यहाँ भी 21 वीं सदी की सुबह-शाम होती है। यहाँ के वायुमंडल में भी नए युग की हवा बहती है, परंतु ये सात-आठ बस्तियाँ पोलियोग्रस्त बेटियाँ हैं धरती की, बौनी झाड़ियाँ हैं मानव सभ्यता की, रिसता हुआ नासूर है बूढे क़िसान का। रात घिरती है तो धरती के नक्शे से गायब हो जाती हैं। सुबह होती है, तब यकीन होता है कि अभी इनमें जान बाकी है। एक निस्तेज, विरक्त और खोखला-सा वातावरण सदैव घिरा रहता है इस समूचे अंचल पर। लगभग दो कि. मी. के फासले पर बेहिसाब अंदाज में चौतरफा पसरा हुआ जंगल इन बस्तियों का हाथ-पैर है, इज्जत-आबरू है, जीने-खाने का स्रोत है। घास की तरह धरती से चिपकी हुई इन बस्तियों को जीवित बने रहने की ताकत इस जंगल की दौलत से ही मिलती है। <br />गर्मी में थकी-थकी-सी सुबह के बदरंग क्षितिज पर सूरज धीरे से उठ आया लटपटार रोशनी में नहाया हुआ। गाँव-गाँव के आकाश पर एक और दुनिया गुलजार होने लगी है। अभी कुछ देर बाद पक्षियों का रेला जंगल की तरफ बहता नजर आएगा। लावारिश छुट्टा जानवरों की तो खैर यह शरणस्थली ही है। वे देश-देश से, ताल-तलैया से चर-चुर कर भाग-फिर कर कहीं वापस आते हैं, तो इसी जंगल के निर्जन अंचल में। और पंक्षियों की आबादी? किसिम-किसिम की रंग-बेरंग चिड़ियाँ अकेले या समूह बाँधकर आकाश की हवाओं में तैरती रहती हैं। शाम ढलने के घड़ी भर पहले वे जंगल के वातावरण को अपने कलरव में डुबो लेती हैं और भोर आने के ऐन पहले ऊँची-बौनी शाखाओं के कोटर का सुख छोड़ कर पुन: उड़ जाती हैं सैर-सपाटा करने, पिकनिक मनाने, पेट-पूजा करने। <br />रोज की तरह आज भी चंदनपुर, जलारे, चनहवाँ, महुआपुर जैसे पड़ोसी गाँवों से अधेड़ औरतों, किशोरियों और युवतियों की पंक्तियाँ दूर से जंगल की ओर ढुलकती दिखाई देने लगी हैं। कच्ची सुबह की बेला, थिरक कर नाचती गर्मी का महीना, ताल-पोखर-बावड़ी सब मूल्यहीन होने लगे हैं। किशोरियों ने अपने माथे की पगड़ी पर तसला रख लिया है। गाँव के कुएँ का पानी जाड़े के तालाब की तरह ठण्डा-निर्मल रहता है, सात-आठ घंटे तक पीने लायक टिक जाता है। पानी के बगैर इन सबका दोपहर तक वहाँ टिक पाना दुश्वार हो जाए। एक तरफ कुल्हाड़ियों से जंगल की सूखी लकड़ियाँ काटना, दूसरी तरफ पेडाें की पत्तियों-शाखाओं से छनकर बरसती हुई चिंगारी, हलक बेतरह सूखकर काँटा बन जाता है। उस क्षण पानी का एक ठंडा घूँट भी सौ घड़ा अमृत के बराबर लगता है, जो कंठ के नीचे उतरते ही रोम-रोम को परम शांति के आनंद से तृप्त कर देता है, आत्मा अपनी जगह ठहर जाता है, चित्त थिर हो जाता है, मानो ठठरी में प्राण होने का एहसास फिर से होने लगा हो। फूलकुमारी, फुलवारी, बेला, अजोरिया, नंदिता ये हैं टोली की चार-छह युवतियाँ जिनकी नित्य की जिम्मेवारी है कि कुँए से पानी खींचे, तसला माँज कर पानी भरें, ध्यान से मुँह ढँके और विमली, जमुनी, इमरती, निदिया के माथे पर तरीके से बैठाएँ। जंगल ऐसा कुछ पास में भी नहीं, दो किलोमीटर पैदल चलने वाले के लिए कुछ तो होता है, वो भी खेत-ऊसर के बीच का कच्चा रास्ता, घुमावदारआड़ा-तिरछा। हद से हद सुबह के अभी साढ़े आठ बजे होंगे, इन औरतों और बेटियों की पाँत अदृश्य पगडंडियों पर बहती चली जा रही है। सुबह-सुबह चौहद्दी के वायुमंडल में उड़कर जमी हुई हल्की-हल्की धूल कह रही है कि कुछ ही देर पहले किसी तीसरे गाँव का हुजूम अभी जंगल की तरफ निकला है। <br />यह जंगल जो कि सैकड़ों वर्ष पुराना है, पंद्रह किलोमीटर से क्या कम चौड़ा होगा? अपनी इतनी लंबी उम्र में बेरोकटोक कितनी दूर तक पसरा होगा, इसकी थाह आज तक कोई नहीं लगा पाया है। बस यही समझिए कि रहस्य, रोमांच, आश्चर्य, सुख और आकर्षण की अपार माया समेटे हुए है। थोड़ा तबियत से उसकी गहराई में उतरते ही दिखाएँ गुम होने लगती हैं, पैरों के निशान साथ छोड़ देते हैं और दूर सीमांत में उतरा हुआ आकाश का खुलापन नजरों से ओझल हो जाता है। इंच-दर-इंच घने पेड़ों की ऊँची-ऊँची दीवारें आकाश के अवकाश को ढँक लेती हैं। हर वक्त इन दरख्तों के मौन से एक जादुई झनकार बरसती है, लद-बद झुकी हुई पुरानी शाखाओं से दिन-रात अंधकार चूता है और जमीन के रेशा-रेशा अंग से निपट अंजानी गंध उड़ती है। जंगली शीशम, जामुन, पाकड़, सागौन, सेमल, गूलर, कठजामुन और नीम के ऐसे-ऐसे मुस्टंड पेड़ खड़े यहाँ दिख जाएँगे, जिनका ऐसा रूप-रंग गाँव की चौहद्ददी में दूर-दूर नजर नहीं आता। आपस में एक-दूसरे को आसरा दे-देकर सबके सब इस कदर हरे हो उठे हैं कि इनको निहार कर गाँवों की हरियाली पर रोने को जी करता है। उधर ऑंधी में छूटकर गिरा हुआ पेड़ पड़ा है, इधर बूढ़े वृक्षों की उच्चस्थ शाखाओं से सूखी लकड़ियाँ टूट-टूटकर जमीन पर फैली पड़ी हैं और फिर कठजामुन का पुराना वृक्ष भी कहाँ शत-प्रतिशत हरा रहता है? इन औरतों को सूखी लकड़ियाँ बटोरने के लिए जंगल के विस्तार में दौड़ने की <br />जरूरत नहीं। करीब-करीब हर पेड़ एक-दो रोज के बाद इनके घर में चूल्हा जलाने लायक सूखी लकड़ियाँ धीरे से गिरा ही देता है। <br />गाय-भैंस के अकाल वाले गाँव <br />चंदनपुर, बाँसगाँव, बनकटिया कुछ बड़े गाँव नहीं हैं, न ही इनमें कोई घर पक्का लिंटर का बना हुआ है। तमाम सारे घर या तो झोपड़ीनुमा हैं या फिर खपरैल! गाँव की कमर से सटकर छिछले ताल-पोखर हैं, जिसके बजबजाते, बस्साते पानी पर हरी काई की परत जमी रहती है। थोड़ी ऊँचाई पर आबाद घने बाँस तालाब की आधा चौड़ाई को दिन-रात साष्टांग दंडवत करते रहते हैं। नन्हें मेढकों, चुलबुली मछलियों, अवारा मच्छरों और डरपोक साँपों के लिए यही अंधकारमय ठंडी छाया ही सुरक्षित शरणस्थली है। दिन भर पोखर में नाच-कूद कर मेढक जब थक जाते हैं तो पानी पर उतरी हुई बाँस की इसी सर्द छाया में इन्हें मानसिक सुकून मिलता है। बाँसगाँव की पूरब दिशा में दस कदम की दूरी पर आम, अमरूद, जामुन का एक बागीचा है, जिसमें अधिकांश वृक्ष महुआ के हैं। किसी-किसी बस्ती में तो खालिस महुआ ही महुआ के बगीचे हैं। आधा दर्जन महुआ के बाग। इनमें फूल लगते ही गाँव में चहल-पहल मच जाती है। साल भर वीरान रहने वाले कच्चे रास्तों पर धूल उड़ने लगती है और गाँव का निचला आकाश मदहोश कर देने वाले धुँए के जमाव से बोझिल होने लगता है। इन दर्जनों गाँवों में शायद ही कुछ घर मिलें जहाँ दोनों टाइम चूल्हा जलता हो, हाँ देर शाम को यहाँ भट्ठियाँ जरूर सुलगती हैं। बड़े-बड़े तसलों में उबलते हुए कच्चे महुए की मादक गंध जब गलियों में उड़ती है तो कुत्ते-बिल्ली तक उधर खिंचे चले जाते हैं और आधा-एक घंटे में हू-ब-हू लावारिश सामान की तरह चित्त पड़े हुए पूरे बारह घंटे की नींद सोते हैं। इन गाँवों में गाय-बैल का अकाल है, फिर भैंस पालने की बात सपने में भी नहीं सोची जा सकती। किसी मर्द की इतनी हैसियत ही नहीं। दरअसल यहाँ गाय-भैंस की जरूरत ही नहीं। हर घर में लरकोर माएँ हैं। दो-दो, तीन-तीन साल के वेखास बच्चे यहाँ बीसों घरों में मौजूद हैं। इंद्रावती की गोद में डेढ़ साल का पट्टू है सूखी घास की तरह चिड़चिड़ा। बात-बेबात पर रोने वाला। भट्टी के धंधे में खलल पैदा करता है तो इंद्रावती एक सीमा के बाद बर्दाश्त नहीं कर पाती, पट्टू को भर पेट दारू पिला देती है। पट्टू पल भर में सो जाता है, अथाह गहरी नींद, इतनी गहरी जिसमें सपने नहीं आते। यह ऐसी-वैसी नींद नहीं है। यह और बच्चों की तरह नींद नहीं है। इसमें सिर्फ हाथ-पैर हृदय और मस्तिष्क भी सो जाता है। पट्टू जब सोता है, तो 9-10 बजे दिन में <br />जगता है, फिर वह जैसे ही सूखी <br />अंतड़ियों से बिलबिलाकर हिन्न-हिन्न रोना शुरू करता है, माँ एक गिलास रस फिर थमा देती है। <br />पार्वतीबाई चंदनपुर के लखई कँहार की पत्नी है। अभी दो साल पहले उसकी गोद में इमरती बिटिया का आगमन हुआ। माँ की हसरत थी कि चाहे जो कुछ हो जाय, इस बार इमरती को अपने पिछले दो बच्चों की तरह नहीं पालेगी। पहले के वे दोनों बच्चे सयाने तो हो गए हैं। मगर चमड़ी के भीतर से एक अजीब-सा गीला पीलापन झाँकता रहता है। आठ-आठ, दस-दस बरस के हो आए, आज भी साफ-साफ चार लाइन नहीं बोल पाते। काँच की गोली की तरह लक्-लक् चमकती ऑंखें इसी उमिर में धँसने लगी हैं। बड़का बेटा तो अभी से बुजुर्ग दिखने लगा है। अपने घर में पीने को नहीं पाता तो दूसरे गाँव से पीकर आता है। दो दिन अगर लाल पानी नहीं दिखा तो आत्मा पागल की तरह ताता-थइया करने लगती है। पार्वतीबाई ने इस बार निश्चय किया है कि इमरती के लिए कहीं से भी दूध जरूर मँगाएगी, उसे दारू पीने की आदत नहीं बनने देगी, लखई से चाहे जितनी लड़ाई मोल लेनी पड़े। परंतु पार्वती की यह ख्वाहिश अभी सपने में देखी गई दूर की कौड़ी है। फिलहाल रोज शाम इमरती की भी भूख दारू पीकर की शांत होती है। यह जरूर है कि पीने ही जिद्द कम करती है। घर के कोने-अंतरे में पड़ी-पड़ी माँ की प्रतीक्षा करती रहती है कि माँ अभी आएगी और पेट भर देगी। <br />एक दिन सुबह-सुबह मुरारीलाल ठेकेदार अपनी खटारा स्कूटर हनहनाता हुआ चंदनपुर आ धमका। मीठी-मीठी बातें फेंकने में अव्वल दर्जे का, जानी दुश्मन को भी अपने पाले में शामिल कर लेने वाला। जरूरत से कई गुना ज्यादा हँसमुख, बात-बात पर बत्तीसी दिखाने में पारंगत, कहीं भी, किसी के साथ किसी भी मुद्दे पर सिर्फ टेप की तरह हाँ-हाँ बोलने वाला और पहले दर्जे का घुटना टेकू। पार्वती झोपड़ी के बाहर कुछ करने के वास्ते निकली तो देखती है कि मुरारी स्कूटर के दोनों बगल लटके 'कंटेनर' उतार रहा है। उसे देखते ही मारे घृणा और क्रोध के पार्वती की अंतरात्मा में एक अजीब आग धधक उठी। एक मिनट के अंदर उसने मन में गालियों की झड़ी लगा दी 'कमीना! दारू बेंचले क धंधा खोलले बा, दलाली करा ला, दरोगा-पुलिस एकर दमाद हवें। एतना काली कमाई कइसे पचा लेत बा, हरमिया? जी त जरत बा-उठाईं डंडा और चुत्तर पर मारि-मारि के कचूमर निकाल लेईं। इहाँ से दारू लेइ जाई दस रुपया लीटर अउर शहर में पैकिट बना के बेंची पच्चीस रुपया में। लूट क जमाना है। अउर इ लुटाई में भी लूट। बिना थाना-पुलिस के घूस देहले चैन नाही बा। अरे जा कलमुँहऊ! हमार बाल-बच्चे रोज-रोज भुक्खन रोवत-कलपत बाटँऽ, तुम्हें संतान क मुँह देखल नसीब नाईं होई।' मन में मुरारीलाल के प्रति इतनी वितृष्णा के <br />बावजूद पार्वतीबाई ने नरमी भरे लहजे में पूछा... 'बुलाईं इमरती के दादा के? <br />माल लेवे आइल बाटा?' मुरारी लाल की वही घिसी-पिटी मशीनी मुस्कान... 'हाँ-हाँ, भउजी! बुलाओ लखई भाई को। किस दुनिया में रहते हैं आजकल? दिखाई <br />नहीं पड़ते। बुलाओ, जरा काम की बात करनी है।' <br />पार्वती तैश में धीमे-धीमे बुदबुदाती हुई झोपड़ी के अंदर गई और अपने पति लखई से बिफरते हुए बोली 'जा, बाहर देखा, शैतान बुलावत बा, जल्दी जा, देर करबा त सनक जाई।' <br />'शैतान? केकर बात करत बाटी? (माथे पर बल देकर सोचते हुए) अच्छा, अच्छा मुरारी लाल। आइल बा का?' <br />'हाँ, उहऽ मुररिया। दारू लेवे आइल बा। बड़का कंटेनर लेके। कहि द घर में माल-ताल नाई बा।' <br />'कइसन बात करत बाटी? दारू बेंचबे नाई, त घर क खर्चा-बर्चा कइसे चली? भुला गइली, पिछले महिन्ना जंगल से लकड़ी लावत समय तें बेहोश हो के गिर पड़ल रहली। हजार के आस-पास नोट फुँका गइल झाड़-फूँक, सूई-दवाई में। आपन धंधा न होत, त के देत एतना रुपया? इहाँ त जहर खाए खातिर उधार मँगले पर रोकड़ा मिले वाला नाई बा।' <br />'तब जा, जौन मन में आवऽ करा।' तमतमा कर बोलती हुई पार्वती हार खाकर चुप हो गई। <br />लखई को झोपड़ी से बाहर आते देखकर मुरारीलाल की पुतलियाँ लबालब खुशी के मारे नाचने लगीं। लपक कर बढ़ आया लखई की ओर और चापलूसी भरी याचना की मुद्रा में बोला 'का भाई लखई, आजकल मुझसे खंफा-खंफा से रहते हो? हिसाब-किताब में कभी बेईमानी करता हूँ क्या तुमसे? मैंने तो कितनी बार एडवांस भी दिया है, ताकि मैं भी निश्ंचित रहूँ और तुम्हारा भी कामकाज रुकने न पाए।' <br />'ना, ना भाई साब। अइसन कौनो बात नाई। दरसल घर में दुई साल क बिटिया भी त बा। वोकरे पीए भर के बचावे के पड़ी न! आजकल धंधा मद्धिम चलत <br />बा। तोहें देवे भर के आजकल बचा ला कहाँ?' <br />'मैं सब समझ रहा हूँ, भाई! मगर क्या करूँ? शहर के हाकिम-हुक्काम, कंपनी-कारोबार के मालिक दिन पर दिन दारू का आर्डर बढ़ाते चले जा रहे हैं। बार-बार धमकाते भी हैं कि चाहे जैसे भी हो, दारू ले आओ। उन्हें 'ना' सुनना बर्दाश्त नहीं है।' <br />'त ऊ सबके डर से कहीं भाग जाईं या आपन जान दे देईं का? एक त हम जइसन अभागा लोगन के एतना भी औकात नाई कि दू-दू, तीन-तीन साल के बच्चन के दूध पिला सकल जा। मगर का करिं? दिमाक कुछ काम नाईं करे ला। सब तुहीं के बेंचि देब, त इमरती के का पियाइब? तोहरे कारन अब वोकर हिस्सा भी न रहे पावऽ?' <br />'मेरी भी मजबूरी है, लक्खू भाई, आर्डर पूरा नहीं कर पाया तो मेरी ठेकेदारी चौपट हो जाएगी, लुट जाऊँगा मैं, सड़क पर आ जाऊँगा। साहब लोगों की <br />मेहरबानी पर ही यह ठेकेदारी सालों से चल रही है।' <br />पार्वती झोपड़ी के अंदर बैठी दम साधे मुरारीलाल और लखई की बहस सुन रही थी। ठेकेदार की यह निर्दयी बोली सुनी तो बैठा रहा न गया और तडाक से दरवाजा खोलकर बाहर निकल आई, बोली 'देखा ठेकेदार जी, तोहरे आडर-फाडर से हमके कौनो मतलब नाईं बा। जब अपने जरूरत से फालतू दारू बची, तब्बऽ तोहें मिली, जनला की नाहीं? पार्वती के आक्रोश पर ठेकेदार भी आपा खो बैठा और बड़बड़ाया 'लक्खू भाई, समझाइए भौजी को। हम कोई उधार या फोकट में माल लेने नहीं आए हैं। इस बार तो कोई बात नहीं, मगर अगली बार मैं आना-कानी नहीं सुनना चाहता। चर्बी चढ़ गई है तुम लोगों को। मुझे तो इंकार कर दे रहे हो, चौहान दरोगा को कैसे मना कर पाओगे? उनके तो एक ही इशारे पर खुद ही लेकर थाने भागे चले जाओगे।' <br />लखई नहीं चाहता था कि द्वार पर आए मेहमान के साथ कोई बखेड़ा खड़ा हो, इसीलिए इशारे से पार्वती को चुप <br />कराते हुए मुरारीलाल को भी संकेत दिया कि वह चला जाए और बाद में किसी दिन आए। अपमान के क्रोध में भीतर-भीतर झुलसते हुए ठेकेदार ने सीधे निगल जाने वाली ऑंखों से पार्वती को घूरा और स्कूटर स्टार्ट करते हुए एक मिनट में ओझल हो गया। <br />'भुक्खन ऐंठी-वैंठी के मरि जाब, लेकिन...' <br />चनहवाँ और महुआपुर गाँव जुड़वाँ भाई जैसे हैं। एक बराबर घर वाले, एक ही तौर-तरीके में जीते हुए, एक ही तरह की बोली-बानी, एक ही जैसा काम-धंधा और एक ही रंग-ढंग की खेती-गृहस्थी। दारू का धंधा चलाने वाले कई परिवारों के पास तो खेती के नाम पर बित्ता भर भी जमीन नहीं। अपनी झोपड़ा जहाँ खड़ा है, बस उसे ही अपनी जमीन कह लें तो कह लें, वरना अपनी खेती किसे कहते हैं, इसका एहसास उनके हृदय से कोसों दूर है, अपने श्रम की हरियाली देखने का सुख इन्हें सपने में ही सुलभ है। ये खेत में खड़ी फसल का अनाज तो छू सकते हैं, मगर मजदूर बनकर, अपनी मेहनत को बेचकर। वरना इन गाँवों की चौहद्दी में क्या खेती-बारी नहीं होती? या धान, गेहूँ, अरहर, मक्का और ईंख की हरियाली नहीं दिखती? मगर मजाल क्या कि लखई जैसे निवासी वर्षों-बरस की इस अनाजदार हरियाली पर एक अंगुल भी दावा कर सकें। ऐसा एक बार नहीं, सैकड़ों बार हुआ है कि दूसरे के खेत में मजूरी-धतूरी करते वक्त ये भरी दोपहर बेहोश हुए हैं। मिनट-मिनट पर कच्ची शराब की उल्टियाँ हुई हैं और चौबीस घंटे के भीतर झोपड़ी के दरवाजे से लाशें उठी हैं। अब अधिकांश ने खेत में मजूरी करना बंद कर दिया है, उधर कभी ताकते भी नहीं। खाली पेट धूप में खटने से सिर्फ मौत ही मिलती है, और कुछ नहीं। जब पी-पी कर मरना बदा है तो पराई धरती पर क्यों मरें, अपनी जमीन पर क्यों नहीं? रोज-रोज दारू की भट्टी फूंक कर पूरे परिवार का पेट भर पाना दिनों-दिन कठिन होता जा रहा है लखई के लिए। केवल लखई ही क्यों, उसके गाँव के चइतू, मंगल, लंगड़, सुग्रीव गिरधारी आदि की दशा भी कहाँ उससे अलग है? इनमें से एक-दो नहीं, कई कुल्हाड़ी और रस्सी लेकर देर शाम को घर से निकलते हैं और चारों ओर काला अंधेरा पसर जाने पर गाँव लौटते हैं। सोच यह रहती है कि उनको न कोई जाते हुए देखे और न आते। एक-एक कदम फूँक-फूँककर रखने के बावजूद न जाने कैसे सरकारी चौकीदारों को खबर लग जाती है। फिर तो सड़ो थाने में। खाकी वर्दी पहने वहाँ एक से बढ़कर एक भुक्खड़ हैं। <br />एक शाम चंदनपुर का लंगड़ जंगल की डालियाँ काटते पकड़ लिया गया। न जाने कब, किसने, किस लालचवश थाने में खबर कर दी कि लंगड़ कुल्हाड़ी लेकर जंगल की ओर गया है। नाटे कद के ललन चौकीदार ने सीधे-सीधे, साक्षात्, सशरीर लंगड़ को लकडियाँ काटते धर लिया। लंगड़ हाथ पकड़कर लाया गया थाने और बैठा दिया गया लावारिस गठरी की तरह डिप्टी दारोगा की कस्टडी में। रात के आठ बजे का समय, दीवार पर टंगी, टक्-टक् करती घड़ी की नीरस आवाज लंगड़ की कनपटी को मानो छेद डाल रही थी। घूमने के लिए फ्री रहने वाली ऊँची कुर्सी में चौहान को धँसा हुआ देखकर लंगड़ की दोनों ऑंखों को करंट मार गया। एक पल के लिए लगा जैसे वह मर चुका है, उसे यकीन हो चुका है कि वह जीवित नहीं है। वह अपने मुर्दा होने को साफ-साफ महसूस कर सकता है। कुछ पल के भीतर चौहान और लंगड़ के बीच सवाल-जवाब की शक्ल में आक्रमण और बचाव का युद्ध आरंभ हो गया 'पता चला है कि आजकल तू रोज शाम लकड़ियाँ काटने जाता है?' <br />'रोज कहाँ मालिक? हफ्ता में एक या दो बार ही।' <br />'दिमाग ठंडा करके बोल। यह थाना है। कितना कमा लेता है लकड़ियाँ बेचकर?' <br />'आप भी साहेब! ...अरे, गरीब आदमी दुइ दिन दूध-दही खा लेई त केतना मोटा जाइ?' <br />'एक बात जानता है, लंगड़, जब टेढ़ी अंगुली से भी घी न निकले तो उसको आग दिखानी पड़ती है।' लंगड़ ताड़ गया कि चौहनवा के कहने का आशय क्या है? परंतु दृढ़ता और साफगोई भरे लहजे में बोला 'आप जइसन समझीं मालिक, मगर बाप क कसम ह, हम अपने बेटा रामबिहारी के स्कूल में पढ़ावे-लिखावे के चिंता में ही लकड़ी काटे जाइ ला। किताब-कॉपी, फीस, डरेस क खर्चा संभाल लेब आजकल हम जइसे गरीब के बसे में कहाँ?' <br />'मगर दारू का धंधा तू भी तो सालों से चला रहा है, क्या उसकी कमाई से तेरे परिवार का पेट नहीं चलता?' <br />दारू का नाम सुनते ही लंगड़ के रोम-रोम से घृणा, नफरत, आत्मग्लानि और भी न जाने कितनी विषैली भावनाओं की चिंगारी फूटने लगी, लाचार क्रोध के तनाव में पूरा माथा ठनकने लगा, बोला 'दारू के धंधा से घर बर्बाद हो गइल। हम मिट गइलीं, मालिक। हमरे रामबिहारी के लील जाइल चाहती बा इ दारू। हम इ ना होवे देब। रामबिहारी से दारू क लत छोड़ाई के रहब। वोकरा भविष्य बनवले खातिर हमके चाहे भीख माँगे के पड़ऽ... हम माँगब... मगर दारू से पीछा छोड़ाइ के ही अब तसल्ली होई।' लंगड़ के इस भाषण पर चौहान के सुर्ख होठों से बड़ी हिंसक मुस्कान फूटी... 'हँह्...! हँह्...! हहा...! हहा...! तो अवैध तरीके से चोरी-चोरी लकड़ी काटने की तुम्हारी नैतिकता ये है, ऐं?' फिर तो अपनी गरीबी की आड़ में तुम किसी का घर भी लूट सकते हो? बेटे को काबिल इंसान बनाने की इतनी ही फिकर थी तो इस धंधे में आए ही क्यों?' <br />मालिक भूल-चूक क्षमा कइल जाइ, इ पुलिस के नौकरी में का आप अपने शौक से आइल हईं? गरीब क ज्यादे मुँह खोलल गुनाह होला... तनी इ बताईं, इहाँ गाँव-गाँव में दारू क धंधा केकरे इशारे पर चलत बा? सरकार हमके लाइसेंस देले, तब हमन के इ नीच धंधा कइल जाला। <br />'अबे, चुप बे हरामी! साला, कमीना, डेढ़ पैर का जानवर, सरकार पर अंगुली उठाता है। कल हम पर उठाएगा, थाने पर उठाएगा, पुलिस महकमे को बदनाम करेगा। मुँह में हाथ डालकर तेरी जीभ खींच <br />लूँगा। एक तो सरेआम चोरी, ऊपर से हरिश्चन्द्रगिरी।' <br />'भद्दी-भद्दी गारी काहें देहला सरकार? हम आपके अधीन बाटीं जरूर, मगर आप क गुलाम नाईं होईं। हमार भी कौनो <br />इज्जत बा। एतना त कम से कम ख्याल रखीं।' <br />अंधे क्रोध की विषम ज्वाला चौहान की खोपड़ी में न जाने कब से सुलग रही थी, जंज्ब करते-करते जब न रहा गया तो चिल्लाया गला फाड़कर 'चोप्, चोट्टा साला!' और भरपूर ताकत से चौहान ने मारी लात स्टूल पर। लंगड़ वैसे भी सही-सलामत इंसान के वजन का नहीं था, लद्द से आ गिरा ंजमीन पर। चौहान तैश खाकर कुर्सी से उठा और शुरू कर दी लात और थप्पड़ की ताबड़तोड़ बारिश। पूरे बीस-पच्चीस मिनट तक नौ बजे रात के सुन्न-सपाट सन्नाटे में थाने के बाहर आघात-दर-आघात, गाली-दर-गाली, कराह-दर-कराह की खून जमा देने वाली गूँज उठती रही, फिर दिशामुक्त हो गई, मायावी सत्ता जैसी, रहस्य जैसी। लंगड़ की मर्मांतक कराह मौत के दर्द को भी एकबारगी फीकी कर देने वाली थी। बीच-बीच में वह इस सरकारी हत्यारे से प्रश्न भी करता था 'अगर जंगल क लकड़ी काटल जुलुम ह, पाप ह, त दारू के धंधा में आप क कमीशन खोरी का ह?' <br />अंधकार केवल रात में नहीं घिरता, दिन में भी घिरता है। सूरज सिर्फ शाम को नहीं डूबता, भरे दिन में भी डूबता है। रात सिर्फ काली नहीं होती, उजली भी होती है। वह केवल डराती ही नहीं, लुभाती भी है, मोहित भी करती है, कस लेती है अपनी मादक बाँहों में। मौत सिर्फ मरने का नाम नहीं, जीने का भी नाम है। इन दस-बारह गाँवों का सच, सच होते हुए भी सच नहीं लगता। यहाँ दर्जनों गाँवों में बच्चे, वृद्ध, औरत सब के सब एक पानी के जीव हैं डूबने वाले, तैरने वाले, बहने और बहकने वाले। वे सुबह जगते हैं तो सूरज का गोला नहीं, महुए की रोटी दिखाई देती है। यहाँ किसी के जीने का कोई मकसद नहीं। वे जीते हैं क्योंकि जिंदा हैं, वे सोते हैं क्योंकि रात होती है, उठते हैं क्योंकि सुबह होती है। कोई चार पैर, दो सींग और एक पूँछ वाला जानवर भी खुद को इतना बेमूल्य का नहीं समझता होगा, जितना कि ये। चालीस-पचास बरस गुजर गए, इन गाँवों में एक भी ग्रेजुएट नहीं, किसी ने भी सरकारी नौकरी का स्वाद नहीं चखा। ऐसा एक भी नौजवान नहीं, जो महुए का रस पीए बिना बड़ा हुआ हो। इनके बारे में उम्र की बनी-बनाई धारणाएँ फेल कर जाती हैं। ये बचपन में ही नौजवान हो जाते हैं और नौजवानी <br />आने से बहुत पहले वृद्ध। अधेड़ कहलाने का सुख पाना इनमें से विरले को ही नसीब है। फिर तो बूढ़े होने की नौबत ही नहीं आती। और लोगों की साँसें चलती <br />होगीं नियमित रूप से, यहाँ वो भी <br />निश्चित नहीं। <br />थाना पर इन दिनों डिप्टी एस.पी. साहब का दौरा है। साल में एक बार इधर उनका दौरा जरूर पड़ता है, इलाका है उनका, कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी है, अमन-चैन बनाए रखना है जिले में, शांति कायम रखनी है। राज्य सरकार से अपनी कर्तव्यनिष्ठा का प्रमाणपत्र लेना है इसलिए साहब अपनी सामर्थ्य भर कोई कोताही नहीं बरतना चाहते। थाने पर दो दिन पहले से ही 'उत्सव' की तैयारी चल रही है। सभी चौकीदारों को अलग-अलग जिम्मेदारी सौंप दी गई है और छह सात कांस्टेबिलों को उन कामों की देखरेख करने के लिए लगा दिया गया है। बीस लीटर दूध उनकी पूरी टीम के चाय-साय पीने के लिए, पाँच किलो ताजा गोश्त, पाँच किलो रोहू मछली। चौहान ने खुद एक-एक सामग्री की व्यवस्था में पूरी ताकत झोंक दी है। पुरानी फाइलें दुबारा 'मेंटेन' हो गई हैं, ंगैर जरूरी ंफाइलों को हटा लिया गया है। चौहान को सिर्फ अपनी ही नहीं, पूरे थाने की 'इमेज' 'मेंटेन' रखनी है। हर तरह से डिप्टी एस.पी. साहब को खुश रखना है। सुई की नोंक के सौंवे हिस्से के बराबर भी कोई कमी न रहने पाए। डिप्टी एस.पी. साहब और उनकी लाव-लश्कर की 'दिव्य खातिरदारी' में जरा-सा भी भूल-चूक चौहान को बर्दाश्त नहीं है। सुबह-सुबह सात बजे ही ललन चौकीदार को अपने कक्ष में बुलाकर चौहान ने आदेश दिया कि गाड़ी लेकर जाओ और महुआ पट्टी से जितना हो सके उतना 'अमृतरस' लेकर आओ। ललन चौकीदार भौचक रह गया इतनी मात्रा में दारू का आदेश सुनकर। मगर चौहान की कमजोर नस वह जानता था कि 'ना' सुनते ही वह साक्षात् जूनियर यमराज बन जाता है। आधे घंटे में पहुँचा चंदनपुर और सीधे लखई की झोपड़ी पर गाड़ी रोक कर चौहान का आदेश सुना दिया। सुनते ही गुस्से के मारे लखई की पूरी देह सनसना उठी, किसी तरह खुद को संभालते हुए बोला 'लल्लन भाई, तुहीं बतावा, एतना दारू क इंतजाम एक्कऽ साथे <br />कइसे होई?' <br />'देखो लक्खू! हमें थाना से आदेश मिला है। चौहान को अच्छी तरह से जानते हो न! पिछले महीने दारू भेजने से इंकार करने पर लंगड़ की क्या दुर्गति हुई थी थाने में? लेकिन मुझे विश्वास है कि तुम लंगड़ की तरह खाँटी गँवार नहीं हो। अपना हला-भला अच्छी तरह सोच सकते हो। जाओ जल्दी, पट्टी में सूचना दे दो। जिसके पास जितना भी मीठा पानी है, आधे घंटे के भीतर लेकर हाजिर हो जाए।' दारू की व्यवस्था का निर्देश देते समय ललन कोई ढिलाई नहीं बरतना चाहता था। <br />लखई पैर में टुटहा चप्पल डालकर द्वार से निकला तो जी में आया, उसी चप्पल से पीट डाले अपना सिर, नोंच डाले अपना मुँह। शराब के धंधे को लेकर अभी तक अपने को कोसता था, पछताता था, बेतरह धिक्कारता भी था। लेकिन आज उसने खुद को भद्दी-भद्दी गालियाँ भी देना आरंभ कर दिया। चलते-चलते उसने अपने आपको इतनी गालियाँ दीं, इतनी कि कोई सात जन्म के दुश्मन को भी नहीं देता होगा। जी तो करता था उसका कि सड़ा हुआ कुर्ता-धोती फाड़कर नाचे, कूदे, लोट जाए जमीन पर और अंजुरी जोड़कर पट्टी-पुरवा वालों से कहे भाईयो, मैंने हत्या की है, पापी-नीच-कमीना हूँ मैं। अपने ही हाथों निर्दयी की तरह गला दबाया है अपने बच्चों का और आज भी वही करने जा रहा हूँ। मुझे बस दो दाने की भीख दे दो, गुजारा कर लूँगा, आधा पेट रहकर जीवन काट लूँगा, मगर कोई आजाद कर दे मुझे दारू के मायाजाल से। नहीं, नहीं, इतना हत्यारा कैसे हो सकता हूँ? कोई मुझसे एक बार कह दे कि लखई तुम निर्दोष हो, तुमने जान-बूझकर अपने बच्चों को नहीं मारा है। तुम गुलाम हो, लाचार हो, बेवश हो। लाचारी ने मार-मारकर तुम्हारी कमर तोड़ डाली है मगर तुम अपराधी नहीं हो। <br />आधे-पौन घंटे के भीतर चौहान के आदेश के मुताबिक 'अमृतरस' की व्यवस्था लगभग हो गई, मगर हिसाब में अभी भी कुछ लीटर दारू की कमी पड़ रही थी। अब क्या किया जाए? लंगड़ ने मात्र पाँच लीटर ही दिया था, उसे आदेश हुआ कि पाँच का इंतजाम और करे। लंगड़ लाठी के सहारे भचकता हुआ तेजी से लपका अपनी झोपड़ी की ओर और कोने अंतरे में भूले-भटके जितनी भी दारू बची हुई थी, <br />सब उठाकर ले आया और चौकीदार के सामने धरते हुए बोला 'ल इ रामबिहारी का हिस्सा रहल। चौहान से कहि दिहो <br />कि आज के बाद लंगड़ क घर भुला जाय।' <br />लंगड़ की तरह लखई, चइतू, मंगल एक बार फिर अपनी-अपनी झोपड़ी की ओर लपके और गोदिया बच्चों के लिए एक-दो लीटर जो भी बचाकर रखा था, सब बटोरकर वापस चौकीदार के पास आ गए। चलते-चलते जरूरत से भी ज्यादा दारू की व्यवस्था हो जाने पर चौकीदार बड़ा प्रसन्न हुआ और कंटेनर में भरकर मोटर साइकिल पर लटकाता हुआ बोला 'आज तुम सब ने हमारी इज्जत बचा ली, थाने का मान रख लिया। चौहान खुश हो जाएँगे। एस.पी. साहब की तबियत <br />खिल जाएगी। चिंता मत करना। कहूँगा चौहान से कि तुम सब पर इतना जुल्म <br />न ढाएँ। <br />चौकीदार थाने जाने के लिए जैसे ही तैयार हुआ, महुआ पट्टी की चार औरतें आकर खड़ी हो गईं उसके सामने और चिल्लाईं 'हे चौकीदार बाबू! उतारा गाड़ी से कंटेनर। हमार बच्चे का पीहंऽ हमार मरद, दहिजरा क पूत, हमरे चोरी-चोरी सारा दारू लाइ के तुहें दे दिहलस। घर में एक छटाक दारू नाईं बचल। का पी के जीहंऽ हमार बच्चे?' <br />'अब कंटेनर से एक बूँद भी रस नहीं निकलेगा। सब मेहमानों के लिए है। बच्चे दो दिन दारू नहीं पीएँगे तो मर <br />नहीं जाएँगे।' चौकीदार ने धमकाया <br />औरतों को। <br />'अच्छा? तुम्हें दुइ दिन अन्न न मिलऽ, त कौन बुरा बा? तूहूँ मरि त नाईं जाबा?' चारों औरतें इस समय हू-ब-हू अगियाबैताल बनी हुई थीं, चौकीदार ने उनके मुँह लगना जरूरी नहीं समझा और मोटर साइकिल स्टार्ट कर उन्हें अनेदखा करते हुए अपनी राह पकड़ी। <br />सुबह का वक्त, चंदनपुर गाँव से हाहाकार उठने लगा है। क्या अधेड़ मरद और क्या दो-तिहाई बाल सफेद कर लेने वाली औरतें पछाड़ खा-खाकर रो रही हैं, छाती पर मुक्का मार रही हैं और कारन कर-करके ऑंसू बहाते हुए ललन चौकीदार को शराप रही हैं 'तोहार निर्वंश होइ जाय, पापी! हमरे बाल-बच्चन के खा गइला। एतना अत्याचार कइसे पची? बचवा हमार दुइ दिन से भुक्खन, कलप-कलप के मरि गइ लंऽ। इ भुक्खड़न के मारे आपन दुइ घूँट गंदा रस भी नाईं पीए पउलंऽ।' नौ बजते-बजते गँवई खेत की पगडंडियों पर धूल का धुऑं उठने लगता था, आज वह भी किसी दिशा में उठता नहीं नजर आता। दोपहर हो आई, सूरज मानों तप नहीं रहा, तपा रहा है। दो-तीन बजे के वक्त का दृश्य ऑंखें संज्ञा शून्य कर देने वाला था। चंदनपुर से एक साथ पाँच-पाँच लाशें उठीं। अभी सब अबोध थे, इसीलिए अर्थी नहीं बनाई गई। लखई, चइतू, मंगल अपने-अपने बच्चों को कपड़े में लपेटकर गोद में उठाए नदी की ओर ढुलकते जा रहे थे। इनमें लंगड़ का पाँच साल का बेटा रामबिहारी भी था। अपने बाप को ढंग से समझना अब धीरे-धीरे सीख रहा था। लंगड़ ने चोरी-चपाटी कर, लात-जूता खाकर रामबिहारी को पाला-पोसा। पत्नी नहीं थी, उसके सिवा माँ और कौन बनता? उसकी हमेशा कोशिश रही कि रामबिहारी की हलक में एक बूँद भी महुए का रस न जाने पाए। तीन-चार मील दूर एक प्राइवेट नर्सरी स्कूल में बच्चे का नाम भी लिखा दियाा था। वह रामबिहारी को खुद स्कूल ले जाएगा, क्या फर्क पड़ता है? इतना ही होगा न कि आने-जाने को मिलाकर कुछ छ: मील चलना होगा। लंगड़ को मंजूर है, हजार बार मंजूर। पढ़-लिखकर बेटा काबिल इंसान बन गया तो लंगड़ भी समझेगा कि वह दुनिया में इतना भी अभागा नहीं है। मगर नहीं, लंगड़ की सभी कल्पनाओं में आग लग गई। एक ही पल में सारे अरमान मिट्टी में दफ्न हो गए। इस वक्त नदी के किनारे-किनारे फैली हुई श्मशान भूमि का साम्राज्य है और गोद में बेटे का ठंडा शरीर। <br />गाँव के तीन-चार आदमियों ने मिलकर लंबा-चौड़ा गङ्ढा खोदा, मृतक बच्चों को पिता की गोद से अलग किया। उन्हें जतन से गङ्ढे में रखा और फावड़े से मिट्टी डालने लगे। लंगड़ ने लपक कर हाथ पकड़ लिया सुक्खू महरा का 'तनिक संभाल के भइया, गढ़हा में माटी धीरे-धीरे गिरावा।' सुक्खू एक पल में समझ गया कि लंगड़ ऐसा क्यों कह रहा है। बोला 'बेफिक्र रहा काका, रामबिहारी सिर्फ तोहार बेटवा नाईं, हमार छोट भाई भी रहल।' बार-बार कहने के बावजूद लंगड़ मिट्टी के ढेर पर जड़वत् खड़ा रहा। मानो किसी भी दिशा से, किसी भी मुँह से उठने वाली आवाज सुनने-समझने में उसके कान असमर्थ हो चुके हों। वह इस वक्त कहाँ है, यह भी उसे नहीं पता। बस एकटक मिट्टी से ढँक उठे रामबिहारी का शरीर ताक रहा था। क्रिया-कर्म संपन्न करने के बाद चइतू, मंगल, लखई, लंगड़ अपने गाँव वापस चले। शाम ने नीले आसमान में अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था। छह जने चुप्पी मारे हुए हैं। कोई किसी से रत्ती भर भी बोल नहीं रहा। सबके सब एक-दूसरे की नजर में नालायक हैं, अभागे हैं। खुद अपनी ही नजर में पल-पल इतना गिर रहे हैं कि दूसरे से कुछ भी पूछने का ख्याल न जाने किधर गुम हो गया है। <br />गाँव के किनारे-किनारे घिरे हुए आसमान से अंधेरा झरने लगा था। पाँच के पाँच करीब पहुँच आए गाँव के। लखई ने एकाएक मुर्दा-चुप्पी तोड़ी ''इ दारू बेंचले क धंधा हमार जिनगी बर्बाद कइ दिहलस।'' मन मारकर लखई की बात सुन लेने के बाद मंगल ने प्रतिवाद किया ''कइसन बात करत बाटा तू लोग, ऐं? अरे इ रोजगार छोड़ि देबा, त करबा का?'' सुनते-सुनते लंगड़ से न रहा गया, तड़प कर बोला ''का मंगल? एतना गँवार न बना। सीना पर हाथ रखि के कहा तोहार बाल-बच्चे कब्बो दूध-दही क स्वाद जान पउलँऽ? अरे, तोहरा लोगन के अभागि घेरले बा, अभागि। भटकसुन्न हो गइल बाटा तू सब। फूल-बतिया जइसन लइकन के गंवाई के आवत बाटा, तौ पर ऑंखि नाई खुलत बा। जागा-जागा तू सब, देखा! माथा पर महापाप नाचि रहल बा। और इ बगल का थाना? सारे गाँव-जवार के नरक क कारन इहऽ हऽ। अपने मतलब खातिर ई पुलिस-दरोगा चोर-दलाल क पीछे-पीछे सपोर्ट करे लँ। खुल्लम-खुल्ला कइसे करंऽ? उ ठेकेदरवा ससुरा पालतू केंचुआ ह डिप्टी दरोगा क। अगर चौहान आपन थूक चाटे के कहऽ, त ठेकेदार धड़ाक् से थूक चाटि लेई। तू सबके कुछ पता बा? इ दोगला, बेईमान थानेदार के बँधल-बँधावल कमीशन देला। दूनो पइसा लूटि-लूटि के गच्च बाटँऽ। हमरे सबके खून-पसीना की कमाई पर इ सब भैंसा जइसन मोटा गइल बाँटऽ। अरे, तोड़ि-ताड़ि के भागि निकला इन कैदखाना से। अपने स्वारथ खातिर इ ठेकेदार-पुलिस सारे गाँव जवार के साक्षात् नरक बना दीहँऽ।'' लंगड़ की इस सूझ-बूझ की काट किसी के पास न थी। सभी उसके सामने निरुत्तर थे। सभी मुँह लटकाए अपनी-अपनी झोपड़ी में आकर विलाप करने लगे। <br />पहर भर रात बीत जाने पर पड़ोसियों ने लंगड़ की झोपड़ी से 'खटाखट', 'तड़ातड़' की आवाजें सुनीं। कुतूहलवश चार-छह लोग उसके घर की ओर लपक आए कि आखिर बात क्या है? अंदर झाँक कर देखा तो ठक्क रह गए, लंगड़ फावड़े से अपनी भट्टी तोड़ रहा था। वही भट्टी जिस पर होश संभालने के बाद बैठना शुरू किया था। वही भट्टी जो मुट्ठी भर इज्जत तो दूर, दो वक्त का अन्न भी नहीं दे सकती थी। एक पड़ोसी ने लंगड़ से सवाल-जवाब किया 'भइया, दारू क धंधा छोड़ देबा, त आगे कइसे गुजर-बसर होइ? कुछ <br />सोचले बाटा?' <br />लंगड़ फावड़े से भट्ठी पर प्रहार करते हुए ही बोला 'हाँ, हाँ, हम सोचि लिहले बाटीं। भुक्खन ऐंठी-ऐंठी के मरि जाब, लेकिन अब इ घर में भट्ठी नाहीं जरी। अब हमके केकर चिंता-फिकिर बा? मरब त मन शांत रही कि हमरे पीछे केहू भुक्खन मरे वाला नाईं बा।' <br />q q q</p> भरत प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/15701950336360578610noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3182288695453413836.post-4129229156352344982010-11-09T10:21:00.003+05:302010-11-09T10:21:51.162+05:30युवा कहानी और उसका समय - भरत प्रसाद1. पिछले दो दशकों, अर्थात बीस वर्षों का कालखंड अपने विकास के एक-एक चरण में आश्चर्यजनक तेजी के साथ बदला है। यह समय अप्रत्याशित परिवर्तनों के तूफान के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। पारिवारिक संबंधों में अविश्वसनीय विघटन, मानवीय मूल्यों की विकलांगता, व्यक्ति के आचरण में चोर दरवाजे से कुत्सित दुष्वृत्तियों की घुस-पैठ, सामाजिक संरचना में एक प्रकार से दरार आ जाना, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हवस, स्वार्थ, बाजार, पूँजी और ऐशवादी मनोवृत्ति का साम्राज्य स्थापित होना, ये कुछ ऐसे मूल तत्व हैं, जिनके आधार पर पिछले बीस वर्ष के युग-सत्य को परिभाषित किया जा सकता है।<br />
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2. साहित्य की कोई एक विधा अपने समय के बहुमुखी यथार्थ को प्रामाणिक संपूर्णता के साथ नहीं व्यक्त कर सकती। यहाँ तक कि समूचा साहित्य अपने दौर के प्रकृत-सत्य को पूर्णत: उद्भासित कर देने के लिए नाकाफी है। सच तो यह है कि साहित्य में युग का जो सत्य प्रकट होता है, वह उस युग के आकर्षक या विकर्षक, शान्तिपूर्ण या हिंसक, सुखद या आतंककारी रंग की एक-एक झलक, एक तरंग, एक लहर या एक आभासी चित्र मात्र होता है। इसका अर्थ यह भी नहीं कि साहित्य में युग की अल्प-प्रामाणिक अभिव्यक्ति होती है, हकीकत यह है कि किसी भी युग की कलम के द्वारा उस दौर के प्रतिनिधि सत्यों की प्रभावशाली प्रस्तुति होती है। सृष्टि के अनन्त यथार्थ की मूल प्रकृति ही ऐसी है कि साहित्यकार अपनी सारी क्षमताओं को कलम में दूह डालने के बावजूद कागज पर सृष्टि की प्रति-सृष्टि रचने में अधूरा रह जाता है। अनूभूति से अधिक व्यापक और शक्तिशाली होता है यथार्थ, और सर्जक की अनुभूति अधिक चटक एवं गहरी होती है, उसकी अभिव्यक्ति की तुलना में।<br />
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यदि इस कसौटी पर युवा कलम का मूल्यांकन किया जाए तो जो निष्कर्ष सामने आता है वह दो प्रकार का है। एक तो यह कि कुछ लोकोन्मुख जनवादी और जनपदीय कहानीकारों की कहानियों में दिन-प्रतिदिन के विकट, विषम और द्वंद्वपूर्ण वर्तमान की प्रमाणिक, स्वाभाविक और सीधी अभिव्यक्ति हुई है। यथार्थ के 'ज्यों के त्यों' को उद्धाटित करने की प्रतिबद्धता इनमें भरपूर है। दूसरे प्रकार के युवा कहानीकारों ने यथार्थ के अंत: सत्य को प्रमाणिक स्तर देने की बजाय उसको संकटों में प्रतीकात्मक ढंग, बल्कि एक गौण समस्या के रूप में मात्र छुआ भर है। सामने उपस्थित युग की बेहिसाब समस्याओं को कागज पर उकेर डालना उनके सृजन की प्राथमिकता है भी नहीं। उन्होंने भाषा का खेल भर खेला है।<br />
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3. यदि विश्व के कहानी लेखन के इतिहास पर नजर डालें, तो हिंदी कहानी की उम्र कुछ कम नहीं है। हाँ, गुणवत्ता, उच्चता और कलात्मकता की दृष्टि से वह अवश्य विश्व की अन्य भाषाओं के समक्ष 'उन्नीस' पड़ेंगी।<br />
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समूची भारतीय रचनात्मकता को छान मारने पर कुल चार ही कथाकार खडे नजर आते हैं रवींद्रनाथ टैगोर, शरतचंद, प्रेमचंद और रेणु। हिंदी कहानी के सौ वर्षों का इतिहास प्रेमचंद की कलम के एकछत्र साम्राज्य का इतिहास है। हमारे सामने जयशंकर प्रसाद और प्रेमचंद से लेकर उदय प्रकाश, संजीव और शिवमूर्ति तक का इतिहास है, ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, स्वयं प्रकाश तक का इतिहास है। कहानी को उच्च दार्शनिक कविता की शैली में ढालना हो तो प्रसाद के पास आइए। कलम की ताकत को किसी की धमनियों में बहने वाला खून साबित करना हो तो प्रेमचंद के पास आइए। दूर बैठकर किसी अंचल और लोकजीवन के तीते-मीठे, कड़वे, बेस्वाद, खट्टे सत्य का हू-ब-हू एहसास, जीवंत, सचित्र, सशक्त एहसास करना हो रेणु के पास आ जाइए। तकरीबन दर्जनों ऐसे कहानीकार हैं जिन्होंने भाव, शिल्प, संवेदना, कथ्य, संरचना, वैचारिकता इत्यादि अनेक रूपों में हमारे सृजन-मानस को समृद्ध किया है। हिंदी का प्रत्येक कहानीकार ऋणी है उन कहानीकारों का। प्रेमचंद हिंदी कहानी के युगान्तकारी और सबसे निर्णायक मोड़ तो हैं ही, दूसरा उल्लेखनीय मोड़ रेणु और नागार्जुन ने पैदा किया। 'नई कहानी आंदोलन' कहानी की धारा का एक उल्लेखनीय मोड़ है अवश्य, लेकिन व्यापक यथार्थ के प्रति अटूट, बेचैन प्रतिबद्धता की वजह से न कि किसी उच्च स्तरीय कहानी-साधक की वजह से। मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव और कमलेश्वर में से एकमात्र कमलेश्वर ही वह युग-शिखर हैं, जिन्हें इस विधा में कुछ जोड़ने वाला शिल्पी कहा जा सकता है। इनकी कहानियाँ हमें सलीका और समझ देती हैं कि ठीक-ठीक सामने प्रत्यक्ष खड़े समय से संवाद, विमर्श, बहस करते हुए कैसे सृजन किया जाता है। भाषाई और शैलीगत सलीका और तरीका तो हमें निर्मल वर्मा ने भी दिया, लेकिन विषय के प्रति बौद्धिक सजगता का आग्रह हमारे पाठक-चित्त को संतुष्ट नहीं करता। रेणु और नागार्जुन के बाद विदू्रप, विकृत, धोखेबाज, हिंसक और साम्प्रदायिक समय से साहसिक मुठभेड़ करने की समझ और सीख हमें यशपाल और भीष्म साहनी देते हैं। युग-चरित्र की अमर प्रतिमा गढ़ने, जन-मन की मूक वाणी को निर्भय स्वर देने, साधारण में असाधारण की सम्भावना पैदा करने, कलम की खेती से उत्पन्न 'अन्न' से करोड़ों जनता की आत्मा संतुष्ट करने और शब्दों से जागरण का काम लेने में हमारे सबसे कमाल के प्रेरणा-पुरुष, 'सृजन के स्कूल' प्रेमचंद ही हैं।<br />
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4. 'नयापन' शब्द आज की युवा कहानी से इतना चिपक गया है कि लगता है, इसके पहले कभी कहानी में नयेपन पर ध्यान नहीं दिया गया या पहले इस तरह नयापन आया ही नहीं, जैसा कि अब आया है। 'नई कहानी आंदोलन' में विषयों का आश्चर्यजनक, किन्तु जरूरी नयापन था किंतु उस समय नयेपन पर जोर डालने के बजाय परम्परा से, मूल्य से, लीक से विद्रोह करने पर ज्यादा बल दिया गया। देखिए उस धारा के प्रतिनिधि कथाकार राजेन्द्र यादव इन शब्दों में नयेपन की नियति पर कैसे पछता रहे हैं ''नयेपन के आवेश और उत्साह में हम सभी भटके हैं और इधर-उधर टटोलते रहे हैं, लौटे भी हैं और फिर बढ़े हैं।''<br />
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जीवन या साहित्य में नयेपन का आना अगले मूल्यवान विकास का ही सूचक है। कभी-कभी यही नयापन उस विधा में क्रांतिधर्मी जागरण का सूत्रपात्र करता है, परन्तु यह नयापन प्रायोजित, प्रचारित या ऊपर से थोपा गया न हो, बल्कि समय के स्वभाव से पैदा हुआ हो, तत्कालीन मानव-समुदाय की जरूरत के तौर पर उत्पन्न हुआ हो, अर्थात् नयापन सिर्फ कहानी, कविता या आलोचना ही नहीं, विचार, व्यवहार और जीवन-मूल्यों के स्तर पर भी अपरिहार्य लगने लगे। यह नयापन सामान्य तौर पर हिंदी कहानी में दो प्रकार से घटित हुआ है एक विषयवस्तु, अभिव्यक्ति-दक्षता और अंतर्वस्तु का नयापन और दो कहानी की बाहृय संरचना अर्थात भाषा, शैली, शिल्प, रूप-कला का नयापन। इस नयेपन की कसौटी अंतर्वस्तु है, न कि भाषा और शिल्प। भाषा और शिल्प के नयेपन को वैधता अंतर्वस्तु की उत्कृष्टता से मिलती है। आज के युवा कहानीकार जो कि उत्तेजित मुद्रा में, ऑंखें मूँदकर नई भाषा, नए शिल्प, नई प्रस्तुति का डंका बजा रहे हैं, वह चंद आलोचकों की कृत्रिम तारीफ और कुछ संपादकों के प्रोत्साहनों पर टिका हुआ है। ऐसे आलोचकों और संपादकों द्वारा गुब्बारे या गेंद या बच्चे की तरह उछाले गए युवा कहानीकार प्रशंसा और प्रचार की तेज लहर में बह रहे हैं, उल्टे-पुल्टे, आड़े-तिरछे, तने और झुके हुए चले आ रहे हैं। ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि मात्र तीन कहानियों की कर्णभेदी तारीफों के दम पर कोई कहानीकार हिंदी साहित्य में अमरता हासिल कर ले। आज प्रचार की मदहोशी में नश-शिख मुद्रा में सुबह से देर रात तक डूबा हुआ युवा कहानीकार गिनती में 10-12 कहानियों की वैसाखियों पर अमर होने जा रहा है। कहना जरूरी है कि तरंग में बहती, नित नये रंग बिखेरती, बल खाती, तथ्य और सत्य से अगंभीर खेल-खेलती इन युवा कहानीकारों की भाषा में मोहक आकर्षण है, लीक छोड़कर बेफिक्र चलने का साहस है, और है कुछ नया करतब दिखाते रहने की आत्ममुग्ध जिद। गोला बाँधकर सिमटे हुए इन युवा कहानीकारों ने कहानी की पुरानी, एकरस और सीधी चाल चलने वाली भाषा-शैली में तोड़-फोड़ मचाई है, बल्कि समय के आचारण के अनुकूल अत्याधुनिक कथात्मकता का एक मार्ग भी खोल दिया है, मगर कहानी के अन्त:सत्य की, अंतर्वस्तु की जितनी उपेक्षा, जितना परिहास इस दशक के युवा कहानीकारों द्वारा किया गया है, उतना इसके पहले शायद ही कभी हुआ हो। देखिए, कथाकार शिवमूर्ति क्या टिप्पणी करते हैं ''किसान, मजदूर और दस्तकारों का इस देश की आबादी में अस्सी प्रतिशत हिस्सा है। अधिकांश बेरोजगार भी इन्हीं में से हैं, फिर भी हिंदी कथा जगत में इनके जीवन का प्रतिनिधित्व एक प्रतिशत भी नहीं है। हिंदी में वर्तमान कहानीकारों की कुल संख्या को देखते हुए इन पर लिखने वालों की संख्या उँगलियों पर गिनने लायक भी नहीं है। युवतम पीढ़ी में तो यह प्रतिनिधित्व चिंताजनक ढंग से नगण्य हो गया है'' (हंस, अगस्त-06)Ð<br />
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5. आज समय, समाज, संस्कृति और जीवन-संरचना को उसकी प्रकृत सम्पूर्णता में समझने के लिए कोई एक वाद, विचारधारा या मत नाकाफी, अधूरा और अपर्याप्त है, लेकिन... साथ-साथ यह भी सच है कि बिना कुछ तर्कसम्मत सिद्धांतों, मतों या वैज्ञानिक विचारधाराओं के सहयोग के जड़ या चेतन सृष्टि की मूर्त-अमूर्त संरचना को समझा भी नहीं जा सकता। मनुष्य का मस्तिष्क चाहे जितनी विलक्षण शक्ति, अनोखी कल्पना और सर्वग्राही चेतना का ऊर्जा केंद्र क्यों न हो, वह बिना विचारों के परिपक्व हो ही नहीं सकता। इसलिए क्या साहित्य और क्या सृजन की अन्य कोई कला, सबमें विचारधारा की भूमिका तीसरी ऑंख की तरह है। यह जरूर है, अब आज के जटिल, अबूझ, उलझे, सूक्ष्म और अमूर्त समय की परत-दर-परत समझने, उसका बेबाक, निर्भ्रांत विश्लेषण करने के लिए मात्र एक विचारधारा ही कारगर नहीं है, यहाँ तक कि अकेले मार्क्सवाद भी नहीं। इसलिए अब निरंतर फैलते अंतर्बाहृय विश्व को समझने के लिए कई दर्शन-धाराओं, विचार-स्रोतों और चिन्तन-पद्धतियों के सर्वोत्तम को ग्रहण करना भोजन में नमक और जल की तरह अनिवार्य है।<br />
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6-7. हमारे मौजूदा समय में उत्कृष्ट और समृद्ध भाषा-शिल्प के साथ-साथ सशक्त अंतर्वस्तु को साध लेने वाले प्रथम उदाहरण उदय प्रकाश ही हैं। उनकी अविस्मरणीय कहानी 'छप्पन तोले की करधन' में यह दुर्लभ संतुलन साधा गया है। यदि इस कसौटी पर युवा कहानीकारों को निरपेक्ष दृष्टि से परखा जाए तो बहुत दूर से देखने पर किसी आकर्षक ऊँचाई पर चमकता हुआ नाम मुश्किल से दिखेगा। राकेश कुमार सिंह में समसामयिक लोक- दुख के बदरंग, बेखास यथार्थ को समर्थ, सटीक और अनौपचारिक भाषा में जीवंत बनाने की कूबत है। 'कहानी-खत्म नहीं होती' शीर्षक कहानी में राकेश कुमार सिंह ने अपने कल्पना-कौशल के दम पर मौजूदा जीवन की मायाविनी पीड़ा को प्रेमचंद के दुख ('कफन' के पात्र घीसू-माधव) के साथ कुशलतापूर्वक जोड़ा है। सुपरिचित कथाकार अरुण कुमार 'असफल' ने 'पाँच का सिक्का' नामक लकीर खींचने वाली कहानी लिखी है। असफल की सधी हुई लोक-चेतना में व्याकुल असंतोष का एक मौन धैर्य भी है। वे चरित्र को कथा में अपने अनुसार चलने की पूरी छूट देते हैं। उनकी कलम विषय की प्रकृति में अपनी पसंद-नापसंद नहीं थोपती। यह उनकी कहानी-कला का स्थाई राज है। इधर पंकज मित्र ने कई लोक चरित्रमय कहानियों में अपनी अनोखी-विनोदपूर्ण, चटक-मटक वाली भाषा-दृष्टि का परिचय दिया है। 'हुड़कलुल्लु', 'बेला का भू', 'पप्पू कांट लव सा...' जैसी कहानियाँ मानो इनकी लोकरसमय भाषा का झंडा फहरा रही हों। अपने कहानी-विन्यास में समकालीन मध्यवर्गीय चरित्रों को उनकी द्वंद्वपूर्ण मानसिकता के साथ सामने लाने वाली कविता ने अपनी पीढ़ी में अलग पहचान बनाई है। यह सच है कि उनके विषय का दायरा ज्यादा विस्तृत नहीं, नौकरीपेशा, शिक्षित और लगभग सुखी-सम्पन्न मध्यवर्ग तक ही सीमित है, मगर उतने दायरे में ही कविता अपनी सूक्ष्म मनोविश्लेषण प्रतिभा का प्रभावशाली परिचय देती हैं। लंबे समय तक कविता की दुनिया में टिक कर कहानी की ओर तयपूर्वक रुख बनाने वाले कवियों में संजय कुंदन का नाम जरूरी तौर पर लिया जा सकता है। लगातार दोनों विधाओं में उनकी गतिशील मौजूदगी कायम है। तकनीकी, सूचना, व्यवसाय और बाजारतंत्र से जुडे हुए विषय उनकी कहानियों के केंद्रीय मुद्दे हैं। संजय कुंदन अपने अनुभवों की हकीकत से आश्वस्त हो लेने के बाद ही कलम उठाते हैं, इसीलिए उनकी भाषा में आत्मविश्वास की दृढ़ता साफ दिखाई देती है। 'के.एन.टी. की कार' विशिष्ट शिल्प और मजबूत अंतर्वस्तु का उदाहरण है। सुपरिचित युवा कहानीकार राकेश बिहारी अपनी भाषा और विषयवस्तु की 'अप-टू-डेट' प्रकृति के कारण अलग से पहचान बना रहे हैं। शहर या महानगर के पूँजीवादी, बाजारवादी तंत्र में ठीक-ठीक आज का पढ़ा-लिखा महत्वाकांक्षी नौजवान कैसे लड़ता, हारता, टूटता, फिर भी हालात से समझौता नहीं करता, राकेश बिहारी पूरी बौद्धिक और सूचनात्मक तैयारी के साथ सामने लाते हैं। अपनी 'प्रस्थान' कहानी में उन्होंने मध्यवर्गीय भारतीय युवा में आए हुए साहसिक मानसिक बदलाव के आत्मसंघर्ष को पेंटर की भाँति उकेरा है। 'शहर की मौत' जैसी स्तरीय कहानी देकर प्रेम भारद्वाज समय की उलझनों को अपनी दिमागी तंत्रिकाओं में अनवरत जीने वाले कहानीकार हैं। अपने चरित्रों की मात खाई हुई वेदना से उनका जनवादी हृदय किसी चुम्बक की भाँति अभिन्न होता है। आभ्यांतरिक सहृदयता की आग में तपकर निकले हुए वाक्य प्रेम भारद्वाज को एक परिवर्तनकामी कहानीकार का व्यक्तित्व प्रदान करते हैं। पिछले लगभग तीन वर्षों से ताबड़तोड़ कहानियों की फसल उगाकर उभर उठने वाले उत्तराखंड के कहानीकार हैं रणीराम गढ़वाली। परिणाम की दृष्टि से शायद ही कोई कहानीकार मिले, जो गढ़वाली से अधिक आनन-फानन में कहानी लिख कर दिखा सके। उनके ठेठ पहाड़ी अंचल के पात्रों में तत्पर भाषा की टटकी चित्रात्मकता आकर्षित करती है। वे अपने लोक-विषय को समस्याओं के चक्रव्यूह में न छोड़कर, एक विश्वसनीय लक्ष्य तक ले जाते हैं। जीवन में सर्व प्रचलित भाषा में उनका अटूट यकीन बढ़-चढ़कर बोलता है। युवा कहानीकार हनीफ मदार को 'पदचाप', फारूख मास्टर की मौत जैसी जीवनधर्मी कहानियों की वजह से पहचान मिली है। अंतर्वस्तु की कसौटी पर यदि अन्य युवा कहानिकारों की परख करें तो कैलाश बनवासी और टी. श्रीनिवास लगभग खरे साबित होने वाले विषय-शिल्पी हैं। कैलाश बनवासी को यदि खुद से आगे निकलना है तो 'बाजार में रामधन' का मोह त्यागना पड़ेगा, क्योंकि यही कहानी उनके भविष्य की सीमा बन जा रही है। खुद के पिछले मानदंड को तोड़कर ही सर्जक सही मायने में आगे जा पाता है। टी. श्रीनिवास अपनी कहानी 'इंटरव्यू' में उच्च शिक्षा जगत की प्रतिभाभक्षी व्यवस्था को तरंगपूर्ण व्यंग-भंगिमा में तार-तार करते हैं।<br />
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उपर्युक्त कहानीकारों के पास अंतर्वस्तु की सत्ता साधने, पहचानने और उसे समर्थ, संवेदनशील शब्दों में अभिव्यक्त करने की दूरगामी क्षमता मौजूद है। इनमें से राकेश कुमार सिंह, पंकज मित्र, कविता, कैलाश बनवासी और टी. श्रीनिवास मौलिक किंतु स्वाभाविक भाषा की नई से नई संभावना विकसित करने की भी क्षमता रखते हैं। अंतर्वस्तु और शिल्प दोनों कसौटियों पर आगे बेहतर साबित होने वाले कहानीकार मनोज कुमार पांडेय भी हैं।<br />
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8. भविष्य की पहली और अंतिम कसौटी वर्तमान है बीज और वृक्ष, बादल और बारिश, सूरज और दिन की तरह। संभव है कि लम्बे वक्त तक मौजूदा हिंदी कहानी में रूप-शिल्प-संरचना और मोहक भाषा के नशे का खुमार आलोचकों, संपादकों और पाठकों पर भी अभी छाया ही रहे, किंतु सौ वषोर्ें का इतिहास साक्षात गवाह है कि समय की सान पर लंबे समय तक चमकने में वही सफल हुआ, जिसके पास बहुअर्थी समर्थ भाषा और चुस्त शिल्प के साथ-साथ विषय के अन्त:सत्य को दूध की तरह दुह लेने की क्षमता भी मौजूद थी। समय की सूई मनुष्य से कहीं ज्यादा निष्पक्ष निर्णायक होती है। वह कभी पीछे नहीं घूमती। समय निर्णय करने के अपने पुराने अंदाज से पीछे हट ही नहीं सकता। जब पाठक भी थक जाता है, हार जाता है, तो फैसला करने के लिए अंतत: समय खड़ा होता है।भरत प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/15701950336360578610noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-3182288695453413836.post-20106434013583219872010-11-09T10:21:00.000+05:302010-11-09T10:21:17.116+05:30प्रकृति की अनोखी धरोहर है पृथ्वी - भरत प्रसादकोई लेखक लिखने के लिए जैसे ही कलम उठाता है, वह कुछ अधोषित, अदृश्य, अमूर्त किन्तु बेहद सशक्त शर्तों से, कर्तव्यों से बंध जाता है, उसे बंध भी जाना चाहिए। शर्त यह कि वह विषय के प्रति खुद को जवाबदेह बनाए, विषय के प्रति अपनी भूमिका एक न्यायाधीश की तरह सुनिश्चित करे और शर्त यह भी कि उस खास विधा में क्या कुछ नया और तत्वपूर्ण जोड़ने जा रहा है। इसके अलावा एक लेखक जब विषय को पुनर्जीवित करना शुरू करता है, तो वह सामान्य मनोदशा का व्यक्ति नहीं, बल्कि उर्जस्वित मनोदशा में विचरण करने वाला विद्युत-व्यक्तित्व <br />
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होता है। लेखक को अपने अन्त: व्यक्तित्व में कुछ ऐसे दायित्व का अनवरत एहसास हो अवश्य कि वह खुद को एक चौकीदार, एक सिपाही, रक्षक, चिकित्सक या शोधकर्ता की तरह मान कर चले।<br />
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इस समय हिन्दी साहित्य में जहाँ एक ओर कहानी, कविता और आलोचना में नवोन्मेष की लहर उठी हुई है, वहीं दूसरी ओर इन्हीं ऐतिहासिक विधाओं में ंगैर जिम्मेदार और सौदेबाज लेखकों का भी कारवाँ चल निकला है। कहानी और उपन्यास के मूल संस्कार का गहरा ज्ञान ही नहीं और उठा ली कलम चार सौ पेज का उपन्यास पाठकों के सिर पर पटक देने के लिए। आज कथाकार की गहरी रुचि कथानक में नायाब वेदना की तरंग भरने में नहीं, बल्कि नामचीन प्रकाशकों से उपन्यास, कहानी-संग्रह छपवाकर प्रायोजित प्रचार का ज्वार खड़ा कर देने में है। मौजूदा वक्त में हिन्दी कविता पर कसरत-व्यायाम करने वाले तकरीबन एक सौ युवा कवि हैं, सभी किसी-न-किसी रजिस्टर्ड, पूँजीसम्पन्न और बहुचर्चित पत्रिका में छपतेप्रचारित होते हुए। फिलहाल आज हिन्दी साहित्य में कवियों की अनुशासनहीनता झेलने वाली कविता एक लाचार माँ बनकर रह गई है। स्थिति ऐसी हास्यास्पद है कि पन्ने के बाएँ कोने से लेकर दाएँ कोने तक एक पंक्ति लिख दोकविता कहलाएगी। हूबहू कहानी की तरह एक पैराग्राफ में सपाटबयानी कर डालो कविता कहलाएगी। अखबार की कतरन को थोड़ा घुमा-फिराकर ऊपर-नीचे की पंक्तियों में सजा दोकविता कहलाएगी। आज कविता एक ऐसा मैदान है, जिसमें कवि गेम खेल रहे हैं, टांगअड़ा रहे हैं, विरोधी टीम पर बदले की भावना से अट्टहास कर रहे हैं, सामने वाले को छिपकर धक्का मार रहे हैं और सैर-सपाटा, मौज-मस्ती कर मैदान से बाहर हो जा रहेहैं।<br />
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कविता में मुक्तिबोधीय लय<br />
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वरिष्ठ कवि ओम भारती और युवा कहानीकार अशोक मिश्र के भविष्य सम्पादन में सार्वजनिक होने वाली पत्रिका 'रचनाक्रम' का प्रवेशांक। इसमें बेलीक भाषा-शिल्प के कारीगर विनोद कुमार शुक्ल की कविता- 'कविता' शीर्षक से प्रकाशित है। इसमें विनोद कुमार जी को जंगल से आदिवासियों के बेदखल होने की बात सुनानी है, मगर सीधे-सपाट तरीके से ऐसा कहने में कुछ अर्थ नहीं है इसीलिए वे बेदखली के तीन-चार काव्यपूर्ण उदाहरण और जुटा लेते हैं, तब जाकर आदिवासियों की बेदखली के खिलाफ स्वर मजबूत होता है। सारांश कविता का यह कि आदिवासियों को उनकी आत्मभूमि से बेदखल करना न सिर्फ अन्यायपूर्ण है, बल्कि असम्भव भी। आगे है मलय की लम्बी कविता 'अनचाही भटकती यात्राएँ।' इसमें शुरू से अन्त तक मुक्तिबोधीय अन्तर्लय पुनर्जीवित दिखाई देती है, लेकिन मात्र लय ही, अर्थ उस तरह से नहीं। इसमें समसामयिक जीवन के पीड़ाजनक यथार्थ को अनुराग और अटूट लगाव के साथ संवेदनाबद्ध किया गया है। जहरीले अन्याय के खिलाफ एक जिद्दी तनाव भी कविता में लगातार कायम है। इसी अंक में दिनेश कुमार शुक्ल की तीन कविताएँ 1. सिंघाड़े के ताल के पहरुए का गीत, 2. एक सुबह सड़क अनुभव, <br />
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3. बिना गूँज के। इन तीनों कविताओं में अपने जीवन अनुभवों की जीवित अभिव्यक्ति तो है, मगर कविता में जहाँ-तहाँ कनेर के फूल की तरह लटकते ये लोकबिम्ब लम्बे समय तक याद किए जाने लायक सुगन्ध नहीं बिखेर पाते। दिनेश कुमार शुक्ल लोक-यथार्थ के एहसास में, उसकी भदेस, आंचलिक मिठास में इस कदर डूबते हैं कि नए चिंतन की कौंध पैदा करने की उन्हें सुध ही नहीं रह जाती। 'नदी' और 'देवता' ये दो परम्परागत किस्म के शीर्षक हैं श्री प्रकाश शुक्ल की कविताओं के यहाँ कवि के अन्तस्थल में नदी के अस्तित्व की चिन्ता वाजिब है और उचित हैं उनके सावधान करने वाले शब्द 'ओ कलाकार! बचा सको तो बचा लो अपनी ऊँचाइयों में गंगा के लिए दो गंज जमीन (पृष्ठ संख्या 148)। नदी ही क्यों? यह समूची पृथ्वी ही प्रकृति की अद्वितीय, अनोखी धरोहर है, बचा सको तो बचाओ इसे। वैसे समझ जाओ कि तुमसे <br />
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प्रतिदिन वह छूट रही है।' (रचनाक्रम : प्रवेशांकजन.-जून 10, सम्पादक अशोक मिश्र)Ð<br />
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'लमही' का अप्रैल-जून 10 अंक। लोक-संघर्ष के समसामयिक चित्रकार सुरेश सेन निशांत की तीन कविताएएं 'सूखा' शृंखला में। जिसने अंचल-बस्ती में, खेत-खलिहान में, गाँव-गाँव, घर-घर में मृत्यु, अकाल और महामारी का पागल नृत्य करते सूखे का निर्लग्य नृत्य नहीं देखा है, वह ऐसे विषय पर विश्वासपूर्वक कलम नहीं चला सकता। मगर, निशांत ऐसे असहय अनुभवों के धनी हैं, इसीलिए उन्होंने परिवार, समाज और जनजीवन को बेतरह दुष्प्रभावित करने वाले सूखे के सत्यानाशी असर को स्वाभाविक आसानी के साथ, किन्तु वैचारिक गंभीरता बनाए रखते हुए पेश कर दिया है। सूखा भाई को भेज देता है दूर देश बहिन की ऑंखों से सूखा देता है ऑंसू दमकते चूल्हे की बुझा देता है आग छीन लेता है मेहनत से पकाई रोटी। (पृष्ठ संख्या-79)। आगे अरविन्द चतुर्वेद की कविता 'जंगलराग' में राग के साथ-साथ आग भी है, वो भी ंगैर पारम्परिक और खरी। उनकी पंक्तियाँ दबे, सताए और अपमानित हुए जीवन की अविस्मरणीय पीड़ाओं से उपजी हैं, इसीलिए उसमें हकीकत का स्वाद इतना तीखा है। कैलाश मनहर की दो कविताएँ 'पहाड़' और 'स्त्रियाँ'। पहाड़ को सिर्फ चुपचाप खड़े गूंगे अस्तित्व की तरह मत देखो। औरत हाड़-मांस और सौष्ठव की कोई निर्बोल मूर्तिमात्र नहीं। इन दोनों का वजूद इस दुनिया में हजारों बार व्याख्यायित होकर भी, अभी बहुत दूर तक अव्याख्यायित है। कैलाश मनहर ने इन दोनों के प्रति विस्मृत मूल्यबोध का पुनर्एहसास कराया है। संजीव राय की चार बेशीर्षक वाली फुटकल कविताएं। वे कठिन और बंजर विषय में भी कविता के लिए जगह ढूँढ़ ही लेते हैं, वो भी अपने अर्थ को मनवा लेने वाले दृढ़विश्वास के साथ। इनकी पंक्तियाँ कभी-कभी चला जाना बिजली का अच्छा लगता है, इस शहर में कुछ काम स्थगित हो जाते हैं बतिया सकते हैं थोड़ी देरफुर्सत से लगा सकते हैं अन्दांज हवा में कालिख का (पृष्ठ सं. 86)। (लमही-अप्रैल-जून 10, सम्पादकविजय राय)Ð<br />
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मुद्दा<br />
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आजकल लम्बी कविताएँ लिखना एक थकान युद्ध है। यह रिस्की दुस्साहस है और लाल तप्त तलवार से लड़ने का हिम्मती खेल। लम्बी कविता को छूने का अर्थ है, सौ किलो वजनी सोने की गदा उठाना, बिना शाखा वाले आकाशगामी वृक्ष के फल तोड़ना या फिर ऑंख-नाक बन्द कर पाँच मिनट तक जटिल अन्तर्मुखी साधना करना। लम्बी कविता की अनिवार्य शर्त है बेहिसाब चितंनशील होना, अत्यधिक तर्कवादी होना और मौजूदा हालात-ए-वक्त के प्रति सीमा से पार व्याकुल रहनावो भी जेनुइन किस्म से, प्रयासपूर्वक नहीं। इन सबके अलावा अबाध भावनात्मकता से परिपूर्ण ज्वारीय अन्तश्चेतना का मालिक होना लम्बी कविता का शब्द-साधक बनने के लिए अनिवार्य है। वरना ंफैशन में देखा-देखी कलम का मुर्चा छुड़ाने के लिए लम्बी कविता पर हाथ-पाँव चलाना, सैर-सपाटा के लिए 'मार्निग वाक' से कुछ ज्यादा मतलब नहीं रखता। विषय के गूढ़ मर्म को खोज निकालने वाली जिसके पास अचूक गोताखोर दृष्टि नहीं है वह सफलतापूर्वक सार्थक लम्बी कविता लिख ही नहीं सकता। आज लगभग हर युवा कवि आठ-आठ, दस-दस पेज में लम्बी-चौड़ी-मोटी कविताएँ लिख कर निराला-मुक्तिबोध की दुर्लभ परम्परा का अत्याधुनिक वारिस कहलाने के जुगाड़ में है। <br />
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अंशु मालवीय की लम्बी कविता 'नार्को टेस्ट'। इसमें जन-संदर्भों की लहक है, लोकप्रेम का प्रखर स्वर है, बीच-बीच में यादगार असर छोड़ने वाली मार्मिक पंक्तियाँ भी हैं, पर जो काबिलियत पूरी कविता में कमजोर है, वह है सधे हुए लक्ष्य से लैस दूरगामी दृष्टि। शब्द और वाक्य शीशे की तरह साफ होते हुए भी पारदर्शी अर्थ को जन्म नहीं दे पाए हैं। (नया ज्ञानोदय : जून 10, सम्पादक रवीन्द्र कालिया)Ð<br />
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'हंस' के मई 10 अंक में अनामिका जी की कविता 'खिचड़ी'। इसमें कवयित्री ने कुछ सुहाने-आकर्षक लोक शब्दों की फुहार मार कर मार्मिक अर्थों का आभास पैदा करने की जी-तोड़ कोशिश की है, पर योजनापूर्वक किए गए प्रयास में वह नैगर्सिक अर्थगांभीर्य कहाँ? भौतिक जीवन के साक्षात् अनुभवों को दिशा देने वाली अन्तर्दृष्टि के रूप में कैसे रूपान्तरित किया जाए, यह कौशल हर लेखक-कवि को नहीं पता होता है। यदि सबको यही तत्वज्ञान मिल जाता तो समकालीन परिदृश्य में चारों ओर मुक्तिबोध ही मुक्तिबोध दिखाई देते। इसी अंक में कुमार विश्वबन्धु की कविता 'नया साल'। इसमें नए साल के जाने-बूझे कटु यथार्थ का दो-टूक विश्लेषण किया गया है। यह जो 'नया साल' है न। और कुछ नहीं पूरे बारह महीने के लिए सुख, <br />
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उम्मीद और इच्छित सफलताओं का दिवास्वप्न मात्र है। साल भर के अप्रत्याशित अन्धकार का भीषण मानसिक तनाव है हर नया वर्ष। हमारे बेखास, बेरौनक भरे जीवन में नया वर्ष किस तरह हादसा, <br />
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बेबसी, हत्या, अपहरण और आत्महत्या <br />
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का वक्त साबित हो रहा है, प्रस्तुत <br />
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कविता में इस यथार्थ का बारीक <br />
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विश्लेषण हुआ है। (हंस, मई 10, सम्पादकराजेन्द्र यादव)Ð<br />
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'परिकथा' पत्रिका का युवा कविता अंक कई संभावनापूर्ण शब्द-सर्जकों की स्वस्थ बयार लेकर हाजिर हुआ है। प्रेमरंजन अनिमेष जैसे स्थापित युवा कवियों से लेकर बृजराज कुमार सिंह जैसे नव कवियों की एक जगह मौजूदगी स्पष्ट संकेत करती है कि 'परिकथा' वृहद् दृष्टिकोण के तहत युवा रचनाशीलता को परखना चाहती है। उसकी योजना में किसी खास कवि-समूह के लिए रिजर्वेशन नहीं है। बल्कि कहें, वह कलावाद और भाववाद की खेमेबाजी से ऊपर उठकर कविता को अन्तर्वस्तु की उत्कृष्टता के आधार पर प्रतिष्ठित <br />
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करना चाहती है। युवा कविता पर यह <br />
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संयोजन एक लम्बे समय तक याद <br />
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किया जाएगा।<br />
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यदि शुरुआत से मूल्यांकन की शुरुआत करें, तो शिरीष कुमार मौर्य की कविता 'एक दिन मारा जाऊँगा' ध्यान खींचती है। आजकल किसी के मारे जाने का कारण उसका कोई अपराध या अक्षम्य गलती नहीं, बल्कि उसका सीधा होना, न्यायप्रिय होना, स्पष्ट वक्ता होना और ईमानदारी में साँसें लेना कहीं पहले है। व्यक्ति की अच्छाइयाँ, सद्गुण और सद्विचार आज किसी की अकाल मृत्यु के अनसुलझे किन्तु अकाटय कारण हैं। शिरिष ने नए कलात्मक अंदाज में इस अविश्वसनीय सच को सफलतापूर्वक प्रकट किया है। 'ओ मेरे शरीर' यह है 'कोलाज' काव्य-संग्रह के अधिकारी-सर्जक रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति की कविता का शीर्षक। रवीन्द्र ने कृतज्ञ हृदय के साथ जीवन में शरीर की निर्विकल्प अर्थवत्ता को नम्र वाणी प्रदान की है। जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त शरीर हमारे साथ है जिससे हम लेते हैं बहुत-बहुत ज्यादा और उसे देते हैं बहुत-बहुत कम। ठीक आगे जनपद की नई आवाज महेशचन्द पुनेठा की कविता 'आत्महत्या'। इसमें कवि ने प्रतिबद्धता के साथ उन निर्मम कारणों की खोज की है, जिसके चलते कोई किसान आत्महत्या करने को विवश होता है। किसी भी किसान के द्वारा की जाने वाली आत्महत्या खुद को मिटा लेने का एक अन्तहीन मानसिक दवाब है। यह दबाव किसान के मन पर आदमियत के जानी दुश्मनों द्वारा बलपूर्वक बनाया जाता है। 'मुमकिन है' शीर्षक कविता अंशु मालवीय की। इस परिवर्तनकामी कविता की आग जीवन के कटु यथार्थ की प्रतिक्रिया में पैदा हुई है। प्रांजल घर की कविता 'कुछ भी कहना ंखतरे से खाली नहीं'। इसमें मीडिया के विश्लेषण ने इस बाजारवादी वक्त में मनुष्य के भीतर पैर पसारते दोहरे चरित्र पर एक चौंका देने वाली टिप्पणी की है। यह दोहरापन इस दौर का नकली नहीं असली चेहरा है। शैलेय की कविता 'हिमालय'। आजकल हिमालय या उससे मिलते-जुलते प्राकृतिक स्थानों पर गाड़ी भर कविताएँ उत्पादित हो रही हैं, किन्तु जब शैलेय हिमालय को शब्दों में नापते हैं तो इस एवरेस्टधारी शिखर व्यक्तित्व का वजूद एक नए अर्थ के साथ चमक उठता है। 'नाम में क्या रखा है' कहने के पीछे शेक्सपीयर का अपना दार्शनिक निहितार्थ था, किन्तु नाम में वाकई बहुत कुछ छिपा है, जीवन का इतिहास, परिस्थितियाँ, संस्कार, सोच-विचार और भी बहुत कुछ। ये नाम किसी को पहचान देने वाले चन्द अक्षरों के समूह मात्र नहीं हैं। निशांत ने अपनी कविता 'प्रेमचन्द को पढ़ते हुए' में इस सूक्ष्म सत्य को मजबूती से पकड़ा है। बसंत त्रिपाठी की कविता 'दुनिया की रफ्तार से बाहर खड़े लोगों के लिए'। इसमें कवि के भीतर एक तर्कपूर्ण, लोकतांत्रिक संकल्प है कि यदि अतीत में गलत हुआ है, तो हमें अतीत के पास जाना ही होगा। अतीत से घृणा करते हुए, पलायनवादी तरीके से अतीत के पतन को दुरुस्त नहीं किया जा सकता। 'इन दिनों बेहद मुश्किल में है मेरा देश' कविता अशोक कुमार पाण्डेय की। इसमें कवि की राजनीतिक चेतना पर्याप्त 'अप-टू-डेट' है और इसकी रोशनी में वे सत्ता-शासन के भीतर चल रही जनविरोधी गतिविधियों को सजग निगाहों से देख लेते हैं। 'तीस की उम्र में जीवन-प्रसंग' शीर्षक कविता कुमार अनुपम की। आज अपने सजीव, सप्राण मनुष्य होने को बचा पाना कितना चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है, यही अनुपम की कविता का सार तत्व है। मनोज कुमार झा की कविता 'रुचि'। इसमें कवि की चेतना लोकमार्गी है, उनकी अनुभूतियाँ लोकजीवन से रस खींचती हैं किन्तु उनके काव्यार्थ लोक यथार्थ की तरह ऊपर-ऊपर बहते नहीं दिखाई पड़ते, बल्कि अक्सर मुड़-मुड़ जाते वाक्यों की गति में महीन कण की तरह चमक जाते हैं। कविता जी में सिर्फ कहानी ही नहीं, कविता भी गहराई से जिन्दा है। 'बहुत दिनों से' शीर्षक कविता में पूरे कलात्मक धैर्य के साथ मन में उछलती, रेंगती, डोलती अनुभूतियों को भावबद्ध किया गया है। आगे प्रमोद कुमार तिवारी की कविता 'राजा डरता है', नीरज खरे की कविता 'समुद्र कहाँ नहीं है', प्रदीप जिलवाने की कविता 'यक्ष-प्रश्न', शंकरानंद की कविता 'युद्ध', घनश्याम कुमार देवांश की कविता बांजार (एक और दो) तथा बृजराज कुमार सिंह की कविता 'कविता समय' कोई न कोई नया मर्मपूर्ण निहितार्थ हमें सौंप कर समाप्त होती हैं। (परिकथा, युवा कविता अंक, मई-जून 10)Ð<br />
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लम्बी कहानी पर अर्धविराम<br />
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'नया ज्ञानोदय' के जून 10 अंक में प्रकाशित पंकज सुबीर की कहानी 'चौथमल मास्साब और पूस की रात'। इसमें चौथमल मास्साब और रामचंदर की पत्नी के बीच रसीला आकर्षण सहजतापूर्वक प्रस्तुत हुआ है। दोनों आशिकों में वासना की खुमारी चरम पर पहुँचते-पहुँचते 'यू' टर्न ले लेती है और यहीं पर कहानीपन छलक उठता है। आगे है बन्दना राग की कहानी 'ऑंखें'। इसमें कॉलेजिया लाइफ का लुत्फ उठाने वाली लड़कियों का अति सामान्य और रूटीन सत्य प्रकट हुआ है। लेखिका स्वयं ग्रेजुएट स्टडी की उन स्मृतियों का हिस्सा हैं। पूरी कहानी कॉलेज की खिलंदड़ी और सपाट लाइफ में बेखास और बेस्वाद शब्दों के साथ फैला दी गई है। वैसे इसके उप शीर्षकों में ऑंखों को सुकून देने वाला नयापन अवश्य है। दैनिक बातचीत और खुदरा वार्तालाप में लुढ़कती, फिसलती और भागती हुई कथ्य-शैली कहीं भी मर्मपूर्ण अभिव्यक्ति का गांभीर्य धारण नहीं करती। कॉलेजिया मौज मस्ती के हल्के-फुल्के अनुभवों को उसी प्रकार के शब्दों में उछाल देने के सिवाय इस कहानी का और कोई लक्ष्य है ही नहीं। इसी अंक में शशि भूषण द्विवेदी की कहानी 'छुट्टी का दिन'। एक नौकरीशुदा मध्यवर्गीय नौजवान प्रतिदिन कैसी दुश्वारियों से लड़ता है, उलझता है, खीझता है और आखिर समझौता करता है शशि भूषण ने पर्याप्त गतिमान भाषा में इसका विश्लेषण किया है। यह आत्मकथात्मक कहानी अपनी बुनावट में इतनी स्वाभाविक और चिरपरिचित लगती है कि वह किसी भी नौकरीपेशा नौजवान का आत्मसत्य बनती नजर आती है। राहुल सिंह की कहानी 'बारिश'। इसमें रोहण और वर्षा दो प्रेमी हैं। दोनों की प्रेम कथा अचानक शुरू होती है। राहुल के विषयवस्तु में कुछ भी तो नवीनता नहीं, प्यार जताने का अंदाज भी वही संस्कारबद्ध आशिक जैसा। अपनी पंक्तियों की अर्थक्ता से कहीं भी उद्वेलित न कर पाती हुई यह प्रेम कथा, प्रेम की अधूरी रुवाइयों में जीने वाले नरम-दिल नौजवानों को खुश कर सकती है। (नया ज्ञानोदय, जून 10, सम्पादकरवींद्र कालिया)Ð<br />
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'वर्तमान साहित्य' के जून 10 अंक में प्रकाशित मनोज श्रीवास्तव की कहानी 'प्रेम प्रपंच'। आधुनिक किन्तु पिछड़ी मानसिकता को लिए-दिए जीने वाले धर्मान्ध गाँव की कहानी है 'प्रेम प्रपंच'। इसमें कहानीकार ने गंवई बोली-बानी और विश्वास-अंधविश्वास को कथा के रोचक लय-ताल और छन्द में बांधा है। इसी अंक में कुमार शर्मा अनिल की कहानी 'रिश्ता रोजी से'। इसमें माइकेल म्यूजिक कम्पोजर है। उसके द्वारा बनाई गई धुनें पैसा देकर दूसरे लोग अपने नाम से खरीदते हैं। इस बात को लेकर माइकेल के भीतर फ्रस्ट्रेशन है, वह शराबी बन जाता है, काम-धन्धा छूट जाता है और अपनी प्रेमिका-पत्नी मारिया की नौकरी पर निर्भर हो जाता है। तेजी से करवट बदलती कथा के अंत में मारिया अपने एक दूसरे प्रेमी के बच्चे की माँ बन जाती है और यह क्षणभंगुर प्रेमी मारिया का परित्याग कर विलुप्त हो जाता है। यह जानते हुए भी कि मारिया के पेट में पल रहा बच्चा उसका नहीं है, माइकेल न सिर्फ उसका पिता कहलाना कुबूल करता है, बल्कि बच्ची के प्रेमवश शराब छोड़कर नए जीवन का शुभारम्भ भी करता है। इसी अंक में शिव अवतार पाल की कहानी 'बंधुआ'। माँ की निगाहों में लखपति, शहर की निगाह में लक्खू और मालिक की निगाह में लखुवा। तो, लक्खू घर की गरीबी और बेहाली से तंग आकर शहर भाग आया है। यहाँ बमुश्किल जीने-खाने भर को पैसा नसीब होता है बाल श्रमिक जो ठहरा। उसे मालिक से मिलता है कल्पनातीत तिरस्कार और न सुनने योग्य गाली। आखिरकार लक्खू अपने उसी खस्ताहाल में गाँव वापस <br />
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लौट आता है। कुछ पंक्तियाँ ''बंधुआ यानी खूँटे पर बंधा जानवर, जिसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। उसके जीवन की बागडोर मालिक के हाथ में होती <br />
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है, वह जैसे चाहे उसे नचाता है'' <br />
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(पृष्ठ संख्या 57)। (वर्तमान साहित्य, जून 10, सम्पादिकानमिता सिंह)Ð<br />
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'हंस' के 'मई 10' में प्रकाशित मधु कांकरिया की कहानी 'चिड़िया ऐसे मरती है।' यह हिन्दी साहित्य में एम.ए. पास एक बेरोजगार नवयुवक और रेशमा नामक विनम्र युवती की टिपिकल प्रेम कहानी है। मधु कांकरिया विषय के परिवर्तनशील सत्य को अभिनव शब्द विन्यास में खोल देने वाली कुशल कहानी लेखिका हैं। इसमें प्रेम के गहरे, निर्मल, अनछुए एहसास को नई कथ्य शैली में जिन्दा किया गया है। प्रेम भारद्वाज की श्रेष्ठ कहानी 'शहर की मौत' की चर्चा करने के क्रम में अशोक मिश्र की कहानी 'गाँव की मौत' याद हो उठती है। एक ही समय दो मौतेंगाँव की और शहर की भी। इसमें कहानीकार की लोकपक्षधरता पूरे उफान पर है। वाक्य-दर-वाक्य मानो जोर-जोर से आवाज देकर कह रहा हो देखो मुझे, मैं वेदना की किस भूमि से उपजा हूँ, किस मिट्टी में पनपा हूँ, किन हाथों ने मुझे सींचा है। आज एक शहर में सिर्फ दो-तीन नहीं, बल्कि पाँच-सात शहर हैं। शहर में गुमनाम रहकर बहती हुई आम जिंदगी का किसी भावुक भक्त की तरह धड़कनों भरा चित्रण किया है, प्रेम भारद्वाज ने। आज भारत सरकार को अपने शिंकजे में लिए हुए अल्ट्रा पूँजीपति वर्ग कैसे अपनी अथाह उन्नति के लिए आम जिंदगी को नेस्तनाबूद करने पर तुला हुआ है, यह कहानी इस क्रूर सत्य का भंडाफोड़ करती है। (हंस, मई 10, सम्पादकराजेन्द्र यादव)Ð<br />
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सम्पादन-महज एक खानापूर्ति नहीं<br />
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वर्तमान साहित्य की सम्पादिका नमिता सिंह ने 'जून 10' अंक के सम्पादकीय में समसामयिक मुद्दों की शृंखला ही खड़ी कर दी है 1. काव्य-सृजन में अनुशासनहीन अराजकता, 2. मुम्बई में हिन्दी भाषियों का उत्पीड़न, 3. प्रेम का बाजारीकरण, <br />
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4. सामाजिक सरोकारों को स्वर देने वाली कहानियाँ। सम्पादिका इन सभी मुद्दों पर जिस साफगोई और वाजिब चिन्ता के साथ कलम उठाती हैं, वह उन्हें महज खानापूर्ति कर देने वाली सम्पादिका नहीं रहने देता। देखिए कविता पर जड़ा गया एक तमाचा ''कविताओं का इतना बुरा हाल कि गद्य और पद्य में कोई कुछ भी लिखकर डाल देता है और उसे कविता का नाम दे देता है। इस बुरे समय में सरस, अर्थवान और काव्य तत्व के साथ कोई कविता मिल जाए तो अहोभाग्य!'' (पृष्ठ संख्या 4)। (वर्तमान साहित्य-जून, 2010)Ð<br />
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'कबीर का आत्मसातीकरण' शीर्षक आलेख वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पाण्डेय का है, जो कि 'बहुवचन' के जनवरी-मार्च 10 अंक में प्रकाशित है 1. नाभादास की कृति भक्तमाल उत्तर भारत के भक्तिकाव्य का विश्वकोश है, 2. भक्तमाल की पहली टीका प्रियादास ने 1712 ई. में लिखी, <br />
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3. संस्कृत के वर्चस्व से अपनी मातृ भाषाओं की मुक्ति का मार्ग जिन कवियों ने बनाया, उनमें मराठी के संत और भक्त ज्ञानेश्वर का नाम सबसे आगे है। उपरोक्त कीमती तथ्य हम नहीं दे रहे, बल्बि भक्तिकाल के सूक्ष्मदर्शी अन्वेषक मैनेजर पाण्डेय ने उपरोक्त तथ्य अपने सुचिन्तित लेख में <br />
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दिए हैं।<br />
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नये अंक : एक रचना<br />
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1. प्रेमचन्द और नारी की यौन-शुचिता का सवाल (आलेख), अभिनव मीमांसा, अप्रैल 10, विवेक पाण्डेय।<br />
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2. हिन्दी कविता में दलित-प्रश्न, पूनम सिंह, वचन, मई 10, सम्पादक-प्रकाश त्रिपाठी।<br />
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3. संवेदनाओं का जूस (कविता), नरेश कुमार टांक, पाखी, जून 10, सम्पादक अपूर्व जोशी।<br />
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4. हिजड़ा (कहानी), सुदर्शन प्रियदर्शिनी, आधारशिला, जून 10, सम्पादक-दिवाकर भट्ट।<br />
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5. चैत की दोपहर (कविता), हरिशंकर अग्रवाल, कृति ओर, अप्रैल-जून 10, सम्पादक-रमाकांत शर्मा।<br />
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6. इन्सान के विराट का जयघोष (उपन्यास) सम्पादक, कृष्णकिशोर, अन्यथा, अंक 15, सम्पादक कृष्णकिशोर।<br />
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7. 1857 : रस्मी अध्ययनों और कथनों से परे<br />
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8. कुछ जरूरी और गहन... (आलेख) प्रदीप सक्सेना, आलोचना, अप्रैल-जून 10, सम्पादक-अरुण कमल।भरत प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/15701950336360578610noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3182288695453413836.post-31245179653897906202010-11-09T10:19:00.000+05:302010-11-09T10:19:52.242+05:30ऑंखों से अर्थ पाने की कला- भरत प्रसादवर्तमान शताब्दी में हिन्दी कविता ने यदि बहुत कुछ खोया है, तो बहुत कुछ हासिल भी किया है। कविता अब परिवर्तन के औजार की बजाय एक कला है, वह कवि की अन्त:स्फूर्त प्रकृति की बजाय एक चालाकी और सझबूझ भरी चेष्टा है, वह हृदय की उथल-पुथल से उठने वाली तीव्र तरंग नहीं, बल्कि मस्तिष्क की सायास कलाकारी है। परन्तु इसके साथ एक सच यह भी है कि हिन्दी कविता ने समकालीनता की अभूतपूर्व कमाई की है। समकाल की बहुमुखी भाषा, उस भाषा का नया से नया स्तर, समकाल का व्यावहारिक शिल्प, उस शिल्प का प्रतिक्षण परिवर्तित रूप और समकाल की विविध लयात्मकता, वह लयात्मकता जो व्यक्ति की गद्यपूर्ण बोली-बानी में ही नहीं, रोज-रोज विचलित करने वाली घटनाओं में भी होती है, स्थूल विषय के सूक्ष्म अर्थों में होती है, हमारे सोचने की शैली में भी होती है।<br />
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सत्ता, राजनीति, समाज, संस्कृति, धर्म, विज्ञान, प्रकृति इत्यादि अनगिनत क्षेत्रों और विषयों के शब्द बाढ़ के पानी की माफिक आवाजाही मचाए हुए हैं हिन्दी कविता में। इससे यह साफ जाहिर होता है कि आज का युवा कवि सचेत है अपने विस्तार लेते हुए वातावरण के प्रति। प्रतिदिन जन्म लेने वाली सूचनाओं और घटनाओं को ग्रहण करने क ेलिए उसके दोनों कान आठों दिशाओं में खुले हैं, बल्कि अब वह ऑंखों से भी तथ्य, अर्थ पीने की कला जान चुका है। आज कविता नये-नये प्रयोगों के अप्रत्याशित दौर से गुजर रही है। पैराग्राफ शैली, फुटनोट शैली, बतकही शैली ऐसे ही कुछ नये प्रयोग हैं। कविता में अन्य गद्य-विधाओं का दखल बढ़ गया है। वह अब विशुद्ध काव्य विधा कहाँ रह गई है? उसमें आजकल की घटनाएँ बिना किसी काट-छाँट या तराश के चस्पाँ हैं। बाजार, बिजनेस और प्राइवेट लाइफ में प्रयुक्त होने वाले शब्दों को बेधड़क कविता में उठाकर भर दिया जा रहा है। यदि भाषा, शिल्प, शैली और विषय-विस्तार को उपलब्धि जैसी कोई चीज माना जाए तो समकालीन युवा कविता ने उसे अवश्य हासिल किया है। परन्तु यहाँ गौर करने लायक है 'बेलिंस्की' का वाक्य, जिसको चिंतन का अनिवार्य हिस्सा बनाए बिना 21वीं सदी की हिन्दी कविता के अच्छे स्वास्थ्य की कामना नहीं की जा सकती ''कवि की सम्पूर्ण कला इस बात में निहित है कि वह पाठक को एक ऐसी दृष्टि प्रदान करे जिससे वह समूची प्रकृति को, नक्शे पर बने विश्व की भाँति, लघु आकार में, छोटी अनुकृति के रूप में देख सके। ऐसी संवेदनशीलता प्रदान करे, जिससे वह उस श्वास का अनुभव कर सके जो विश्व में व्याप्त है और वह जोत जगाए जो आत्मा को गरमाती है। कवि की कृति अगर ऊँचे मस्तिष्क तथा उत्कृष्ट भावना की देन है, यदि वह मुक्त तथा स्वत: स्फूर्त रूप में उसकी आत्मा से नि:सृत है तो वह इस ऊँचे लक्ष्य को प्राप्त करने में सदा सफल होगा।'' (बेलिंस्की : दर्शन, साहित्य और आलोचना, पृ. सं. 19)<br />
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युवा शब्द<br />
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राकेश रंजन की कुछ कविताएँ (जाग रे, मंडूक-नाद-संवाद, गती राम, खप्पर कथा...) 'आलोचना' के अक्टूबर-दिसम्बर 08 में आई हैं। राकेश रंजन अपनी कविता में रोचक लय और प्रछन्न ताल बाँधे रखने के साथ-साथ अपने लोक प्रतिबद्ध अर्थों की दूरगामी खनक भी पैदा करते हैं। मूलचेतना में लोकोन्मुख मिजाज के होते हुए भी वे अपनी कविताओं पर टिपिकल जनवाद का ठप्पा नहीं लगने देते, यही उनकी समर्थ मौलिक दृष्टि का प्रमाण है। आगे इसी अंक में शहंशाह आलम की कविता 'साइबेरियाई पक्षी'। प्रस्तुत कविता में कवि ने साइबरिया से आने वाले प्रवासी पंक्षियों का न सिर्फ स्वागत-गान किया है, बल्कि वे जिस उल्लास और गीतमय कंठ से भरे इधर आते हैं उस उल्लास को सहज भावुकता के साथ याद किया है। अभी पिछले वर्ष कोलकाता के अनशब्द प्रकाशन से शहंशाह आलम का काव्य-संग्रह 'अच्छे दिनों में उँटनियों का कोरस' भी प्रकाशित हुआ है। उनकी कविताओं में लगभग शतप्रतिशत आज की भाषा है और उस सामयिक भाषा में असंतोषजनक वर्तमान को पीट देने का उत्साह भी। उनके इस सग्रह की कविता 'हत्यारे' ऐसे रक्तपिपासु व्यक्ति के चरित्र का आख्यान है, जो प्रत्येक पीड़ित व्यक्ति की आत्मा को महसूस अवश्य होता है, किन्तु उस दर्द को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं मिलते। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित काव्य-संग्रह 'यह भूमंडल की रात है' के कवि पंकज राग की कविता आलोचना के उपरोक्त अंक में '1857 के डेढ़ सौवें वर्ष में' प्रकाशित हुई है। दरअसल यह कविता इतिहास के यथार्थ, मिथ और लोक विश्वास के त्रिकोणीय अंतर्दृंदृ में घूमती रहने वाली शोधपरक कविता है। यह कविता 1857 के विद्रोह के अमर महत्व की रक्षा तो करती ही है, साथ ही साथ उसकी आन्तरिक दुर्बलताओं को भी संकेतों में कह देने से नहीं चूकती। (आलोचना : अक्टूबर-दिसम्बर, 08, सम्पादक-अरुण कमल)<br />
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'साखी' के ताजा अंक (अप्रैल 2010 ई.) में प्रकाशित मोहन कुमार डहेरिया की की चार कविताएँ (इस घर में रहना एक कला है, नाचना इन दिनों, बहुरुपिया और जंगलों के बीच का वह हाट)। इनकी कविताओं में बौद्धिकता का अनिवार्य प्रवेश संवेदना पर लगातार भारी पड़ता हुआ उन्हें कमजोर बना देता है। इसके अलावा विषय के प्रत्येक पक्ष का सविस्तार वर्णन अर्थ के बारे में पाठक को सोचने का अवकाश बहुत कम दे पाता है। बावजूद इसके सामयिक घटनाओं को नवीन तरीके से उद्धटित करने की कलात्मक भंगिमा कविता को प्राणवंत बनाए रखती है।<br />
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'साखी' के इस अंक के साथ मुफ्त में एक काव्य-पुस्तिका भी उपहार-स्वरूप है। इस पुस्तिका के एकल युवा कवि हैं बृजराज कुमार सिंह। इनकी कुछ कविताएँ जैसे कामरेड अब तुम क्या करोगे, दुनिया घोर अशान्ति में जी रही है, एक शहर ऐसा बसाया जाय..., कवि के तल्ख, खुद्दार, तेज तर्रार किन्तु भावपूर्ण कवि हृदय का प्रमाण देती हैं। बृजराज में अन्त: अनुभूति को साहसपूर्वक प्रकट करने की प्रखरता है, उपेक्षित यथार्थ को ठोस स्वर देने का संकल्प है और जन-मन में रची-बसी आसक्ति, जिसको बचाए रखना बृजराज के हस्तक्षेपकारी कवि बनने के लिए अनिवार्य है। (साखी: अप्रैल, 10, सम्पादक-सदानंद शाही)<br />
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'नया ज्ञानोदय' के जनवरी 09 में प्रकाशित तुषार धवल की दो कविताएँ 1. मुझे भरोसा है, 2. तुम्हें फाँसी नहीं होगी। तुषार धवल अपने सृजनात्मक अनुभव में इतनी ऐंठन भर देते हैं कि वह कविता किसी अबूझ अर्थ का मॉडल बनकर रह जाती है। समकालीन हिन्दी कविता में बनावटी कलात्मकता एक दो नहीं, कई युवा कवियों के मस्तक में महामाया बनकर नाच रही है और वे तमाम दंद-फंद से लबरेज ऐसी अनोखी, अनदेखी, अज्ञात भाषा-शैली गढ़ रहे हैं कि उसका सामना पड़ने के बाद कविता का मँजा हुआ पाठक भी गश खाकर गिर पड़े और दुबारा कविता पढ़ने का दुस्साहस न करे। (नया ज्ञानोदय: जनवरी, 09, सम्पादक-रवींद्रकालिया)<br />
'प्रगतिशील वसुधा' के अक्टूबर-दिसम्बर, 07 अंक में प्रकाशित प्रेम रंजन अनिमेष की कविताएँ। प्रेम रंजन अनिमेष समकाल के प्रति छोटे-छोटे अन्तर्मुखी एहसासों को लम्बी उम्र देने का प्रयास करने वाले कवि हैं। उनकी कथन-शैली में संक्षिप्तता के बावजूद अर्थ की संकेतपूर्ण स्पष्टता है। देखें चार पंक्तियाँ कैसी दीवार उठाई है कैसे दरवाजे लगाये हैं कैसी साँकल चढ़ाई है कि आजकल ख्याल भी दस्तक देकर आते हैं... (हद) इसी अंक में शैलेय की कविता 'खबर' इनकी कविताओं में बदलाव की लोकोन्मुख बेचैनी रह-रहकर जल उठती है। जनवादी परिवर्तन देखने की यही कसक उनकी कविताओं में ऊष्मा बनकर लगातार प्रकट होती है। (प्रग. वसुधा : अक्टूबर-दिसम्बर, 09, सम्पादक-कमला प्रसाद)<br />
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'वाक्' पत्रिका के जनवरी-मार्च 10 अंक में प्रकाशित केशव तिवारी की दो कविताएँ। पहली कविता 'एक हठ यहाँ भी है।' दृष्टि को दृश्य के बहाने कहने की श्रमसाध्य कला प्रस्तुत कविता में मौजूद है। दूसरी कविता 'वो लौटें तो पूछूँ' में कवि ने अत्याधुनिक सर्वहारा की ठीक पहचान की है। उसे अब रोजी-रोटी की चिंता भयाक्रान्त नहीं करती, न ही उसमें शोषक से दो-दो हाथ करने की आग प्रज्जवलित होती है। वह पूँजीवादी संस्कृति में ऑंख-मुँह बंद कर घुल-मिल गया है। इसी वर्ष 'रॉयल पब्लिकेशन्स' से केशव तिवारी का काव्य संग्रह 'आसान नहीं विदा कहना' प्रकाशित हुआ है। पहली कविता 'आसान नहीं विदा कहना' में गहन संवेदना को दूरगामी विचार में ढालने की परिपक्व दृष्टि दिखाई देती है इसमें उनका कवि आकंठ डूबा हुआ है प्रकृति के प्रति अकथ कृतज्ञता के एहसास में। देखिए पंक्तियाँ। इस पहाड़ से विदा कहूँ जहाँ आकर वर्षों पहले खो चुकी माँ की गोद याद आ जाती है। (पृष्ठ संख्या 11) ('वाक्' : जनवरी-मार्च 10, सम्पादक-सुधीश पचौरी)<br />
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स्थापित युवा कवि और आलोचक श्री प्रकाश शुक्ल के सम्पादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'परिचय' का ताजा अंक- दिसम्बर 09। इसमें पवन करण की कविता 'गरीब देश' उल्लेखनीय है। आज ग्लोबलाइजेशन के युग में अमेरिका जैसे पँजीवादी देश अपनी आर्थिक तानाशाही का विस्तार बड़े सधे हुए सौम्य व्यवहार के साथ भारत जैसे विकासशील देशों में कर रहे हैं। प्राणघाती शोषण के इस अल्पज्ञात तरीके का पर्दाफाश यह राजनीतिक चेतना सम्पन्न कविता खुलकर करती है। एक अन्य कविता 'काले'। इसमें काले रंग के प्रति नफरत की आदिम मानसिकता को नग्न किया गया है। वस्तुत: रंगभेद भले ही राजनीतिक और संवैधानिक तौर पर दुनिया के नक्शे से मिट चुका हो, मगर श्वेत शरीर धारी 'रंगबाजों' के दिलोदिमाग से यह भेद अभी खत्म नहीं हुआ है, वरना अमेरिका के महान लोकतंत्रवादी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की हत्या का कलंक ढोने को मानव-इतिहास विवश न होता। पिछले वर्ष राजकमल प्रकाशन से पवन करण का तीसरा काव्य संग्रह 'अस्पताल के बाहर टेलीफोन' प्रकाशित हुआ। पवन करण के काव्य-शब्द देखने-सुनने में भले ही साधारण और सीधे हों, मगर उसकी अर्थधारा में एक उद्देश्यपूर्ण गंभीरता और ठहराव रहता है। वे विषय के प्रति मन में महसूस होती गुत्थियों को एक-एक कर सुलझाने में इस कदर तल्लीन नजर आते हैं मानो विषय स्वयं अपने मुँह से अपनी आत्मकथा कह रहा हो। इसी अंक मे ब्रज श्रीवास्तव की कविता 'इस दौर का एक नुमाइंदा'। यह कविता एक शिक्षित व्यक्ति के पथभ्रष्ट चित्त का मूलसूत्र है। आज के समझदार और विचारों के कानूनची आदमी के क्रूर आचरण की जितनी व्याख्या की जाए, वह थोड़ी है। आगे है 'देशज' के सम्पादक अरुण शीतांश की तीन कविताएँ। अरुण जी के पास अनुभव है, उद्विनता है, बेचैनी है और उस बेचैनी को एक रचनात्मक शिखर देने का संकल्प भी, किन्तु इस संकल्प को साकार करने की तत्वदर्शी दृष्टि दुर्बल है। 'पनघट' कविता आस-पास जमे-पसरे-बहते लोकजीवन का दृश्य है, प्रामाणिक दृश्य, मगर, महज दृश्य ही। कुछ पन्ने पलटने के बाद प्रांजल धर अपनी कविताओं के साथ उपस्थित नजर आते हैं। उनकी कविताओं में 21वीं सदी के विषय हैं, सामयिक गतिशील शब्द हैं और साहित्यिक स्तर के वाक्य। मगर इनमें हार्दिक अनुभवों की प्रगाढ़ अनौपचारिकता नहीं है और यहाँ विषय के अन्त: मर्म से एक विद्वतापूर्ण दूरी कायम है। इसीलिए शब्द अनुभूति की गहराई से निर्झर की तरह फूट निकलने वाला जल नहीं, बल्कि रुक-रुक कर खिसकने वाली बर्फ नजर आती है। परिचय के इसी अंक में 'राहुल झा' की कविता 'विद्वता'। वस्तुत: यह द्विअर्थी शब्द है। एक विद्वान कबीर हैं जिन्होंने कागज-कलम को हाथ नहीं लगाया और दूसरा विद्वान है रावण जो अपने समय में अपने ज्ञान का प्रतिद्वन्द्वी नहीं जानता था। यही रावणो विद्वता ज्ञान के चरम अहंकार का दूसरा नाम है, परन्तु कबीर की विद्वता को कैसे खारिज करेंगे? (परिचय : दिसम्बर 09, सम्पादक-श्री प्रकाश शुक्ल)<br />
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'समकालीन भारतीय साहित्य' के अंक जनवरी-फरवरी, 10 में प्रकाशित राहुल राजेश की कविताएँ 'कोलकाता में प्रेम', 'आज इस तरह', 'मीता के लिए'। राहुल राजेश की दृष्टि लोक जीवन और प्रकट प्रकृति के प्रति उत्साह से भरी है और उसको धड़कते वाक्यों में जिंदा भी करती है, किन्तु उसमें निर्णायक दूरगामिता का अभाव है। वह अभी जीवन की रंगीनियत के साथ आमोद-प्रमोद एवं उछाह के खेल खेलते रहने में ही परम संतोष का अनुभव करती है। आगे हैं परितोष चक्रवर्ती की दो कविताएँ 1. घर की जड़ों पर 2. उम्र को नदियों की तरह देखना। दोनों कविताओं में परितोष ने अपने अनुभव की परिपक्वता को अर्थपूर्ण कविता के ढाँचे में फिट करने का प्रयास किया है, किन्तु ऊँची और स्पष्ट दृष्टि के अभाव में शब्द महज रहस्यमय सार्थकता का भ्रमजाल बुनकर रह जाते हैं। (सम. भार. साहित्य : जनवरी-फरवरी 10, सम्पादक-ब्रजेंद्र त्रिपाठी)<br />
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'शेष' पत्रिका के अप्रैल-जून 10 अंक में प्रकाशित रंजना जायसवाल की कविता 'ऐसे समय में भी'। यह कविता गोरखपुर शहर के सम्मानित कथाकार बादशाह हुसैन रिंजवी की सदाशय प्रकृति और मैत्रीपूर्ण स्वभाव पर केन्द्रित है। आज दहशत और अविश्वास के इतने धुमैले वातावरण के बावजूद 'मुसलमान' शब्द आतंक या साम्प्रदायिकता का पर्याय नहीं है, जैसा कि भारत में भारत के बाहर इस शब्द को इसी रूप में प्रचारित किया जाता है। रिजवी को व्यक्ति से व्यक्तित्व के रूप में तराशना और मुसलमान के बारे में कट्टर हिन्दुओं की मानसिकता पर चोट करना कविता की मूल चिंता में शामिल है। ठीक-ठीक पिछले वर्ष रंजना जायसवाल का नया-चौथा काव्य संग्रह 'जब मैं स्त्री हूँ' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। कहना जरूरी है कि रंजना जी की काव्यवेदना के दो छोर हैं एक हाशिए पर गुमनाम रहकर जीती अपमानित स्त्री और दूसरी ओर ग्रामांचल की जमीनी प्रकृति। स्त्री को सिर्फ स्त्री की ऑंखों से देखना हिन्दी में बहुत कम कवियों को पता है। किसी के लिए वह चटपटे विमर्श का मसाला है, किसी के लिए हाथ-पैर सेंकने वाला अलाव तो किसी के लिए दो-दो हाथ आजमाने वाला एजेंडा, परन्तु रंजना अपनी स्त्री को महज एजेंडा बनने से बचा लेती हैं और उसके हृदय में पैठ लगाकर एक-दो नहीं दर्जनों मुख से अलग-अलग स्वरों में बोलती हैं। पूरे विश्वास, प्रतिबद्धता और प्रखरता के साथ। ('शेष' : अप्रैल-जून, 10, सम्पादक-हसन जमाल, कविता प्रमाणित करती है...)<br />
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हिमाचल प्रदेश के युवा सर्जक सुरेश सेन निशांत। निशांत जी का संग्रह अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित होकर हिन्दी पाठकों के समक्ष आया है। शीर्षक है 'वे जो लकड़हारे नहीं हैं।' निशांत जी की काव्य-प्रकृति में एक बेचैन-विनम्र करुणा है खेती-किसानी के प्रति, बचपन, बुढ़ापे के प्रति, गुमनाम-उपेक्षित के प्रति। बेखास को खास बनाने की गहरी जिद उनकी काव्य-प्रकृति का अनिवार्य हिस्सा है, जिसे वे अपनी धड़कनों से दूर नहीं रखना चाहते। उदाहरण के लिए उठा लीजिए उनकी कविता 'मुड़ा-तुड़ा नोट'। इसमें कवि ने लगभग बेकार हो चुके एक रुपये के मुड़े-तुड़े नोट को असीम बना दिया है। याद करें अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने क्या कहा था 'मेहनत से कमाए गए पाँच डालर का मूल्य बिना परिश्रम के कमाए गये 500 डालर से भी अधिक कीमती है।' देखिए कविता की कुछ पंक्तियाँ वह मुड़ा-तुड़ा नोट एक रुपये का अब भी है मेरे बचपन की स्मृतियों की जेब में सुरक्षित वह मुड़ा-तुड़ा नोट जिसमें गंध थी रची-बसी माँ के पसीने की जिसमें क्षमता थी इतनी लड़ सकती थी माँ अपने बुरे दिनों से। (पृष्ठ संख्या 12)<br />
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'बन्द टाकीज' काव्य-संग्रह (कवि: विजय सिंह) की पहली कविता है 'सीरासार चौक'। आज तकरीबन प्रत्येक शहर में ऐतिहासिक मूल्य रखने वाला कोई सार्वजनिक स्थल होता है, परन्तु आज का शहराती बाबू उसके बहुमूल्य महत्व से विमुख होकर जीता ही जा रहा है। कवि ने अपनी प्रस्तुत कविता में इसी तकलीफ को सीधा-सादा शब्द दिया है। वरिष्ठ कवि प्रेमशंकर रघुबंशी की पंक्तियाँ इनकी कविता पर गौर तलब हैं ''विजय की कविताएँ देखने में छोटी लगती हैं, लेकिन वे जगदलपुर की प्रकृति और परिवेश की पट-कथाओं के अनेकानेक संकेत-सूत्र संजोए अनायास ही एक प्रकार के नये शिल्प के साथ सौंदर्य का नया विन्यास पेश करती हैं।'' (भूमिका)<br />
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जीवन दृष्टि की सधी हुई कलात्मकता एक और संग्रह 'पृथ्वी पर एक जगह' (शिरीष कुमार मौर्य, शिल्पायन प्रकाशन दिल्ली) की कविताओं में मुखर है। शिरीष विषय में 'वस्तु' के कवि हैं, 'वर्णन' के नहीं अर्थ के शब्दकार हैं। अर्थ बुनने की इस कला का एक लाभ यह भी होता है कि कवि शब्दों का गैर जरूरी बिखराव करने से बच जाता है जो कि आज के 90 प्रतिशत युवा कवियों का पसंदीदा तरीका बन चुका है। संग्रह की एक अन्य कविता है 'गिद्ध'। गिद्ध हमारे बीच किसका प्रतीक है यह किसी को बताने की आवश्यकता नहीं। इस कविता की ताकत गिद्ध के चरित्र में छिपी वह 'बात' है जो हमारे ही बीच के किसी आदमी के भीतर जन्म लेती है। ये पंक्तियाँ इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं दुनिया भर के दरिन्दों-परिन्दों में उनकी छवि सबसे घिनौनी थी किसी को भी डरा सकते थे उनके झुर्रीदार चेहरे वे रक्त सूँघ सकते थे नोंच सकते थे कितनी ही मोटी खाल माँस ही नहीं हड्डियों तक तोड़कर वे निगल जाते थे। (पृष्ठ संख्या 30)<br />
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उत्तराखण्ड से उभरते हुए युवा कवि महेश चन्द्र पुनेठा का काव्य-संग्रह 'भय अतल में'। अडिग रहना कीमती परिवर्तन की उम्मीद बचाए रखना है अविचल होना जिंदा होना है। अनम्य होना सत्य की बेपनाह इज्जत करना है। पुनेठा जी की कविता 'अस्तित्व और सुन्दरता' इसी अर्थ को शब्द देती है। यदि कवि को काल के अदृश्य चक्रवात में विलीन होने से अपनी कलम को बचाना है तो दृश्य, बिम्ब, चित्र और घटना के भीतर उतर कर अर्थ के स्थाई सूत्रों की खोज करनी ही पड़ेगी।<br />
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उत्तर प्रदेश के पूर्वी अंचल के युवा कवि वेदप्रकाश में समकालीन जिंदगी की भाग-दौड़ का पुरुता अनुभव तो है, परन्तु उस अनुभव को मार्मिक कला में ढालने की अन्तर्दष्टि आनी बाकी है। एक तरह से कहें तो उनकी प्रतिभा की ऑंखें ढंग से नहीं खुल पाई हैं। इसीलिए अनुभवों का विस्तार चित्रों का एक समूह बनकर रह जाता है वह अन्तस्थल में बहुत देर तक हलचल नहीं पैदा कर पाता। इसी वर्ष कवि का संग्रह 'एक उपकथा' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है, जो कवि के उत्तरोत्तर आत्म-विकास का प्रमाण से देता है।<br />
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युवा कवि : एक कविता<br />
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1. विष नहीं मार सकता था हमें, अशोक कुमार पांडेय : परिंदे मार्च-मई, 10, सम्पादक - राघवचेतन राव।<br />
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2. नई तमीज, शैलेन्द्र : सबके दावेदार, फरवरी 10, सम्पादक - लालसा लाल तरंग।<br />
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3. घर नहीं बदल रहे हैं वे, विवेक गुप्ता, गुंजन, मई 10, सम्पादक - जितेन्द्र चौहान।<br />
<br />
4. कट हुए द्वीप, दिनकर कुमार, प्रगति. वसुधा, अक्टूबर-दिसम्बर 09, सम्पादक - कमला प्रसाद।<br />
<br />
5. गदहों पर कुछ पंक्तियाँ, शुभेश कर्ण, संवदिया, अक्टूबर-दिसम्बर 09, सम्पादक - अनीता पंडित।<br />
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6. उलट बाँसी है यह..., संजय कुमार सिंह, संवदिया, जनवरी-मार्च 09, सम्पादक - उपरोक्त।<br />
<br />
7. यह सच है, सुशांत सुप्रिय, दस्तावेज, जुलाई-सितम्बर 09, सम्पादक - विश्वनाथ प्रताप तिवारी।<br />
<br />
8. सृजन उत्सव, प्रताप राव कदम, परिकथा, मार्च-अप्रैल 10, सम्पादक- शंकर।<br />
<br />
9. भाई भगवान, प्रमोद कुमार तिवारी, आलोचना, जनवरी-मार्च 10, सम्पादक - अरुण कमल।<br />
<br />
10. मांस के झंडे, अंशु मालवीय, युवा संवाद, अगस्त 09, सम्पादक - ए.के. अरुण।<br />
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11. 'दृष्टिपथ', मनोज कुमार झा, पाखी, मार्च 09, सम्पादक - अपूर्व जोशी।भरत प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/15701950336360578610noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3182288695453413836.post-59953551335609063942010-11-08T16:00:00.000+05:302010-11-08T16:00:14.452+05:30परिकथा के युवा कविता विशेषांक मई-जून 2010 में प्रकाशित भरत प्रसाद की तीन कविताएं<strong><span style="color: red;">भरत प्रसाद</span></strong><br />
जन्म : 1980, संत कबीर नगर (उ.प्र.), शिक्षा : जे.एन.यू. से हिन्दी में एम.ए. व एम. फिल<br />
प्रकाशन : अब तक अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, आलोचना आदि प्रकाशित<br />
और फिर एक दिन (कहानी संग्रह), एक पेड़ की आत्मकथा (काव्य संग्रह) <br />
सहित कुछ और पुस्तकें प्रकाशित<br />
संप्रति : पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय (शिलांग) में हिन्दी के सहायक प्रोफेसर पद पर कार्यरत<br />
संपर्क, हिन्दी विभाग, पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग, मो. 09863076138<br />
<br />
<strong><span style="color: #4c1130;"><a href="http://www.parikathahindi.com/">परिकथा के युवा कविता विशेषांक मई-जून 2010</a> में प्रकाशित तीन कविताएं</span></strong> <br />
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<strong><span style="color: red;">1) पीठ पर भविष्य ढोता बच्चा</span></strong><br />
<br />
<br />
<br />
कल्पना से बहुत दूर जा चुके बचपन को<br />
<br />
फिर से जी लेने की कल्पना अभी जीवित है उसमें<br />
<br />
यह बचपन ही तो है<br />
<br />
जो अंग-अंग में धंसे हुए दुर्भाग्य से<br />
<br />
अनजान रखता है उसे<br />
<br />
<br />
<br />
इस बचपन के सिवा और कौन-सी उम्र है?<br />
<br />
जिसमें वह अपने आदमी होने पर यकीन कर सके<br />
<br />
पेट की अगिन जिसकी झोंक में इंसान काठ हो जाता है<br />
<br />
निर्जीव पुतला बन जाता है<br />
<br />
इसने न जाने कैसे लड़-लड़कर जीत लिया है उसे<br />
<br />
उसकी कोमल ऑंखों में झाँक कर देखना जरूर<br />
<br />
वहाँ सूना रेगिस्तान नजर आएगा<br />
<br />
सूखा हुआ दरिया दिखाई देगा<br />
<br />
और दिखाई देंगी मरी हुई तमाम हसरतें<br />
<br />
जो होश संभालने के बाद कभी पूरी ही नहीं हुईं<br />
<br />
पागल बना देने वाली बदबू के मारे<br />
<br />
जहाँ किसी का एक पल भी रुकना मुश्किल हो जाए<br />
<br />
वहाँ वह लावारिस जानवर की तरह<br />
<br />
भटकता हुआ मिल जाता है<br />
<br />
वहाँ होगा औरों के लिए दर-नरक<br />
<br />
उसे तो अपनी मुक्ति सिर्फ यहीं नजर आती है<br />
<br />
किधर से भी कूड़े की नई बास मिलते ही<br />
<br />
उसकी पुतलियाँ खुशी के मारे नाचने लगती हैं<br />
<br />
सैकड़ों तरह से बस्साते<br />
<br />
कूड़े के जंगल में जब वह धंसता है<br />
<br />
तब उसमें वह चलती-फिरती लाश नजर आता है<br />
<br />
कैसा भी तिरस्कार उसे तोड़ ही नहीं सकता<br />
<br />
जमाने की बेइज्जती को जैसे वह दाएँ-बाएँ का खेल समझता हो<br />
<br />
अपमान की कठिन से कठिन मार का<br />
<br />
उस पर कोई असर ही नहीं पड़ता<br />
<br />
उसकी आत्मा चोट सहने की इतनी अभ्यस्तहै<br />
<br />
कि प्रताड़ित होने का उसके लिए कोई अर्थ ही नहीं<br />
<br />
यातना को चुपचाप पी जाने में उसे गंजब की सिद्धि हासिल है<br />
<br />
यकीन मानें<br />
<br />
उसके मानस में चौबीसों घण्टे दीनता का आसमान झरता है<br />
<br />
हताशा की काली ऑंधियाँ घहरती हैं<br />
<br />
धू-धू कर जलती है उसकी उमंग<br />
<br />
और खण्ड-खण्ड उड़ जाती है उसके जीने की ललक<br />
<br />
वह दृश्य देख पाना किसी के लिए भी मुश्किल है<br />
<br />
जब वह तन्हाई के क्षणों में अपनी माँ को याद करता है<br />
<br />
या फिर<br />
<br />
भूख से पछाड़ खाकर नि:शब्द रोता है<br />
<br />
उसके बारे में उससे कभी मत पूछना<br />
<br />
क्या दुख और क्या सुख?<br />
<br />
वह ढंग से महसूस ही नहीं कर सकता<br />
<br />
कुछ बोलता है तो चमड़ी काँपने लगती है<br />
<br />
चेहरा धुँआ-धुँआ हो जाता है<br />
<br />
निगाहें रोने लगती हैं<br />
<br />
कैसे कहूँ कि<br />
<br />
इंसान की तरह विश्वासपूर्वक बोलना<br />
<br />
उसने कभी जाना ही नहीं<br />
<br />
उसकी पीड़ा ही कुछ इस कदर है<br />
<br />
कि उसे अब कोई पीड़ा नहीं होती<br />
<br />
बेरहमी से रौंदा गया पौधा वह<br />
<br />
अपनी पीठ पर इंसानियत का भविष्य ढोता है<br />
<br />
<br />
<br />
<strong><span style="color: red;">2) प्रतिरोध</span></strong><br />
<br />
('वे इसलिए मरे क्योंकि उन्होंने अपने शत्रुओं का साथ नहीं दिया। वे इसलिए मरे क्योंकि वे अपने पड़ोसियों से प्यार करते थे। उनका दोष यही था न कि उन्होंने मानवता पर विश्वास किया। उनकी मौत का कारण यही था कि उन्होंने अत्याचारों पर अत्याचार नहीं किए।')<br />
<br />
(खलील जिब्रान)<br />
<br />
<br />
जब फुफकारती हुई मायावी सत्ता का आतंक<br />
<br />
जहर के मानिन्द हमारी शिराओं में बहने लगे<br />
<br />
जब झूठ की ताकत, सच के नामोनिशान मिटाकर<br />
<br />
हमारी आत्मा पर घटाटोप की तरह छा जाए<br />
<br />
जब हमारी जुबान-फिजाओं में उड़ती दहशत की सनसनी से<br />
<br />
गूँगी हो जाए<br />
<br />
जब हमारा मस्तक सैकड़ों दिशाओं में मौजूद तानाशाही की माया से<br />
<br />
झुकते ही चले जाने का रोगी बन जाए<br />
<br />
तो प्रतिरोध अनिवार्य है<br />
<br />
अनिवार्य है वह आग जिसे इंकार करते हैं<br />
<br />
बेबसी वह जंजीर है जो हमें मुर्दा बना देती है<br />
<br />
विक्षिप्त कर देती है वह पराजय<br />
<br />
जो दिन-रात चमड़ी के नीचे धिक्कार बनकर टीसती है<br />
<br />
गुलामी का अर्थ<br />
<br />
अपने वजूद को गिरवी रखना भर नहीं है<br />
<br />
न ही<br />
<br />
अपनी आत्मा को बेमौत मार डालना है<br />
<br />
बल्कि उसका अर्थ<br />
<br />
अपनी कल्पना को अंधा बना देना भी है<br />
<br />
अपने इंसान होने का मान यदि रखना है<br />
<br />
तो ऑंखें मूँदकर कभी पीछे-पीछे मत चलना<br />
<br />
हाँ, हाँ की आदत अर्थहीन कर देती है हमें<br />
<br />
जी, जी कहते-कहते एक दिन नपुंसक हो जाते हैं हम<br />
<br />
तनकर खड़ा न होने की कायरता<br />
<br />
एक दिन हमें जमीन पर रेंगने वाला कीड़ा बना देती है<br />
<br />
जरा देखो! कहीं अवसरवादी घुटनों में घुन तो नहीं लग गए हैं?<br />
<br />
पंजों की हड्डियाँ कहीं खोखली तो नहीं हो गई हैं?<br />
<br />
हर वक्त झुके रहने से<br />
<br />
रीढ़ की हड्डी गलने तो नहीं लगी है?<br />
<br />
पसलियाँ चलते-फिरते ढाँचे में तब्दील तो नहीं होने लगी हैं?<br />
<br />
जरा सोचो!<br />
<br />
दोनों ऑंखें कहीं अपनी जगह से पलायन तो नहीं करने लगी हैं?<br />
<br />
अपमान की चोट सहकर जीने का दर्द<br />
<br />
पूछना उस आदमी से<br />
<br />
जो अपराध तो क्या, अन्याय तो क्या<br />
<br />
सूई की नोंक के बराबर भी झूठ बोलते समय<br />
<br />
रोवां-रोवां काँपता है<br />
<br />
याद रखना<br />
<br />
आज भी जालसाज की प्रभुसत्ता<br />
<br />
सच्चाई के सीने पर चढ़कर उसकी गर्दन तोड़ते हुए<br />
<br />
खूनी विजय का नृत्य करती है<br />
<br />
आज भी ऐय्याश षडयन्त्र के गलियारे में<br />
<br />
काटकर फेंक दी गई ईमानदारी की आत्मा<br />
<br />
मरने से पहले सौ-सौ ऑंसू रोती है<br />
<br />
अपनी भूख मिटाने के लिए<br />
<br />
न्याय को बेच-बाचकर खा जाने वाले व्यापारी<br />
<br />
फैसले की कुर्सी पर पूजे जाते हैं<br />
<br />
आज भी<br />
<br />
आज का आदमी<br />
<br />
उन्नति के बरगद पर क्यों उल्टा लटका नजर आता है?<br />
<br />
आज दहकते हुए वर्तमान के सामने<br />
<br />
उसका साहसिक सीना नहीं<br />
<br />
सिकुड़ी हुई पीठ नजर आती है<br />
<br />
आज हम सबने अपने-अपने सुरक्षित बिल ढूँढ़ लिए हैं<br />
<br />
जमाने की हकीकत से भागकर छिपने के लिए<br />
<br />
इसके पहले कि तुम्हारे जीवन में<br />
<br />
चौबीस घण्टे की रात होने लगे<br />
<br />
रोक दो मौजूदा समय का तानाशाह पहिया<br />
<br />
मोड़ दो वह अन्धी राह<br />
<br />
जो तुम्हें गुमनामी के पागलखाने के सिवाय<br />
<br />
और कहीं नहीं ले जाती<br />
<br />
फिजां में खींच दो न बंधु!<br />
<br />
इनकार की लकीर<br />
<br />
आज तनिक लहरा दो न!<br />
<br />
'ना' कहने वाला मस्तक<br />
<br />
बर्फ की तरह निर्जीव रहकर<br />
<br />
सब कुछ चुपचाप सह जाने का वक्त<br />
<br />
नहीं है यह!<br />
<br />
<br />
<br />
<strong><span style="color: red;">3) रेड लाइट एरिया</span></strong><br />
<br />
<br />
<br />
यहाँ दिन में कभी दिन नहीं होता<br />
<br />
चौगुनी रात रहती है<br />
<br />
जिधर सूरज की रोशनी-<br />
<br />
सिर्फ इच्छा में संभव है<br />
<br />
जहाँ के मौसम में हमेशा<br />
<br />
पतन की ंखौफनाक बदबू उड़ती है<br />
<br />
<br />
<br />
यह वही श्मशान है<br />
<br />
जहाँ वासना की जिंदा लाशें<br />
<br />
हवस का नृत्य करती हैं<br />
<br />
जिसकी दिशाओं से दमन की गूँज उठती है<br />
<br />
जिसकी हवाओं में बदनाम आत्माओं की चीखें सुनाई देती हैं<br />
<br />
<br />
<br />
यहाँ आते ही औरत की सारी परिभाषाएँ उलट जाती हैं<br />
<br />
वह न तो बहन है, न बेटी<br />
<br />
न ही किसी की पत्नी<br />
<br />
माँ कहलाने की गलती वह सपने में भी न करे<br />
<br />
यहाँ वह औरत भी कहाँ रह जाती है?<br />
<br />
वह तो बस<br />
<br />
प्रतिदिन परोसी जाने वाली थाली है<br />
<br />
या फिर कोई मैली झील<br />
<br />
जो सिर्फ जानवरों की प्यास बुझाने के काम आती है<br />
<br />
<br />
<br />
शरीर पर जख्म चाहे जितने भी गहरे हों<br />
<br />
गिने जा सकते हैं<br />
<br />
परन्तु हृदय के जख्मों की गिनती कैसे कीजाए?<br />
<br />
ऐसे घावों के इलाज के लिए<br />
<br />
कोई दवा ही नहीं बनी आज तक<br />
<br />
किसी लावारिस खिलौने की तरह<br />
<br />
उससे इस तरह खेला जाता है<br />
<br />
कि उसको चाहे जितनी बार जमीन पर फेंको<br />
<br />
कोई आवाज ही नहीं आती<br />
<br />
यकीनन, उसके भीतर से<br />
<br />
आत्मा का नामोनिशान मिट चुका है<br />
<br />
अपनी इच्छा के लिए उसमें अब कोई जगहनहीं<br />
<br />
सपने देखना तो जीवन भर के लिए प्रतिबन्धित है<br />
<br />
आजादी का हक उसे मरने के बाद सम्भव है<br />
<br />
और तो और<br />
<br />
अपने एहसास पर भी उसका कोई अधिकारनहीं<br />
<br />
हाँ, उसको यदि कोई छूट है<br />
<br />
तो बस गुमनाम रहकर<br />
<br />
चुपचाप जमीन में दफन हो जाने की<br />
<br />
पृथ्वी पर जीने की एक शर्त<br />
<br />
यदि हलाहल नफरत को पी जाना हो<br />
<br />
तो वह सबसे पहले इसी पर लागू होती है<br />
<br />
बंजर इससे कहीं ज्यादा उपजाऊ है<br />
<br />
तिनका इससे कहीं ज्यादा मजबूत<br />
<br />
आदमी दुर्गन्ध से भी इतनी घृणा नहीं करता<br />
<br />
उम्र कैदी की आत्मा भी इतना विलाप नहींकरती<br />
<br />
मैं और क्या कहूँ?<br />
<br />
कोई निर्जीव वस्तु भी इतनी जड़ कहाँ होतीहै?<br />
<br />
इसके बावजूद<br />
<br />
उसमें औरत की तरह जीने की बेचैनी अभी बाकी है<br />
<br />
बाकी है सलाखें तोड़कर निकल भागने की हसरत<br />
<br />
अपनी भस्म पर फसल लहलहाने की हिम्मत अभी बाकी है<br />
<br />
कोई देखे जरा<br />
<br />
सब कुछ लुट जाने के बावजूद<br />
<br />
उसकी ऑंखों में अभी कितना पानी शेष है<br />
<br />
यकीन नहीं होता कि<br />
<br />
वह अब भी हँस सकती है<br />
<br />
रो सकती है, नाच सकती है, खुश हो सकतीहै<br />
<br />
सबसे आश्चर्यजनक यह कि<br />
<br />
वह अभी भी प्यार कर सकती है<br />
<br />
खैर मनाइए<br />
<br />
आपके आदमी होने से अभी भी उसका विश्वास उठा नहीं है<br />
*गवाह है पंक्तियाँ<br />
<br />
''मुश्किल से 15 वर्ष की माया एक दुधमुंहे बच्चे की माँ है। मुम्बई के रेडलाइट एरिया में धन्धा कर रही माया पहले तो कुछ महीने के अपने बच्चे को नशा देकर वहीं कोठरी में अपनी चारपाई के नीचे रखती थी... 10 साल की माया को उसकी चाची ने गोरखपुर में 3000 रुपये में बेच दिया था। जब माया ने धन्धे के लिए 'न' कह दिया तो उसकी जमकर धुनाई की गई और पीड़ा पहुँचाने के लिए उसके ऊपर साँप फेंके गए...।''<br />
कविताओं को परिकथा के युवा कविता अंक में <a href="http://www.parikathahindi.com/">http://www.parikathahindi.com/</a> यहां जाकर भी पढ़ सकते हैं ।भरत प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/15701950336360578610noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3182288695453413836.post-19169635263613976552010-05-11T16:54:00.002+05:302010-05-11T16:54:48.098+05:30साहित्य में स्वप्न की ऐतिहासिक भूमिका भरत प्रसाद21 वीं सदी में विकासशील हिन्दी साहित्य के मौजूदा चरित्र और व्यवहार को देखते हुए एक स्पष्ट तस्वीर उभरने लगी है कि उसका आगामी उत्थान और व्यक्तित्व कैसा होगा। इस समय साहित्य में एक ओर नव-जनवाद है, तो दूसरी तरफ मारे जोश, अहंकार और प्रभुता में निर्लज्ज होकर नाचता खालिस कलावाद। इस कलावाद में चमकती हुई नाटकीय भाषा का खेल है, विषय के स्वाभाविक स्वरूप को ऐंठ-वैंठ कर बदरूप और अविश्वसनीय बना देने का गुर है और सृजन की विधा के किसी भी पूर्व-प्रचलित, पूर्व-स्थापित ढाँचे में एक सिरे से तोड़-फोड़ पैदा कर उसे अपनी खिलंदड़ी, स्वच्छन्द महत्वाकांक्षा के मुताबिक फिर से रच डालने की बहकी<br />
हुई जिद।<br />
यहाँ धरातल पर प्रतिदिन अपने मामूली अस्तित्व के लिए हैरान-परेशान, आम आदमी की जिन्दा दुश्वारियाँ स्वर पाती हैं, यहाँ वर्तमान संघर्ष के अविश्वसनीय सच को आश्रय मिलता है। यहाँ लोक-सर्जक कागज पर कलम उठाते ही ऑंखों में चक्रवात की भाँति उठते आम दु:ख से एकाकार होने लगता है।<br />
आज जिम्मेदार से जिम्मेदार लेखक की जुबान अति-प्रशंसा के आवेश में उनके प्रति ही खुल रही है जो पुरस्कारबाज हैं, जो जीवन की जद्दोजहद रचने का विशुद्ध नाटक करते हैं, जो पन्ने-दर-पन्ने पर सिर्फ बनावटी, गैर वास्तविक लोक वेदना के ऑंसू बहाते हैं। जिनके मजे हुए व्यावसायिक हृदय में समय के केन्द्रीय संघर्षों, दु:खों और व्यापक पराजयों को उद्दाम स्वर देने का रत्ती भर भी संकल्प शेष नहीं बचा है। बार-बार दुहराने की जरूरत नहीं कि अपने समय, समाज और संस्कृति के जमीनी सरोकारों से सर्वाधिक कटा हुआ साहित्य आज केन्द्र में आने को बेचैन है, इन दिनों जिस सर्जक के भीतर समकालीन मुद्दों से सीधे टकराने, जूझने, संवाद करने का खुद्दार जज्बा है, उनको ईश्वरनुमा सम्पादक भाव नहीं देते और उनकी रचनाओं को सपाट, भावुक, गैर व्यवहारिक करार देकर मेज के नीचे मुँह बायी रद्दी टोकरी के हवाले कर देते हैं। खुलेआम कहें तो सीधी, सच्ची और खरी बात कह देने वाली रचनाओं को गैर-साहित्यिक घोषित कर देने का मानो आज षडयन्त्रकारी अभियान ही चल पड़ा है और सिर पीटकर, मुट्ठी बाँधते हुए, तनकर खड़े हो जाने के लिए विवश कर देने वाला आश्चर्य यह कि इस दागी और गैर जिम्मेदार अभियान में कवि, कथाकार, आलोचक और सम्पादक बढ़-चढ़कर शामिल हैं।<br />
इन समस्त मायावी आकर्षणों, चमत्कारों और दिग्भ्रमित कर देने वाले शब्द जालों के बावजूद सृजन और सर्जक के उम्र की शर्त क्या है, इसे जर्मन नाटककार और कवि 'बेर्टोल्ट ब्रेष्ट' की इन पंक्तियों से बूझिए<br />
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>और मैं हमेशा सोचता था<br />
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>एकदम सीधे-सादे शब्द ही पर्याप्त होने चाहिए<br />
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मैं जब कहूँ कि चीजों की असलियत क्या है<br />
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>प्रत्येक का दिल छलनी हो जाना चाहिए<br />
कि धँस जाओगे मिट्टी में एक दिन<br />
यदि खुद नहीं खड़े हुए तुम<br />
सचमुच तुम देखना एक दिन<br />
(1953-56 ई.)Ð<br />
<br />
काश! कविता रोटी बन सकती<br />
'वर्तमान साहित्य' के फरवरी- 2010 अंक में प्रतिष्ठित कवि एकान्त श्रीवास्तव की छ: कविताएँ। लगभग सभी कविताओं के वाक्य-दर-वाक्य में लोक जीवन के ठेठ यथार्थ के भीतर धँसे रहने की आकांक्षा झलकती है। एकान्त जी की लोक-वेदना में समकालीन सृजन की स्वीकार्य कलात्मकता का घुमाव है और चित्त को सहज लगने वाले अर्थों की समुचित गरिमा कायम रखने का विवेक भी। इसी अंक में 'स्नेह सुधा' की कविता 'फर्क नहीं पड़ता'। इसमें कवयित्री ने आपबीती कटुता का बयान बिना किसी हिचक और लाग-लपेट के किया है। आत्मसत्य बयाँ करने के लिए तथाकथित कलात्मकता को इंकार करने वाली कलात्मकता यही है (वर्तमान साहित्य : फरवरी 2010)Ð<br />
'कथन' के 'जनवरी-मार्च 10' अंक में प्रकाशित युवा कवि अरुण आदित्य की तीन कविताएँ। पहली कविता 'ऐसी एक कविता' शीर्षक से। वस्तुत: बड़ी से बड़ी कविता किसी के मुँह की रोटी नहीं बन सकती, विकलांग की वैशाखी नहीं हो सकती, मृतक को जिंदा नहीं कर सकती। मगर कविता की सर्वश्रेष्ठ महत्ता ऐसे ही असम्भव कार्य को हूबहू कर दिखाने में ही है। व्यावहारिक जगत में यदि वह किसी के गहरे जख्म की टीस कम न कर सके, यदि किसी लाचार के ऑंसू न कम कर सके, यदि निराशा के खण्डहर में भयाक्रांत होकर जीते इंसान की साँसों की ताकत न बन सके, तो वह कविता किस काम की? अरुण आदित्य की कविता में कुछ ऐसा ही दुर्लभ महत उद्देश्य प्रकट हुआ है (कथन : जनवरी-मार्च 10)Ð<br />
'पाखी' के फरवरी 10 अंक में पाणिनी आनन्द की कविता 'बस, एक बार'। अभिव्यक्ति की जज्बाती और निर्भीकतापूर्ण शैली में कवि ने समय के तात्कालिक यथार्थ का पोस्टमार्टम किया है। वह यथार्थ जो सर्वव्यापी सत्य है, मगर हमारे जिगर में इतनी ताकत नहीं कि सीधे-सीधे उस सच से ऑंखें मिला सके और उस भयावह सच के प्रति चिंतन करने को अपने मूल संस्कार का हिस्सा बना सकें। गौर करें इन पंक्तियों पर बस, एक बार ही सही पर उस रोटी को तो देखें जिसे सुअर भी नहीं खाते, पर इंसानों की एक नस्ल उसी पर जिंदा है (पृ. संख्या 76), (पाखी : फरवरी 10)Ð<br />
'परिकथा' के नवलेखन अंक 10 में प्रकाशित दिलीप शाक्य की कविता 'हमारी आग' में अपने मौलिक मानवीय अधिकार छिनते जाने और उसे पुन: हासिल करने का अखण्ड संकल्प है, वहीं कुमार की कविता 'वार्ताओं की मेज' में आजकल के लोक-कल्याणकारी योजनाओं की घृणित और कायर सच्चाई से पर्दा उठाया गया है। प्रभाकर सिंह अपनी कविता 'सभ्यता-समीक्षा' में समय की भयावह सर्वशक्तिमानता का रहस्य खोलते हैं, और आम जनमानस की भयाक्रांत दशा का चित्रण पेश करते हैं। सुजीत कुमार सिंह अपनी लम्बी, मगर स्मरणीय अर्थों से पूर्ण कविता 'यह आजमगढ़ है' में अटूट कथात्मक सूत्र के सहारे अतीत, वर्तमान, इतिहास, परिवार, साहित्य और श्रमिक सबको इस कदर फेंट देते हैं कि अंत तक विकसित होते-होते कविता उत्तर प्रदेशीय भारत का वास्तविक चेहरा बन जाती है। संतोष श्रेयंस की कविता 'मृगतृष्णा' आज के असहाय मनुष्य के आत्मसत्य का प्रकाशन है। वेदिमित्र शुक्ल ने अपनी एकहरी कविता 'गाँधी जयन्ती मनाई गोडसों ने' में एक नहीं, कई गोडसों के पैदा होने का रहस्य खोला है। आज की राजनीति गोडसे बापू के हत्यारे से कहीं अधिक खतरनाक है, क्योंकि वह गांधी के पुनर्जन्म को बर्दाश्त नहीं कर सकता, हाँ, वह हर वर्ष गांधी की जयन्ती अवश्य मनाता है। इसी प्रकार प्रियोवती निड.व्थौजा ने 'इन्तजार' कविता में, मंजू श्री ने 'बूढ़ा वृक्ष और आदमी' कविता में, अनार सिंह वर्मा ने 'प्रेम करने के दिन' कविता में समकालीन मनुष्य के अन्त: बाह्य यथार्थ को प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत किया है (परिकथा : जनवरी-फरवरी 10)Ð<br />
'अभिनव कदम' के अंक 21 में युवा कवि केशव तिवारी की कविता 'बिसेसर'। जाति, धर्म, सम्प्रदाय के बहाने खाँटी अवसरवाद की राजनीति खेलने वाली सत्ता के मायाजाल में बिसेसर जैसा अनपढ़ सरल हिन्दुस्तानी कैसे अपनी भावुकता और सिधाई के कारण ठगा-चूसा जाता है इस दर हकीकत का खुलासा केशव तिवारी ने सीधे प्रवाह के अंदाज मे किया है। इसी अंक में शैलेय की तीन कविताएँ। पहली कविता 'दुर्घटना' में कवि ने आम दुर्घटना से हटकर ज्वलन्त भावुकता की मौत को दुर्घटना सिद्ध करना चाहा है। यदि हमारा सत्य का पक्षधर आक्रोश मर रहा है, असंतोष मर रहा है, बेचैनी समाप्त हो रही है तो वाकई हम मर रहे हैं। यह सांसारिक दुर्घटनाओं से कहीं ज्यादा भयावह दुर्घटना है कि प्रत्यक्ष दिखती दुर्घटनाओं के प्रति हमारी मानवीय भावुकता ही मर जाए (अभिनव कदम : जून-नवम्बर 09)Ð<br />
समकालीन अंधकार से मुठभेड़ करने वाली कहानी<br />
भोपाल से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'प्रेरणा' के नवीनतम अंक में प्रकाशित प्रदीप पंत की कहानी 'कसाई'। यह कहानी कसाई के अनजाने मानवीय व्यक्तित्व को सामने लाती है। कसाई गिरी उसका पेशा है, जीवनयापन का जरिया है। इससे उसका घर-परिवार चलता है। कसाई रोज बकरी हलाल जरूर करता है, मगर वह खूनी प्रवृत्ति का नहीं है। उसके भी दिल में इंसानियत की आग जलती है। अन्याय और चरित्रहीनता देखकर उसके रोम-रोम में क्रोध की लहर उठ जाती है। 'तय तो करना ही है' यह शीर्षक है जाने-पहचाने कहानीकार राधेलाल बिजधावने की कहानी का। बिजधावने सद्गुणों की निर्मल सुन्दरता के पक्ष में खड़े हैं। समकालीन ग्राम जीवन के संवेदनशील कहानीकार के रूप में बिना हल्ला किए अपनी पहचान बना रहे रणीराम गढ़वाली की कहानी 'राहुकेतु'। यह कहानी यकीनन अथाह और बेहिसाब चरित्रहीनता के घुप्प अंधकार से, ऑंखें खोलकर सीधे टकरा जाने वाली कहानी है। जिसने पेशेवर भिखारियों की दिशाशून्य, श्मशानी और बेइंतहा बर्बाद दुनिया को खुली ऑंखों से नहीं देखा है वे इस कहानी के वीभत्स सत्य पर यकीन नहीं कर पाएँगे (प्रेरणा : जुलाई-दिसम्बर 09)Ð<br />
वर्तमान साहित्य के फरवरी 10 अंक में उभरते कहानीकार रूपलाल बेदिया की कहानी 'घनी होती झाड़ियाँ'। रूपलाल ने कहानी के चरित्रों में सफलतापूर्वक व्यक्तित्वांतरण किया है, संकल्प के साथ, जिद्द के साथ, तपी हुई दृष्टि के साथ। गाँव में पला-बढ़ा बेटा मुलायम गद्दी वाली कुर्सी में धँसने का रुतबा और तीन मंजिली इमारत की हैसियत पाकर बूढ़े माँ-बाप के प्रति आकंठ निर्दयी हो जाता है। इसी अंक में जयप्रकाश कर्दम की कहानी 'गोष्ठी'। यह इस अर्थ में पठनीय है कि आजकल के दलित लेखकों की सोच-समझ में घुसी-धंसी हुई जातिवादी बीमारी को उजागर करती है (वर्तमान साहित्य : फरवरी 10)Ð<br />
'कथन' के जनवरी-मार्च 10 अंक में प्रतिष्ठित लेखक जाबिर हुसैन की प्रकाशित कहानी 'इल्तिजा'। जिन्दगी की दु:ख-दर्द भरी रौनक के कथाकार जाबिर हुसैन ने एक पेड़ के कटने पर उसकी गूँगी, अशब्द अन्तर्वेदना को मनुष्य की आवाज प्रदान की है। किसी मार्मिक उद्देश्य की सघन अनुभूति संक्षेप में कैसे करा दी जाए, 'इल्तितजा' कहानी इसका पठनीय उदाहरण प्रस्तुत करती है। इसी अंक में नीला प्रसाद की कहानी 'एक जुलूस के साथ-साथ। इसमें एक महिला कालेज की वाडर्ेन जी.वी. द्वारा हॉस्टल की कुछ भोली-सीधी लड़कियों के यौन-शोषण का पर्दाफाश हुआ है। इसमें वर्तमान उच्च शिक्षा जगत का एक नापाक सच है। मगर यह कहानी न तो जी.वी. की अपराध बोध ग्रस्त मानसिक दशा का विश्लेषण करती है और न ही ऐय्याशबाज व्यवसायियों की कामातुर इच्छाओं की शिकार लड़कियों की विषम-जटिल मनोदशा का। (कथन : जनवरी-मार्च 2010)Ð<br />
साहित्य का मुद्दा<br />
पत्रिका 'पाखी', फरवरी, 2010 ई.। मुद्दा है कि 'पुरानों को नहीं पढ़ती नई पीढ़ी'। तो खैर! 'पीढ़ियाँ आमने-सामने' की इस बुद्धि-उत्तेजक बहस में कुछ अह्म मुद्दे चमके अवश्य-मगर बिना कोई सर्वमान्य और निर्णायक निष्कर्ष दिए ठण्डे होकर बुझ भी गए। अहम् सवाल तो यह कि पुराने लेखकों को नई पीढ़ी पढ़ती ही नहीं। यदि यह आरोप सच है तो सौ में से सिर्फ पचास प्रतिशत ही, क्योंकि नई पीढ़ी जितनी ललक, आशा और सहृदयता के साथ वरिष्ठ रचनाकारों को पढ़ती है उतना खुद वरिष्ठ लेखक अपने समवयस्क लेखकों को नहीं पढ़ते। वजह साफ है कि आज की युवा पीढ़ी में समकालीन सृजन की क्षमताओं को जानने की तीक्ष्ण भूख है। लेखन के स्तर की गंभीर कलात्मकता पकड़ने की महत्वाकांक्षा है और अपने विगत की मूल्यक्ता को चित्त में धारण करने का दायित्व बोध है। जो बरसाती युवा लेखक 'अहंब्रह्मास्मि' की मुर्दा अकड़ में या जीते जी जूनियर खुदा की गद्दी पा लेने की सनक में अपनी सृजन-परम्परा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों को पढ़ना-आत्मसात करना बंद कर दे रहे हैं, देखते ही देखते लेखन की दुनिया से उनकी मरणासन्न कलम का जनाजा बेवक्त उठ जा रहा है।<br />
रही बात वरिष्ठ लेखकों की, तो वे निन्न्यानवे प्रतिशत सुनिश्चित रूप से नए लेखकों के बारे में सकारात्मक, स्वस्थ और लोकतान्त्रिक धारणा नहीं रखते। आज की युवा आलोचना को खींचकर चार झापड़ मार दिया जा रहा है और घोषणा कर दी जा रही है कि युवा आलोचना सतही है, दो कौड़ी की रह गई है। इसी तरह बारम्बार युवा कविता पर व्यंग्य कसते हुए मुनादी की जा रही है कि यह विधा साहित्य की विलुप्त प्रजाति बन जाने के कगार पर खड़ी है। यहाँ शालीनता किन्तु दृढ़ विश्वास के साथ कहना जरूरी है कि वरिष्ठ लेखक युवा लेखन का बिना चार अक्षर पढ़े ऑंखें मूँदकर फैसला देने की भूल कर रहे हैं। समकालीन हिन्दी आलोचना और कविता दोनों में मजबूत, प्रतिभा सम्पन्न और सृजन दक्षता से आकंठ भरे हुए युवा स्वर जन्म ले रहे हैं। ऐन इसी वक्त, इसी जगह नाम लेने की बेचैनी मचलने के बावजूद युवा लेखकों की फेहरिस्त पेश करने से रोकता हूँ अपने आपको। आज यदि युवा लेखन में बेहतरी के बावजूद गड्डमगड्ड हो उठने की अनियंत्रित स्थिति कहीं है तो युवा कहानी में। 'हम सब कहानी के वर्तमान जिन्दा ईश्वर हैं' जैसी पागल आत्म मुग्धता कूट-कूट कर भरी हुई है यहाँ। ऐसे गुट का सरकारी रजिस्ट्रेशन भले न हुआ हो, मगर आपसी एका किसी दहशतगर्द संगठन से भी ज्यादा मजबूत है। ये युवा कहानीकार एक दूसरे का नाम 'राम-राम' स्टाइल में रट रहे हैं और साक्षात्कार, परिचर्चा, मंच, आमने-सामने की बहस में अपने गुट के यार-दोस्तों की कहानियाँ उछाल रहे हैं, मानो उन आठ-दस कहानीकारों के सिवाय पृथ्वी पर और कोई युवा कहानीकार जिन्दा ही न हो। यदि संयोग से होगा भी तो इस योग्य नहीं कि भूलकर भी एकाध बार उसका नाम ले लिया जाए। दुखद आश्चर्य यह कि इस परिचर्चा में सिर्फ उन्हीं कहानीकारों के नाम लगभग तयपूर्वक लिए गए हैं, जो चर्चित हैं, उनसे बखूबी आमने-सामने और बगल में बैठने वाला परिचय है, जिनका नाम लेने में फिलहाल कोई रिस्क-विस्क नहीं है (पाखी : फरवरी 2010 ई.)Ð<br />
सम्पादकीय कलम का मूल्य<br />
वरिष्ठ कथा लेखिका नमिता सिंह का सम्पादकीय 'अपनी बात' अपने हालात-ए-वक्त की अहम् समस्याओं के साथ मजबूती से खड़ा होता है। बाल यौन शोषण जो कि सरकारी और गैर सरकारी दोनों क्षेत्रों में कैंसर की तरह पसरा हुआ है आज की मुख्य समस्या है। 14 वर्षीया रूचिका की आत्महत्या के पीछे राठौड़ जैसे तानाशाह दैत्यों का नापाक हाथ होना कोई अनहोनी घटना नहीं है। नमिता जी की सम्पादकीय कलम का अर्थ महज किसी फौरी मुद्दे का पोस्टमार्टम कर सम्पादकीय की औपचारिकता निभा देना भर नहीं है, बल्कि वह मोर्चा की तरह हमें उस समस्या के प्रति वे अनिवार्यत: चिंतनशील और संवेदनशील करती हैं (वर्तमान साहित्य : फरवरी 2010 ई.)Ð<br />
अभिनव कदम के अंक 21 में डॉ. सी.पी. राय का लेख 'भोजपुरी भाषा और भोजपुरी समाज।' अपनी ताकत के बावजूद इस स्तरीय लेख की सीमा यह है कि भोजपुरी क्षेत्र के साधारण जन की श्रमधारा को उस असाधारण कृतज्ञता के साथ नहीं याद किया गया है, जिसके हकदार वे हजारों वर्षों से रहे हैं (अभिनव कदम : जून-नवम्बर 09)Ð<br />
'बहुवचन' पत्रिका के सम्पादक और आलोचक राजेन्द्र कुमार जी का सम्पादकीय 'सपनों के स्यापे का समय नहीं है यह'। दरअसल सपना मौलिक लक्ष्य देता है, संकल्प की आग सुलगाता है, अभिनव दिशा सृजित करता है, प्राणों में चेतना की सुबह की ताजगी भरता है और असम्भव शिखर पा लेने का आत्मविश्वास जगाता है। 'छायावाद' यूँ ही हिन्दी कविता का दूसरा स्वर्णकाल नहीं है। वहाँ भी कल्पना, जो कि सपने की सगी बहन है, छायावाद की काव्य-प्रवृत्ति है। राजेन्द्र जी ने अपने संक्षिप्त सम्पादकीय में 'स्वप्न' की अनिवार्य भूमिका को रेखांकित किया है। 2009 के लिए साहित्य की नोबेल पुरस्कार विजेता हेरेटा मुलर का आत्मवृत्त 'बहुवचन' के नए अंक में। यह वृत्त उन्हें पुरस्कार मिलने के ठीक दो दिन बाद लंदन के दैनिक पत्र 'द गार्डियन' में प्रकाशित हुआ। यह आत्मवृत्त वस्तुत: एक प्रतिबद्ध और निर्भीक की बेहिसाब बेइज्जती और शारीरिक प्रताड़ना का श्वेतपत्र है। कहने के लिए तो जर्मनी पृथ्वी के पाँच विकसित देशों में से एक है, परन्तु उसकी चमकती खोल के भीतर कलाकारों, बुद्धिजीवियों और लेखकों के प्रति कैसा उत्पीड़नकारी तानाशाह मन छिपा हुआ है। इसका अंदाजा मुलर को दी गई शारीरिक और मानसिक यातना के आधार पर सहज ही लगाया जा सकता है (बहुवचन : अक्टूबर-दिसम्बर, 09)Ð<br />
नए अंक : एक रचना<br />
1.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इन्किलाब जिन्दाबाद और उर्दू (मंज्मून), पी.पी. श्रीवास्तव, 'शेष' जनवरी-मार्च, 10, सम्पादक हसन जमाल।<br />
2.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अमर्त्य सेन का भारत... (आलेख), रवि श्रीवास्तव, 'वाक्' जनवरी-मार्च, 10, सम्पादक सुधीश पचौरी।<br />
3.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>आगे-आगे परछाईं (केदारनाथ सिंह, सुधीर रंजन की बातचीत), 'प्रगतिशील वसुधा', अक्टूबर-दिसम्बर, 09, सम्पादक कमला प्रसाद।<br />
4.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>आग की कविता बल्गारिया से (अनुवाद - गोबिन्द प्रसाद), 'आलोचना', जनवरी-मार्च, 10, सम्पादक अरुण कमल।<br />
5.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>क्यों लिखता हूँ- शंख घोष (अनुवाद राम शंकर द्विवेदी), 'दस्तावेज', अप्रैल-जून, 09, अप्रैल-जून, 09, सम्पादक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी।<br />
6.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>चखों की स्वच्छन्द विषमता का गायक - निराला, रामचन्द्र शुक्ल, 'अक्षरशिल्पी', अक्टूबर-दिसम्बर, 09, विजय।<br />
7.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>चुगारे (कविता) - निशांत, 'कृति ओर', जनवरी-मार्च, 10, सम्पादक रमाकांत शर्मा।<br />
8.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>विचारधारा पर आधारित समाजों की शिनाख्त (सम्पादकीय राजेन्द्र यादव), 'हंस', फरवरी, 10, सम्पादक राजेन्द्र यादव।<br />
9.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सम्बद्ध (कहानी) - मीरा सीकरी, नया ज्ञानोदय, फरवरी, 10, सम्पादक रवीन्द्र कालिया।<br />
10.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>भूमंडलीकरण का वैचारिक आधार (आलेख), गिरीश मिश्र, परस्पर, फरवरी, 10 ई., सम्पादक आनन्द बहादुर।<br />
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</div>भरत प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/15701950336360578610noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3182288695453413836.post-3605901637770504122010-03-12T12:22:00.001+05:302010-03-12T12:24:04.747+05:30नया, नया नहीं है भरत प्रसादनया है, वह नया नहीं है, जो लघु है वह लघु नहीं है, जो कच्चा है वह कच्चा नहीं है। सवाल उठाइए कि कैसे? वह ऐसे कि उस नये तरह की कल्पना, अनुभूति और सोच का ताजापन हमारे पास नहीं है। वह जीवन-जगत को सर्वाधिक अज्ञात, नये और ताजा रंग के साथ देखने का मालिक है। उसकी लघुता सिर्फ उम्र की या आकार-प्रकार की है भावनाओं की नहीं, हृदय की सक्रियता की नहीं, भावनात्मक पवित्रता की नहीं। इसी प्रकार एक नवसर्जक यदि कच्चा है तो जीवन के व्यापक अनुभवों में, न कि अपने सृजन-संकल्प में, स्तरीय निष्कर्ष में या समकालीन यथार्थ के विवेकपूर्ण विश्लेषण में। नवसर्जक में रचने की प्राकृतिक शक्तियाँ अतिशय तीव्रता के साथ सक्रिय रहती हैं, उसकी मानसिक और भावनात्मक ऊर्जा पल-प्रतिपल ज्वारभाटे की प्रकृति धारण किए रहती है। एक तरह से उसके समूचे लघु आकर में प्रत्येक दृश्य, अदृश्य, ज्ञात-अज्ञात, सूक्ष्म-स्थूल को जान लेने, छू लेने, पा लेने की बेचैनी मची रहती है। धारणा को पलट देने, परिभाषा को खारिज कर देने, लीक से इंकार कर देने और असम्भव को सम्भव बनाने की अप्रकट क्षमता, प्रतिभा और कूवत नवसर्जक में अकूत, असीम होती है। उसकी काबिलियत उस लघु जल धारा की तरह है, जो किसी ऊँचाई से गिरने का अवसर पाकर ही दिगन्तव्यापी अभिनव स्वर का कमाल दिखा पाती है। तो फिर नवसर्जक कैसे हुआ लघु? कैसे हुआ कच्चा? कैसे हुआ चलताऊ मुहावरे में नव?<br />नवसर्जक की विकल्पहीन महत्ता भी इसी में है कि वह भाषा, शिल्प, गठन, संवेदना और कल्पनाशीलता अर्थात् साहित्य के प्रत्येक विभाग में अपनी मौलिक क्षमता का परचम लहराए। लगे कि हाँ, उसकी भाषा नए युग के जन्म की आहट दे रही है, ऐसी शब्द-सामर्थ्य तो पहले कभी नहीं देखी गई, प्रखर कल्पनाशीलता का ऐसा नमूना पहले कभी नहीं दिखाई दिया। समय के प्रति उठे छोटे-बड़े सवालों का उत्तर नवसर्जक ठीक वैसे ही नहीं देता, जैसा कि अब तक दिया गया है। वह पुराने उत्तर से बगावत जरूर करता है या फिर अनिवार्यत: अपनी ओर से कुछ नया जोड़ता है। समकाल पर अत्यन्त नए किन्तु कीमती तरीके से कलम चलाने की उम्मीद नए लेखक से की जाती है। नवसर्जक के अध्ययन का दायरा सीमित होने के बावजूद तरोताज है, इसीलिए किसी विषय के दरसत्य पर जब उसकी सोच खुलती है तो कुछ अविस्मरणीय मार्मिकता और तात्विकता देकर ही शान्त होती है। नवसर्जन की कलम में समसामयिक जीवन बिलकुल आधुनिक स्वर में बोलता है, ऐसी तमाम सामाजिक, मानवीय और सांस्कृतिक प्रवृत्तियाँ जो दबे पाँव, छिप-छिपकर, शनै: शनै: पैठ बना रही हैं, जो समकाल की पूरी संरचना को अस्त-व्यस्त और दिशाहीन कर दे रही हैं, उस पर बेहद तत्पर, जागरूक और पैनी नजर नवसर्जक की रहती है और युग की घातक प्रवृत्तियों के खिलाफ पहला मोर्चा खोलने का युगीन दायित्व नवसर्जक पर ही है।<br />वर्ष 2009 में साहित्यिक पत्रकारिता की प्रथम पंक्ति में अपनी पहचान कायम करने वाली पत्रिका रही 'लमही'। इसका 'अक्टूबर-दिसम्बर-2009' का अंक 'कहानी-विशेषांक' है। प्रस्तुत अंक में सुपरिचित कथाकार 'महेश कटारे' की कहानी 'बच्चों को सब बताऊँगी' प्रकाशित हुई है। इसमें गिरिजा एक बेसहारा नवयुवती है, उसके बाल-बच्चे हैं। गाँव के सरपंच, डकैत और भी न जाने कैसे, कितने छुटभैया, बड़भैया उसकी आकर्षक काया से मनमाना खेल खेलते हैं। गिरिजा भी निर्लज्जतापूर्वक अपने शरीर का शोषण होने देती है। गाँव-देहात की गरीब-गुरबा स्त्री का शरीर नोच-नोच कर खाए जाने लायक मांस के टुकड़े के सिवाय मानो कुछ होता ही नहीं। महेश जी ने गिरिजा की नंगी असलियत के पीछे उसकी पराजित आत्मपीड़ा को ही आवाज दी है। इसी क्रम में राकेश कुमार सिंह की कहानी ''कहानी खत्म नहीं होती'' प्रेमचन्द की कहानी 'कफन' के कालजयी चरित्रों घीसू-माधो को इस सदी की कहानी के बहाने उठाना यह प्रमाणित करता है कि ये अभी मरे नहीं हैं, कहीं न कहीं जीवित है। इनकी नियति और भयावह हो गई है। अन्त्यज लोकजीवन के कथाकार राकेश कुमार सिंह ने अपने कल्पना-कौशल के बल पर वर्तमान यथार्थ की पीड़ा को प्रेमचन्द के ऐतिहासिक दुख के साथ कुशलतापूर्वक जोड़ा है। आगे शैलेय जी की कहानी ''यहीं कहीं से।'' प्रस्तुत कहानी में लोकेन्द्रनाथ जैसे साहित्य के शिक्षक की वैचारिक-संघर्ष व्यथा के बहाने उन तमाम बौद्धिकों के जीवन में टूट पड़ने वाली दुश्वारियों का चित्रण किया गया है, जो समाज में आर्थिक और सामाजिक समता देखना चाहते हैं। शैलेयजी घटना और विषय को उसकी अपनी प्रकृति के अनुसार देखने से कहीं ज्यादा अपने संकल्पी मन के नजरिए से देखते हैं। इस अर्थ में वे सार्थक बदलाव की जिद रखने वाले परिवर्तनकारी कथाकार हैं। इसी अंक में अशोक मिश्र की कहानी ''गाँव की मौत।'' में शहर जाकर बसे हुए 'रतन' नामक युवक के भीतर अपनी जड़ों से लगातार कटने का असहाय दर्द तो है ही, साथ ही साथ 21वीं सदी में अव्यवस्थित और दिशारहित तरीके से बदलते हुए उत्तरप्रदेशी गाँवों का नक्शा भी है, मगर सूचनात्मक और लगभग निबन्धात्मक दायरे में बँधकर रह जाने वाला। कुछ आगे बढ़ने पर रणीराम गढ़वाली की कहानी ''पारा उर्फ पारस उर्फ...।'' यह कहानी पहाड़ पर रचे-बसे वर्तमान गाँवों की रूढ़िवादी, उजड्ड और दिग्भ्रमित मानसिकता पर चोट करती है। गढ़वाली ने इस कहानी की स्त्री-पात्र सुन्दरी (जो कि विधवा है) का दुबारा विवाह दिखाकर पुन: इस सवाल को हवा दी है कि क्या आपस में प्रेम करने वाला जोड़ा, चाहे वह किसी भी धर्म का हो, जाति का हो समाज-स्वीकार्य विवाह सफलतापूर्वक कर सकता है? (लमही, अक्टूबर-दिसम्बर, 09, सम्पादक-विजय राय)Ð<br />'प्रगतिशील वसुधा' के अंक-82 में प्रकाशित गजेन्द्र रावत की कहानी- 'बारिश, ठंड और वह'। इसमें कहानीकार ने मधुमेह रोग से ग्रस्त एक लावारिस इंसान की खानाबदोशी टे्रजडी को साकार किया है। कूड़ेदान मे फेंकी गई निरर्थक वस्तुओं की तरह हमारे आज के मौजूदा समाज में एक दो नहीं, हजारों बल्कि लाखों इंसान घनघोर अपमान, घृणा और तिरस्कार की ंजिंदगी ढो रहे हैं। अदृश्य हवा, घूमती हुई पृथ्वी और चिर-मौन आकाश के अलावा जिसका दुनिया में अपना कहलाने वाला कोई नहीं है। इसी अंक में है नीरज वर्मा की कहानी 'गुम होते लोग'। यह कहानी सदी के पहले दशक में असहाय और अशब्द होकर लगातार पिछड़ते-गिरते, विपन्न होते ग्रामीण भारत की प्रामाणिक कथा है। 'चरका' दलित वर्ग का मामूली किसान है जिसकी आत्मा जाति-धर्म और ऊँच-नीच के जड़-संस्कारों से निर्मित है, वह गाँव के ही विसेसर पंडित की सेवा-टहल के प्रति गुलामों की तरह कृतज्ञतापूर्वक समर्पित है। 'मुन्ना' जो कि चरका का बेटा है, इस गुलाम नियति के खिलाफ सिर से पैर तक विद्रोही है। उसे फटाफट धन कमाने, आधुनिक सुख-सुविधा से लैस रहने और धनिकों की तरह ऐशोआराम लूटने का पूरा चस्का है। (प्रगतिशील वसुधा, जुलाई-सितम्बर, 09, सम्पादक-कमलाप्रसाद)Ð<br />'दोआबा', के अक्टूबर अंक में प्रकाशित देवेन्द्र सिंह का उपन्यास अंश 'हम बाजि रहल छी पलटू' शीर्षक से प्रकाशित है। इसमें बिहार के गाँवों से रात-दिन पलायन करते ग्रामीणजन की अश्रुपूर्ण कथा के बहाने उनकी चिन्ता में सिसकते हुए विचारों को खुलकर प्रस्तुत किया गया है। गाँवो का दलित हिन्दुस्तानी अन्धी गली में उगी हुई पीली-ठण्डी दूब है। वह अपनी प्राणघातक विपन्नता से भयभीत होकर महानगर में भाग आता है, जिसकी जिन्दगी प्रतिदिन अपने रोम-रोम के नीचे स्थित खून को बहाने और स्लमों के अन्धकारमय रसातल में डूब जाती है। कुछ पंक्तियाँ पढ़िए ''तब देश दरका था, अब गाँव दरके हैं। कस्बे तथा शहर दरके हैं। घर-परिवार बंटे हैं। आधा वहाँ, आधा यहाँ। यहाँ ये खोभारियों में रहते हैं। पटरियों पर सोते हैं। सब दुख सहकर महानगर के सबसे कठिन काम संभालते हैं। एवज में दुरदुराए जाते हैं।'' पृष्ठ संख्या, 110, ('दोआबा' अक्टूबर, 09, सम्पादक-जाबिर हुसेन)।<br />'इरावती' पत्रिका के 'अंक-9' में प्रकाशित सुषमा मुनीन्द्र की कहानी 'ट्रीटमेंट'। इसमें सुषमा जी ने 'संजोग' नामक कपड़ा व्यवसायी के विवाहेतर यौन-सम्बन्ध का मुद्दा उठाया है। संजोग बाल-बच्चेदार है, सांस्कारिक पृष्ठभूमि का है, अपनी पत्नी रतन का एकनिष्ठ प्यार पाया है उसने, फिर भी...। कहानी आजकल बेहिसाब दर से मूल्यहीन होते आदमी का सच उजागर करती है, मगर एक रेखीय वर्णन-विन्यास की शैली में। आगे है राजनारायण की कहानी ''इम्तहान''। आधुनिक से आधुनिक होकर भी कैसे प्रेम की मानवीय गरिमा को बचाए रखा जा सकता है, यह कहानी इस दुर्लभ यथार्थ का पठनीय उदाहरण है। यहाँ दो युवा प्रेमियों के बीच टटकी चाहत की भारी उथल-पुथल मची रहने के बावजूद किसी के आचरण में मर्यादाहीन हो उठने की सनक नहीं है और इसी अमर-प्रकृति को एक नया अंजाम देती अमित मनोज की कहानी ''स्टेशन पर प्रेम''। अचानक चलते-फिरते, घूमते-घामते प्रेम जगा देने वाली उम्र में डूबे हुए युवक तरुण और ज्योत्स्ना के बीच अव्यक्त किन्तु पक्के प्रेम की हकीकत है यह कहानी। प्रेम जैसे शाश्वत मंत्रमुग्धकारी मुद्दे को क्षण-क्षण बदलती भावनात्मक स्थितियों के सूक्ष्म चित्रण से कहानी को और वेदनापूर्ण बनाया जा सकता था, परन्तु अमित मनोज विषय के ऊपर-ऊपर तैरते हुए, बिना तबियत से डुबकी लगाए सीधे-सीधे पार निकल गए। (प्रगतिशील इरावती, अंक, 9, सम्पादक-राजेन्द्र राजन)Ð<br />साहित्य जगत में अपनी नई उपस्थिति दर्ज कराने वाली पत्रिका 'अभिनव-मीमांसा' के प्रवेशांक 09, 'अगस्त' के अंक में प्रकाशित उषा महाजन की कहानी- 'एंटीक', आज के अति आधुनिक बाजारवादी अपसंस्कृति में आकंठ रमी हुई नवयौवना 'गोगी' और सामाजिक मूल्यों, संस्कारों एवं मर्यादाओं में जीने वाली, यौन-शुचिता को अंधविश्वास की हद तक महत्व देने वाली माँ के बीच वैचारिक टकराहट की कहानी है। कहानी का निष्कर्ष है कि सिर्फ प्रेम की जमीन पर खड़े होने वाले सम्बन्ध निष्कंटक नहीं हैं, यहाँ भी शरीर के प्रति भोगवादी मानसिकता चरम से कुछ नीचे सक्रिय नहीं रहती। (अभिनव मीमांसा, प्रवेशांक, 09, सम्पादक-विवेक पांडेय)Ð<br />'परिकथा' के 'नवम्बर-दिसम्बर-09' अंक में नसीम साकेती की कहानी 'सौदा'। यह कहानी पृथ्वी की हवा, मिट्टी, पानी और धरती की मातृ-शक्ति को न सिर्फ बचाने, बल्कि उसके लिए जान की कुर्बानी भी दे देने को तत्पर दिखाई देती है। पृथ्वी को आगे जीवित रखने के लिए उसका स्वास्थ्य बचाए रखने पर कोपेनहेगन में विश्व के राष्ट्राध्यक्षों की बैठकें हुईं। मुद्दा है प्रत्येक जिम्मेदार देश Co2 गैस (कार्बन 'डाईआक्साइड' के उत्सर्जन में कुछ प्रतिशत (10-15) की कमी लाएँ। बात-बहस में देश एक दूसरे का सिर फोड़कर खा जाने को तैयार हैं, मगर इस सृष्टि-विनाशक गैस को कम उत्सर्जित करने के लिए तैयार नहीं हैं। आगे इसी अंक में रामाशीष की कहानी 'हिसाब'। इसमें कहानीकार ने मजाकिया और हँसोड़ शैली में 'हुनीलाल' जैसे मामूली और बेरोजगार आदमी के नाचीज दरसत्य को उभार कर रख दिया है। पैसे की बेतरह तंगी और बेरहम भूख के कारण वह होटल में खाना परोसने का काम करता है। कुछ ही दूरी पर मौजूद दिखती है हरि दिवाकर की कहानी 'चंदा'। इसमें धर्म की खोल में छिपे उस साम्प्रदायिक, उन्मादी और चरितभ्रष्ट लम्पट को दिखाया गया है, जो धर्म के नाम पर हिंसा, बलात्कार, अपहरण और लूट का नंगा नृत्य खेलने से जरा भी संकोच नहीं करता। आजकल त्यौहार, पर्व, उत्सव बुद्धिशून्य दिखावेबाजी और धार्मिक रुतबा जमाने का माध्यम बन गया है। दुर्गापूजा हो, गणेशपूजा हो या फिर लक्ष्मीपूजा सब में यही विवेकमुक्त प्रदर्शनबाजी बढ़-चढ़कर दिखाई देती है। ('परिकथा', नवम्बर-दिसम्बर, 09)Ð<br />हिमाचल प्रदेश में बैठकर समकालीन हिन्दी कविता में पहचान बनाने वाले कवि सुरेश सेन निशांत। 'प्रगतिशील इरावती' में उनकी कुल दस कविताएँ प्रकाशित हुई हैं, जिनमें शिमला माल रोड पर, नादान बेटी का पिता, लड़कियाँ, घर और पहाड़ शीर्षक कविताएँ अपनी सार्थकता प्रमाणित करने में पूर्णत: सक्षम हैं। शिमला माल रोड आधुनिक उपभोक्तावादी दिग्भ्रमित संस्कृति का प्रतीक है, वहाँ लोकक्षेत्रों में कर्मशील शुष्क-धूमिल चेहरों के लिए जगह कहाँ? 'घर' कविता वर्तमान मनुष्य के मानवीय पुनर्निमाण का संकल्प दुहराती है। 'घर' प्रतीक है शरीर का, जिसका न जाने किन-किन कारणों से, हद दर्जे के उस पार तक पतन हो चुका है। जायसी लिखते हैं 'यथा-यथा पिण्डे, तथा-तथा ब्रह्माण्डे' तो फिर अन्त: व्यक्तित्व के अभ्युत्थान के बिना सृष्टि की रक्षा सम्भव है क्या? केशव शरण ने अपनी कविता 'खतरे और डर बाँधने वाले' में आदमी के भीतर समाए हुए अवैध, अन्यायी भय की प्रभुसत्ता को बेनकाब किया है। (प्रगतिशील इरावती, अंक 09)Ð<br />सृजन की दुनिया में तेजी से अग्रसर हो रही पत्रिका 'जनपथ' का 'नवम्बर' अंक 'कविता का गिरना' मलयालम के सुप्रसिद्ध कवि के. सच्चिदानंदन पर केन्द्रित है। समकालीन मलयालम कविता में अयप्प-पणिक्कर, ओ.एन.वी. कुरूप, बाल चन्द्रन चुल्लीकाड़ के साथ-साथ के. सच्चिदानन्दन का नाम निर्भ्रांत विश्वास के साथ लिया जाता है। समकाल की मूल्यवत्ता को मलयालम भाषा में जुबान देने वाले इन सभी कवियों ने स्मरणीय यात्रा-कविताएँ लिखी हैं। जैसे अयप्प-पणिक्कर की 'अमेरिकी स्केच्स', 'रात व दिन' तथा 'इवाना'। के. सचिदानन्दन की बाकायदा पहचान ही यात्रा-कवि के रूप में होती है। 'पल लोकम', पल कालम् (कई दुनिया, कई समय), और 'मुनू यात्रा' (तीन यात्राएँ) इनकी यात्राओं से सम्बन्धित रोचक काव्य संकलन हैं। 'जनपथ' के इस अंक की अधिक से अधिक दस कविताएँ ही अन्तर्वस्तु की महत्ता का गहरा सुख दे पाती हैं, वरना अधिकांश कविताएँ उड़ती हुई वे शुष्क पत्तियाँ हैं, जिनके ठौर-ठिकाने का कुछ अता-पता नहीं। वे बेअर्थ ही रह गई है, उनकी भीड़ के बीच एकाध हरी पत्ती दिख जाए तो संयोग की बात है। संतोष अलेक्स ने एक अनुवादक का संतोषजनक दायित्व निभाया है। (जनपथ, नवम्बर, 09, सम्पादक-अनंत कुमार सिंह)Ð<br />'प्रगतिशील वसुधा' में प्रकाशित चन्द्रकांत देवताले की कविता 'सुदीप के न रहने पर'। देवताले जी ने जो कि स्वयं भी स्व. सुदीप बनर्जी के समानधर्मी सर्जक व्यक्तित्व हैं, सुदीप बनर्जी के शब्द से परे साहित्येत्तर व्यक्तित्व को काव्य-पंक्तियों में प्रवाहित किया है। इसी अंक में वरिष्ठ कवि कुँवरनारायण की आठ कविताएँ। इसमें पहली कविता 'घुड़सवार' दृष्टिपूर्ण है। कहीं सुदूर, गहरे अतल में सक्रिय रहती सूक्ष्म रचनात्मक अनुभूतियों को ध्यान और एकाग्रता के भ्रम से प्रकाशित कर ले आने की कला कुँवरनारायण की प्रतिभा का मूल हिस्सा है। इस कविता की तीन पंक्तियाँ प्रवेश करना चाहता हूँ किसी ऐसी सदी में जिसकी सदियों से प्रतीक्षा है (पृ. संख्या-61)। लम्बी कविता के चलन में अपना नाम जोड़ती कविता 'कबूलनामा', सृजनकर्ता हैं युवा कवि 'निशांत'। यह कविता इस अर्थ में अलग है कि यह एकल अर्थ के विस्तार की कविता नहीं, बल्कि असंख्य खण्डित अर्थ देने वाली कविता है। यह एक व्यक्ति के रूप में अपनी लघुता, स्वार्थपरता और चलताऊ संकीर्णता के सहर्ष आत्म-स्वीकार की कविता है। आत्मसत्य कहने का साहस इसके बिखरे-छितराए हुए महत्व का एकमात्र कारण है। इसी अंक में ज्ञानेन्द्रपति की कविता 'रेत के द्वीप पसर आए हैं।' सदियों-सहस्राब्दियों से काशी से सटकर, अभिन्न होकर बहने वाली कर्मवीरा, धर्मवीरा अजस्र ममता-प्रवाहिनी 'गंगा' के प्रति कवि-पुत्र का अनोखा उदग्र अनुराग रो पड़ा है। गंगा है तो बनारस है, गंगा नहीं तो बनारस को भी मरा हुआ ही समझिए। देखिए दो पंक्तियाँ गंगा भय से भी सिकुड़ी जाती हैं उर तक रेत और ऑंखों में भरा हुआ पानी (पृ. सं. 163)। उमा शंकर चौधरी की पाँच कविताएँ। इसमें उमाशंकर स्त्री के आधुनिक चित्त के तार को पहले बारीकी से पकड़ते हैं, फिर शब्दों की धीमी चोट से उसमें ध्वनि पैदा करते हैं। इसीलिए इनकी कविताओं का अर्थ एक-दो वाक्य में नहीं, पूरे विन्यास में खुलता है। (प्रगतिशील वसुधा, जुलाई-सितम्बर, 09)Ð<br />'अभिनव मीमांसा' के प्रवेशांक में प्रतिष्ठित युवा कवि 'बोधिसत्व' की आठ कविताएँ हैं, लगभग आठों कविताएँ दस-पन्द्रह मिनट के औसत से करीब दो घण्टे में आराम से निबटा दी गई कविताएँ लगती हैं। वैसे बोधिसत्व अपने सामाजिक, पारिवारिक और आंचलिक परिवेश से जुडे हुए अनेक लोक विषयों को मूल्यवान अर्थों की गरिमा से यादगार बनाने में सक्षम हैं। 'कुछ बातें' शीर्षक कविता में सुमन सिंह प्रत्येक इंसान का सच बताने की कोशिश करती हैं। (अभिनव मीमांसा, प्रवेशांक, अगस्त-09)Ð<br />समकालीन सृजन परिदृश्य में अपनी निरन्तर उपस्थिति बनाए रखने वाली उत्तराखण्ड की प्रतिनिधि हिन्दी पत्रिका 'आधारशिला'। पच्चीस वर्ष का सफर पूरा करने के उपलक्ष्य में इसका 'त्रिलोचन-विशेषांक' प्रकाशित हुआ है। शुरुआत ही लोकचित्त के गायक कवि की प्रतिनिधि कविता 'चंपा काले-काले अच्क्षर नहीं चीन्हती' से हुई है। वाक्य साधारण, सीधा-सादा। चम्पा का व्यक्तित्व-चित्रण बिलकुल सीधी रेखा में। कविता का प्रवाह सरल रेखीय, परन्तु क्या अर्थ इसका इतना सपाट है, ऊपर-ऊपर तैर रहा है? नहीं। त्रिलोचन की पहचान बन चुकी इस कविता में चम्पा के प्रति कवि के भीतर आकंठ आत्मीयता है, पितृवत् स्नेह है और उसकी निरक्षरता में पवित्र मानव-विवेक खोज लेने की प्रफुल्ल उत्सुकता है। चम्पा अपने बालम के प्रति अटूट नेह जिस भोलेपन के साथ कह डालती है, वही इस कविता की दीर्घायु का कारण बन जाता है। (आधारशिला, त्रिलोचन विशेषांक, 09, सम्पादक-दिवाकर भट्ट)Ð<br />'दोआबा' के अंक में प्रकाशित अरुण कुमार का आलेख 'विस्थापन'। तथ्य, घटना, चिंतन और प्रभाव के उचित मिश्रण से किसी जटिल मुद्दे को किस तरह जानने योग्य बनाया जा सकता है, अरुण जी का यह लेख इसका प्रमाण है। साहित्यकार हरिराम मीणा का लेख 'निशाने पर आदिवासी' मात्र जानकारी रखने योग्य सर्वेक्षण बनकर रह गया है, जबकि वे आदिवासियों के विस्थापन जैसी पुरानी, बेइलाज, गहरी पीड़ा को अनम्य स्वर दे सकते थे। वही स्वर पाठक के मन में आदिवासियों के अकथ दुख को अविस्मरणीय बना देता। आगे इसी मुद्दे पर युवा कवि अशोक सिंह का लेख 'विनाश की ओर'। कवि ने बिहार और झारखण्ड के आदिवासी-बहुल क्षेत्रों में पश्चिमी देशों की मुनाफेबाज कम्पनियों के शोषणजाल को 'अर्धनग्न' किया है। (दोआबा, अक्टूबर, 09, सम्पादक-जाबिर हुसैन)Ð<br />'आधारशिला' के त्रिलोचन-विशेषांक में हरिपाल त्यागी का संस्मरणात्मक लेख ''उस जनपद के कवि को याद करते हुए।'' हरिपाल जी ने सधी हुई कलम से कहीं ज्यादा अतिशय अनौपचारिक आत्मीयता के साथ 'जनपद-कवि' को याद किया है। त्रिलोचन निराला नहीं हैं, मगर उनके सृजन का अंदाज निराला जैसा ही निराला है। अपने ढग की मंदगामी गहन अर्थधारा सिर्फ त्रिलोचन ही लिख सकते थे। राम कुमार कृषक का संस्मरण- ''बंद गली के आखिरी मकान में।'' इस 'शब्द-शास्त्री' को कृषक जी ने अपूर्व स्नेह के साथ याद किया है मानो इस महत् कवि की अनोखी महत्ता कृषक जी के हृदय को अपना अव्वल दीवाना बनाकर भावविभोर नृत्य करवा रही हो। सुभाष चन्द्र कुशवाहा का संस्मरण 'त्रिलोचन का घर।' कथाकार का लेख एक मायने में हमें सावधान करता है कि हिन्दी का साहित्यिक जगत आज भी अपने निर्माताओं, शिल्पियों और भविष्य द्रष्टाओं का सलीके से सम्मान करना नहीं जानता। (आधारशिला, त्रिलोचन विशेषांक, 2009)Ð<br />'परिकथा' के नवम्बर-दिसम्बर 09 अंक में आलोचक शंभुनाथ का आलेख 'एशियाई संस्कृतिमहानता, अंतर्विरोध और चुनौतियाँ।' आलोचक शंभुनाथ जी ने इसमें, आधुनिक विश्व में विभिन्न राष्ट्रों (अमेरिका, चीन, जापान, भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश) की संस्कृतियों के बीच वर्चस्व, अन्तर्विरोध, टकराहट और युद्धोन्माद को रेखांकित करने का कुशल श्रम किया है। जापान के नोबेल साहित्यकार पुरस्कार विजेता 'केंजाबुरो ओए' पर विदेशी साहित्य के मर्मज्ञ जितेन्द्र भाटिया का आलेख 'हिरोशिमा का अंधेरा...।' 'निप द बड्स, शूट दि किड्स,' 'ए पर्सनल मैटर' और 'ए हीलिंग फैमिली' केंजाबुरो के प्रमुख प्रसिद्ध उपन्यास हैं। (परिकथा, नवम्बर-दिसम्बर, 09)Ðभरत प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/15701950336360578610noreply@blogger.com2