Tuesday, November 9, 2010

प्रकृति की अनोखी धरोहर है पृथ्वी - भरत प्रसाद

कोई लेखक लिखने के लिए जैसे ही कलम उठाता है, वह कुछ अधोषित, अदृश्य, अमूर्त किन्तु बेहद सशक्त शर्तों से, कर्तव्यों से बंध जाता है, उसे बंध भी जाना चाहिए। शर्त यह कि वह विषय के प्रति खुद को जवाबदेह बनाए, विषय के प्रति अपनी भूमिका एक न्यायाधीश की तरह सुनिश्चित करे और शर्त यह भी कि उस खास विधा में क्या कुछ नया और तत्वपूर्ण जोड़ने जा रहा है। इसके अलावा एक लेखक जब विषय को पुनर्जीवित करना शुरू करता है, तो वह सामान्य मनोदशा का व्यक्ति नहीं, बल्कि उर्जस्वित मनोदशा में विचरण करने वाला विद्युत-व्यक्तित्व

होता है। लेखक को अपने अन्त: व्यक्तित्व में कुछ ऐसे दायित्व का अनवरत एहसास हो अवश्य कि वह खुद को एक चौकीदार, एक सिपाही, रक्षक, चिकित्सक या शोधकर्ता की तरह मान कर चले।

इस समय हिन्दी साहित्य में जहाँ एक ओर कहानी, कविता और आलोचना में नवोन्मेष की लहर उठी हुई है, वहीं दूसरी ओर इन्हीं ऐतिहासिक विधाओं में ंगैर जिम्मेदार और सौदेबाज लेखकों का भी कारवाँ चल निकला है। कहानी और उपन्यास के मूल संस्कार का गहरा ज्ञान ही नहीं और उठा ली कलम चार सौ पेज का उपन्यास पाठकों के सिर पर पटक देने के लिए। आज कथाकार की गहरी रुचि कथानक में नायाब वेदना की तरंग भरने में नहीं, बल्कि नामचीन प्रकाशकों से उपन्यास, कहानी-संग्रह छपवाकर प्रायोजित प्रचार का ज्वार खड़ा कर देने में है। मौजूदा वक्त में हिन्दी कविता पर कसरत-व्यायाम करने वाले तकरीबन एक सौ युवा कवि हैं, सभी किसी-न-किसी रजिस्टर्ड, पूँजीसम्पन्न और बहुचर्चित पत्रिका में छपतेप्रचारित होते हुए। फिलहाल आज हिन्दी साहित्य में कवियों की अनुशासनहीनता झेलने वाली कविता एक लाचार माँ बनकर रह गई है। स्थिति ऐसी हास्यास्पद है कि पन्ने के बाएँ कोने से लेकर दाएँ कोने तक एक पंक्ति लिख दोकविता कहलाएगी। हूबहू कहानी की तरह एक पैराग्राफ में सपाटबयानी कर डालो कविता कहलाएगी। अखबार की कतरन को थोड़ा घुमा-फिराकर ऊपर-नीचे की पंक्तियों में सजा दोकविता कहलाएगी। आज कविता एक ऐसा मैदान है, जिसमें कवि गेम खेल रहे हैं, टांगअड़ा रहे हैं, विरोधी टीम पर बदले की भावना से अट्टहास कर रहे हैं, सामने वाले को छिपकर धक्का मार रहे हैं और सैर-सपाटा, मौज-मस्ती कर मैदान से बाहर हो जा रहेहैं।

कविता में मुक्तिबोधीय लय

वरिष्ठ कवि ओम भारती और युवा कहानीकार अशोक मिश्र के भविष्य सम्पादन में सार्वजनिक होने वाली पत्रिका 'रचनाक्रम' का प्रवेशांक। इसमें बेलीक भाषा-शिल्प के कारीगर विनोद कुमार शुक्ल की कविता- 'कविता' शीर्षक से प्रकाशित है। इसमें विनोद कुमार जी को जंगल से आदिवासियों के बेदखल होने की बात सुनानी है, मगर सीधे-सपाट तरीके से ऐसा कहने में कुछ अर्थ नहीं है इसीलिए वे बेदखली के तीन-चार काव्यपूर्ण उदाहरण और जुटा लेते हैं, तब जाकर आदिवासियों की बेदखली के खिलाफ स्वर मजबूत होता है। सारांश कविता का यह कि आदिवासियों को उनकी आत्मभूमि से बेदखल करना न सिर्फ अन्यायपूर्ण है, बल्कि असम्भव भी। आगे है मलय की लम्बी कविता 'अनचाही भटकती यात्राएँ।' इसमें शुरू से अन्त तक मुक्तिबोधीय अन्तर्लय पुनर्जीवित दिखाई देती है, लेकिन मात्र लय ही, अर्थ उस तरह से नहीं। इसमें समसामयिक जीवन के पीड़ाजनक यथार्थ को अनुराग और अटूट लगाव के साथ संवेदनाबद्ध किया गया है। जहरीले अन्याय के खिलाफ एक जिद्दी तनाव भी कविता में लगातार कायम है। इसी अंक में दिनेश कुमार शुक्ल की तीन कविताएँ 1. सिंघाड़े के ताल के पहरुए का गीत, 2. एक सुबह सड़क अनुभव,

3. बिना गूँज के। इन तीनों कविताओं में अपने जीवन अनुभवों की जीवित अभिव्यक्ति तो है, मगर कविता में जहाँ-तहाँ कनेर के फूल की तरह लटकते ये लोकबिम्ब लम्बे समय तक याद किए जाने लायक सुगन्ध नहीं बिखेर पाते। दिनेश कुमार शुक्ल लोक-यथार्थ के एहसास में, उसकी भदेस, आंचलिक मिठास में इस कदर डूबते हैं कि नए चिंतन की कौंध पैदा करने की उन्हें सुध ही नहीं रह जाती। 'नदी' और 'देवता' ये दो परम्परागत किस्म के शीर्षक हैं श्री प्रकाश शुक्ल की कविताओं के यहाँ कवि के अन्तस्थल में नदी के अस्तित्व की चिन्ता वाजिब है और उचित हैं उनके सावधान करने वाले शब्द 'ओ कलाकार! बचा सको तो बचा लो अपनी ऊँचाइयों में गंगा के लिए दो गंज जमीन (पृष्ठ संख्या 148)। नदी ही क्यों? यह समूची पृथ्वी ही प्रकृति की अद्वितीय, अनोखी धरोहर है, बचा सको तो बचाओ इसे। वैसे समझ जाओ कि तुमसे

प्रतिदिन वह छूट रही है।' (रचनाक्रम : प्रवेशांकजन.-जून 10, सम्पादक अशोक मिश्र)Ð

'लमही' का अप्रैल-जून 10 अंक। लोक-संघर्ष के समसामयिक चित्रकार सुरेश सेन निशांत की तीन कविताएएं 'सूखा' शृंखला में। जिसने अंचल-बस्ती में, खेत-खलिहान में, गाँव-गाँव, घर-घर में मृत्यु, अकाल और महामारी का पागल नृत्य करते सूखे का निर्लग्य नृत्य नहीं देखा है, वह ऐसे विषय पर विश्वासपूर्वक कलम नहीं चला सकता। मगर, निशांत ऐसे असहय अनुभवों के धनी हैं, इसीलिए उन्होंने परिवार, समाज और जनजीवन को बेतरह दुष्प्रभावित करने वाले सूखे के सत्यानाशी असर को स्वाभाविक आसानी के साथ, किन्तु वैचारिक गंभीरता बनाए रखते हुए पेश कर दिया है। सूखा भाई को भेज देता है दूर देश बहिन की ऑंखों से सूखा देता है ऑंसू दमकते चूल्हे की बुझा देता है आग छीन लेता है मेहनत से पकाई रोटी। (पृष्ठ संख्या-79)। आगे अरविन्द चतुर्वेद की कविता 'जंगलराग' में राग के साथ-साथ आग भी है, वो भी ंगैर पारम्परिक और खरी। उनकी पंक्तियाँ दबे, सताए और अपमानित हुए जीवन की अविस्मरणीय पीड़ाओं से उपजी हैं, इसीलिए उसमें हकीकत का स्वाद इतना तीखा है। कैलाश मनहर की दो कविताएँ 'पहाड़' और 'स्त्रियाँ'। पहाड़ को सिर्फ चुपचाप खड़े गूंगे अस्तित्व की तरह मत देखो। औरत हाड़-मांस और सौष्ठव की कोई निर्बोल मूर्तिमात्र नहीं। इन दोनों का वजूद इस दुनिया में हजारों बार व्याख्यायित होकर भी, अभी बहुत दूर तक अव्याख्यायित है। कैलाश मनहर ने इन दोनों के प्रति विस्मृत मूल्यबोध का पुनर्एहसास कराया है। संजीव राय की चार बेशीर्षक वाली फुटकल कविताएं। वे कठिन और बंजर विषय में भी कविता के लिए जगह ढूँढ़ ही लेते हैं, वो भी अपने अर्थ को मनवा लेने वाले दृढ़विश्वास के साथ। इनकी पंक्तियाँ कभी-कभी चला जाना बिजली का अच्छा लगता है, इस शहर में कुछ काम स्थगित हो जाते हैं बतिया सकते हैं थोड़ी देरफुर्सत से लगा सकते हैं अन्दांज हवा में कालिख का (पृष्ठ सं. 86)। (लमही-अप्रैल-जून 10, सम्पादकविजय राय)Ð

मुद्दा

आजकल लम्बी कविताएँ लिखना एक थकान युद्ध है। यह रिस्की दुस्साहस है और लाल तप्त तलवार से लड़ने का हिम्मती खेल। लम्बी कविता को छूने का अर्थ है, सौ किलो वजनी सोने की गदा उठाना, बिना शाखा वाले आकाशगामी वृक्ष के फल तोड़ना या फिर ऑंख-नाक बन्द कर पाँच मिनट तक जटिल अन्तर्मुखी साधना करना। लम्बी कविता की अनिवार्य शर्त है बेहिसाब चितंनशील होना, अत्यधिक तर्कवादी होना और मौजूदा हालात-ए-वक्त के प्रति सीमा से पार व्याकुल रहनावो भी जेनुइन किस्म से, प्रयासपूर्वक नहीं। इन सबके अलावा अबाध भावनात्मकता से परिपूर्ण ज्वारीय अन्तश्चेतना का मालिक होना लम्बी कविता का शब्द-साधक बनने के लिए अनिवार्य है। वरना ंफैशन में देखा-देखी कलम का मुर्चा छुड़ाने के लिए लम्बी कविता पर हाथ-पाँव चलाना, सैर-सपाटा के लिए 'मार्निग वाक' से कुछ ज्यादा मतलब नहीं रखता। विषय के गूढ़ मर्म को खोज निकालने वाली जिसके पास अचूक गोताखोर दृष्टि नहीं है वह सफलतापूर्वक सार्थक लम्बी कविता लिख ही नहीं सकता। आज लगभग हर युवा कवि आठ-आठ, दस-दस पेज में लम्बी-चौड़ी-मोटी कविताएँ लिख कर निराला-मुक्तिबोध की दुर्लभ परम्परा का अत्याधुनिक वारिस कहलाने के जुगाड़ में है।

अंशु मालवीय की लम्बी कविता 'नार्को टेस्ट'। इसमें जन-संदर्भों की लहक है, लोकप्रेम का प्रखर स्वर है, बीच-बीच में यादगार असर छोड़ने वाली मार्मिक पंक्तियाँ भी हैं, पर जो काबिलियत पूरी कविता में कमजोर है, वह है सधे हुए लक्ष्य से लैस दूरगामी दृष्टि। शब्द और वाक्य शीशे की तरह साफ होते हुए भी पारदर्शी अर्थ को जन्म नहीं दे पाए हैं। (नया ज्ञानोदय : जून 10, सम्पादक रवीन्द्र कालिया)Ð

'हंस' के मई 10 अंक में अनामिका जी की कविता 'खिचड़ी'। इसमें कवयित्री ने कुछ सुहाने-आकर्षक लोक शब्दों की फुहार मार कर मार्मिक अर्थों का आभास पैदा करने की जी-तोड़ कोशिश की है, पर योजनापूर्वक किए गए प्रयास में वह नैगर्सिक अर्थगांभीर्य कहाँ? भौतिक जीवन के साक्षात् अनुभवों को दिशा देने वाली अन्तर्दृष्टि के रूप में कैसे रूपान्तरित किया जाए, यह कौशल हर लेखक-कवि को नहीं पता होता है। यदि सबको यही तत्वज्ञान मिल जाता तो समकालीन परिदृश्य में चारों ओर मुक्तिबोध ही मुक्तिबोध दिखाई देते। इसी अंक में कुमार विश्वबन्धु की कविता 'नया साल'। इसमें नए साल के जाने-बूझे कटु यथार्थ का दो-टूक विश्लेषण किया गया है। यह जो 'नया साल' है न। और कुछ नहीं पूरे बारह महीने के लिए सुख,

उम्मीद और इच्छित सफलताओं का दिवास्वप्न मात्र है। साल भर के अप्रत्याशित अन्धकार का भीषण मानसिक तनाव है हर नया वर्ष। हमारे बेखास, बेरौनक भरे जीवन में नया वर्ष किस तरह हादसा,

बेबसी, हत्या, अपहरण और आत्महत्या

का वक्त साबित हो रहा है, प्रस्तुत

कविता में इस यथार्थ का बारीक

विश्लेषण हुआ है। (हंस, मई 10, सम्पादकराजेन्द्र यादव)Ð

'परिकथा' पत्रिका का युवा कविता अंक कई संभावनापूर्ण शब्द-सर्जकों की स्वस्थ बयार लेकर हाजिर हुआ है। प्रेमरंजन अनिमेष जैसे स्थापित युवा कवियों से लेकर बृजराज कुमार सिंह जैसे नव कवियों की एक जगह मौजूदगी स्पष्ट संकेत करती है कि 'परिकथा' वृहद् दृष्टिकोण के तहत युवा रचनाशीलता को परखना चाहती है। उसकी योजना में किसी खास कवि-समूह के लिए रिजर्वेशन नहीं है। बल्कि कहें, वह कलावाद और भाववाद की खेमेबाजी से ऊपर उठकर कविता को अन्तर्वस्तु की उत्कृष्टता के आधार पर प्रतिष्ठित

करना चाहती है। युवा कविता पर यह

संयोजन एक लम्बे समय तक याद

किया जाएगा।

यदि शुरुआत से मूल्यांकन की शुरुआत करें, तो शिरीष कुमार मौर्य की कविता 'एक दिन मारा जाऊँगा' ध्यान खींचती है। आजकल किसी के मारे जाने का कारण उसका कोई अपराध या अक्षम्य गलती नहीं, बल्कि उसका सीधा होना, न्यायप्रिय होना, स्पष्ट वक्ता होना और ईमानदारी में साँसें लेना कहीं पहले है। व्यक्ति की अच्छाइयाँ, सद्गुण और सद्विचार आज किसी की अकाल मृत्यु के अनसुलझे किन्तु अकाटय कारण हैं। शिरिष ने नए कलात्मक अंदाज में इस अविश्वसनीय सच को सफलतापूर्वक प्रकट किया है। 'ओ मेरे शरीर' यह है 'कोलाज' काव्य-संग्रह के अधिकारी-सर्जक रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति की कविता का शीर्षक। रवीन्द्र ने कृतज्ञ हृदय के साथ जीवन में शरीर की निर्विकल्प अर्थवत्ता को नम्र वाणी प्रदान की है। जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त शरीर हमारे साथ है जिससे हम लेते हैं बहुत-बहुत ज्यादा और उसे देते हैं बहुत-बहुत कम। ठीक आगे जनपद की नई आवाज महेशचन्द पुनेठा की कविता 'आत्महत्या'। इसमें कवि ने प्रतिबद्धता के साथ उन निर्मम कारणों की खोज की है, जिसके चलते कोई किसान आत्महत्या करने को विवश होता है। किसी भी किसान के द्वारा की जाने वाली आत्महत्या खुद को मिटा लेने का एक अन्तहीन मानसिक दवाब है। यह दबाव किसान के मन पर आदमियत के जानी दुश्मनों द्वारा बलपूर्वक बनाया जाता है। 'मुमकिन है' शीर्षक कविता अंशु मालवीय की। इस परिवर्तनकामी कविता की आग जीवन के कटु यथार्थ की प्रतिक्रिया में पैदा हुई है। प्रांजल घर की कविता 'कुछ भी कहना ंखतरे से खाली नहीं'। इसमें मीडिया के विश्लेषण ने इस बाजारवादी वक्त में मनुष्य के भीतर पैर पसारते दोहरे चरित्र पर एक चौंका देने वाली टिप्पणी की है। यह दोहरापन इस दौर का नकली नहीं असली चेहरा है। शैलेय की कविता 'हिमालय'। आजकल हिमालय या उससे मिलते-जुलते प्राकृतिक स्थानों पर गाड़ी भर कविताएँ उत्पादित हो रही हैं, किन्तु जब शैलेय हिमालय को शब्दों में नापते हैं तो इस एवरेस्टधारी शिखर व्यक्तित्व का वजूद एक नए अर्थ के साथ चमक उठता है। 'नाम में क्या रखा है' कहने के पीछे शेक्सपीयर का अपना दार्शनिक निहितार्थ था, किन्तु नाम में वाकई बहुत कुछ छिपा है, जीवन का इतिहास, परिस्थितियाँ, संस्कार, सोच-विचार और भी बहुत कुछ। ये नाम किसी को पहचान देने वाले चन्द अक्षरों के समूह मात्र नहीं हैं। निशांत ने अपनी कविता 'प्रेमचन्द को पढ़ते हुए' में इस सूक्ष्म सत्य को मजबूती से पकड़ा है। बसंत त्रिपाठी की कविता 'दुनिया की रफ्तार से बाहर खड़े लोगों के लिए'। इसमें कवि के भीतर एक तर्कपूर्ण, लोकतांत्रिक संकल्प है कि यदि अतीत में गलत हुआ है, तो हमें अतीत के पास जाना ही होगा। अतीत से घृणा करते हुए, पलायनवादी तरीके से अतीत के पतन को दुरुस्त नहीं किया जा सकता। 'इन दिनों बेहद मुश्किल में है मेरा देश' कविता अशोक कुमार पाण्डेय की। इसमें कवि की राजनीतिक चेतना पर्याप्त 'अप-टू-डेट' है और इसकी रोशनी में वे सत्ता-शासन के भीतर चल रही जनविरोधी गतिविधियों को सजग निगाहों से देख लेते हैं। 'तीस की उम्र में जीवन-प्रसंग' शीर्षक कविता कुमार अनुपम की। आज अपने सजीव, सप्राण मनुष्य होने को बचा पाना कितना चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है, यही अनुपम की कविता का सार तत्व है। मनोज कुमार झा की कविता 'रुचि'। इसमें कवि की चेतना लोकमार्गी है, उनकी अनुभूतियाँ लोकजीवन से रस खींचती हैं किन्तु उनके काव्यार्थ लोक यथार्थ की तरह ऊपर-ऊपर बहते नहीं दिखाई पड़ते, बल्कि अक्सर मुड़-मुड़ जाते वाक्यों की गति में महीन कण की तरह चमक जाते हैं। कविता जी में सिर्फ कहानी ही नहीं, कविता भी गहराई से जिन्दा है। 'बहुत दिनों से' शीर्षक कविता में पूरे कलात्मक धैर्य के साथ मन में उछलती, रेंगती, डोलती अनुभूतियों को भावबद्ध किया गया है। आगे प्रमोद कुमार तिवारी की कविता 'राजा डरता है', नीरज खरे की कविता 'समुद्र कहाँ नहीं है', प्रदीप जिलवाने की कविता 'यक्ष-प्रश्न', शंकरानंद की कविता 'युद्ध', घनश्याम कुमार देवांश की कविता बांजार (एक और दो) तथा बृजराज कुमार सिंह की कविता 'कविता समय' कोई न कोई नया मर्मपूर्ण निहितार्थ हमें सौंप कर समाप्त होती हैं। (परिकथा, युवा कविता अंक, मई-जून 10)Ð

लम्बी कहानी पर अर्धविराम

'नया ज्ञानोदय' के जून 10 अंक में प्रकाशित पंकज सुबीर की कहानी 'चौथमल मास्साब और पूस की रात'। इसमें चौथमल मास्साब और रामचंदर की पत्नी के बीच रसीला आकर्षण सहजतापूर्वक प्रस्तुत हुआ है। दोनों आशिकों में वासना की खुमारी चरम पर पहुँचते-पहुँचते 'यू' टर्न ले लेती है और यहीं पर कहानीपन छलक उठता है। आगे है बन्दना राग की कहानी 'ऑंखें'। इसमें कॉलेजिया लाइफ का लुत्फ उठाने वाली लड़कियों का अति सामान्य और रूटीन सत्य प्रकट हुआ है। लेखिका स्वयं ग्रेजुएट स्टडी की उन स्मृतियों का हिस्सा हैं। पूरी कहानी कॉलेज की खिलंदड़ी और सपाट लाइफ में बेखास और बेस्वाद शब्दों के साथ फैला दी गई है। वैसे इसके उप शीर्षकों में ऑंखों को सुकून देने वाला नयापन अवश्य है। दैनिक बातचीत और खुदरा वार्तालाप में लुढ़कती, फिसलती और भागती हुई कथ्य-शैली कहीं भी मर्मपूर्ण अभिव्यक्ति का गांभीर्य धारण नहीं करती। कॉलेजिया मौज मस्ती के हल्के-फुल्के अनुभवों को उसी प्रकार के शब्दों में उछाल देने के सिवाय इस कहानी का और कोई लक्ष्य है ही नहीं। इसी अंक में शशि भूषण द्विवेदी की कहानी 'छुट्टी का दिन'। एक नौकरीशुदा मध्यवर्गीय नौजवान प्रतिदिन कैसी दुश्वारियों से लड़ता है, उलझता है, खीझता है और आखिर समझौता करता है शशि भूषण ने पर्याप्त गतिमान भाषा में इसका विश्लेषण किया है। यह आत्मकथात्मक कहानी अपनी बुनावट में इतनी स्वाभाविक और चिरपरिचित लगती है कि वह किसी भी नौकरीपेशा नौजवान का आत्मसत्य बनती नजर आती है। राहुल सिंह की कहानी 'बारिश'। इसमें रोहण और वर्षा दो प्रेमी हैं। दोनों की प्रेम कथा अचानक शुरू होती है। राहुल के विषयवस्तु में कुछ भी तो नवीनता नहीं, प्यार जताने का अंदाज भी वही संस्कारबद्ध आशिक जैसा। अपनी पंक्तियों की अर्थक्ता से कहीं भी उद्वेलित न कर पाती हुई यह प्रेम कथा, प्रेम की अधूरी रुवाइयों में जीने वाले नरम-दिल नौजवानों को खुश कर सकती है। (नया ज्ञानोदय, जून 10, सम्पादकरवींद्र कालिया)Ð

'वर्तमान साहित्य' के जून 10 अंक में प्रकाशित मनोज श्रीवास्तव की कहानी 'प्रेम प्रपंच'। आधुनिक किन्तु पिछड़ी मानसिकता को लिए-दिए जीने वाले धर्मान्ध गाँव की कहानी है 'प्रेम प्रपंच'। इसमें कहानीकार ने गंवई बोली-बानी और विश्वास-अंधविश्वास को कथा के रोचक लय-ताल और छन्द में बांधा है। इसी अंक में कुमार शर्मा अनिल की कहानी 'रिश्ता रोजी से'। इसमें माइकेल म्यूजिक कम्पोजर है। उसके द्वारा बनाई गई धुनें पैसा देकर दूसरे लोग अपने नाम से खरीदते हैं। इस बात को लेकर माइकेल के भीतर फ्रस्ट्रेशन है, वह शराबी बन जाता है, काम-धन्धा छूट जाता है और अपनी प्रेमिका-पत्नी मारिया की नौकरी पर निर्भर हो जाता है। तेजी से करवट बदलती कथा के अंत में मारिया अपने एक दूसरे प्रेमी के बच्चे की माँ बन जाती है और यह क्षणभंगुर प्रेमी मारिया का परित्याग कर विलुप्त हो जाता है। यह जानते हुए भी कि मारिया के पेट में पल रहा बच्चा उसका नहीं है, माइकेल न सिर्फ उसका पिता कहलाना कुबूल करता है, बल्कि बच्ची के प्रेमवश शराब छोड़कर नए जीवन का शुभारम्भ भी करता है। इसी अंक में शिव अवतार पाल की कहानी 'बंधुआ'। माँ की निगाहों में लखपति, शहर की निगाह में लक्खू और मालिक की निगाह में लखुवा। तो, लक्खू घर की गरीबी और बेहाली से तंग आकर शहर भाग आया है। यहाँ बमुश्किल जीने-खाने भर को पैसा नसीब होता है बाल श्रमिक जो ठहरा। उसे मालिक से मिलता है कल्पनातीत तिरस्कार और न सुनने योग्य गाली। आखिरकार लक्खू अपने उसी खस्ताहाल में गाँव वापस

लौट आता है। कुछ पंक्तियाँ ''बंधुआ यानी खूँटे पर बंधा जानवर, जिसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। उसके जीवन की बागडोर मालिक के हाथ में होती

है, वह जैसे चाहे उसे नचाता है''

(पृष्ठ संख्या 57)। (वर्तमान साहित्य, जून 10, सम्पादिकानमिता सिंह)Ð

'हंस' के 'मई 10' में प्रकाशित मधु कांकरिया की कहानी 'चिड़िया ऐसे मरती है।' यह हिन्दी साहित्य में एम.ए. पास एक बेरोजगार नवयुवक और रेशमा नामक विनम्र युवती की टिपिकल प्रेम कहानी है। मधु कांकरिया विषय के परिवर्तनशील सत्य को अभिनव शब्द विन्यास में खोल देने वाली कुशल कहानी लेखिका हैं। इसमें प्रेम के गहरे, निर्मल, अनछुए एहसास को नई कथ्य शैली में जिन्दा किया गया है। प्रेम भारद्वाज की श्रेष्ठ कहानी 'शहर की मौत' की चर्चा करने के क्रम में अशोक मिश्र की कहानी 'गाँव की मौत' याद हो उठती है। एक ही समय दो मौतेंगाँव की और शहर की भी। इसमें कहानीकार की लोकपक्षधरता पूरे उफान पर है। वाक्य-दर-वाक्य मानो जोर-जोर से आवाज देकर कह रहा हो देखो मुझे, मैं वेदना की किस भूमि से उपजा हूँ, किस मिट्टी में पनपा हूँ, किन हाथों ने मुझे सींचा है। आज एक शहर में सिर्फ दो-तीन नहीं, बल्कि पाँच-सात शहर हैं। शहर में गुमनाम रहकर बहती हुई आम जिंदगी का किसी भावुक भक्त की तरह धड़कनों भरा चित्रण किया है, प्रेम भारद्वाज ने। आज भारत सरकार को अपने शिंकजे में लिए हुए अल्ट्रा पूँजीपति वर्ग कैसे अपनी अथाह उन्नति के लिए आम जिंदगी को नेस्तनाबूद करने पर तुला हुआ है, यह कहानी इस क्रूर सत्य का भंडाफोड़ करती है। (हंस, मई 10, सम्पादकराजेन्द्र यादव)Ð

सम्पादन-महज एक खानापूर्ति नहीं

वर्तमान साहित्य की सम्पादिका नमिता सिंह ने 'जून 10' अंक के सम्पादकीय में समसामयिक मुद्दों की शृंखला ही खड़ी कर दी है 1. काव्य-सृजन में अनुशासनहीन अराजकता, 2. मुम्बई में हिन्दी भाषियों का उत्पीड़न, 3. प्रेम का बाजारीकरण,

4. सामाजिक सरोकारों को स्वर देने वाली कहानियाँ। सम्पादिका इन सभी मुद्दों पर जिस साफगोई और वाजिब चिन्ता के साथ कलम उठाती हैं, वह उन्हें महज खानापूर्ति कर देने वाली सम्पादिका नहीं रहने देता। देखिए कविता पर जड़ा गया एक तमाचा ''कविताओं का इतना बुरा हाल कि गद्य और पद्य में कोई कुछ भी लिखकर डाल देता है और उसे कविता का नाम दे देता है। इस बुरे समय में सरस, अर्थवान और काव्य तत्व के साथ कोई कविता मिल जाए तो अहोभाग्य!'' (पृष्ठ संख्या 4)। (वर्तमान साहित्य-जून, 2010)Ð

'कबीर का आत्मसातीकरण' शीर्षक आलेख वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पाण्डेय का है, जो कि 'बहुवचन' के जनवरी-मार्च 10 अंक में प्रकाशित है 1. नाभादास की कृति भक्तमाल उत्तर भारत के भक्तिकाव्य का विश्वकोश है, 2. भक्तमाल की पहली टीका प्रियादास ने 1712 ई. में लिखी,

3. संस्कृत के वर्चस्व से अपनी मातृ भाषाओं की मुक्ति का मार्ग जिन कवियों ने बनाया, उनमें मराठी के संत और भक्त ज्ञानेश्वर का नाम सबसे आगे है। उपरोक्त कीमती तथ्य हम नहीं दे रहे, बल्बि भक्तिकाल के सूक्ष्मदर्शी अन्वेषक मैनेजर पाण्डेय ने उपरोक्त तथ्य अपने सुचिन्तित लेख में

दिए हैं।

नये अंक : एक रचना

1. प्रेमचन्द और नारी की यौन-शुचिता का सवाल (आलेख), अभिनव मीमांसा, अप्रैल 10, विवेक पाण्डेय।

2. हिन्दी कविता में दलित-प्रश्न, पूनम सिंह, वचन, मई 10, सम्पादक-प्रकाश त्रिपाठी।

3. संवेदनाओं का जूस (कविता), नरेश कुमार टांक, पाखी, जून 10, सम्पादक अपूर्व जोशी।

4. हिजड़ा (कहानी), सुदर्शन प्रियदर्शिनी, आधारशिला, जून 10, सम्पादक-दिवाकर भट्ट।

5. चैत की दोपहर (कविता), हरिशंकर अग्रवाल, कृति ओर, अप्रैल-जून 10, सम्पादक-रमाकांत शर्मा।

6. इन्सान के विराट का जयघोष (उपन्यास) सम्पादक, कृष्णकिशोर, अन्यथा, अंक 15, सम्पादक कृष्णकिशोर।

7. 1857 : रस्मी अध्ययनों और कथनों से परे

8. कुछ जरूरी और गहन... (आलेख) प्रदीप सक्सेना, आलोचना, अप्रैल-जून 10, सम्पादक-अरुण कमल।

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