Friday, January 7, 2011

महुआ-पट्टी (कहानी - भरत प्रसाद)

नींद में डूबी हुई सुबहें
गल से कुछ दूर आगे निकल जाने पर नन्दा को कहीं किसी ओर से मोटर साइकिल जैसी आवाज की भनक मिली... दग्... दग्... दग्... दग्... नन्दा ने खुद से पूछकर संदेह पक्का किया 'इ त बुलट क आवाज ह'। अपने ठीक आगे गट्ठर लादे रेंग रही बेलवा को नन्दा ने चौंकाया... 'तू भी कुछ सुन रही है बेलवा?'
'नहीं तो? बेलवा बोली।'
'इ तरफ केहू मोटर साइकिल चलावत आवत बा'नन्दा ने फिर आशंका जताई।
'अच्छा...? आवे द दीदी, देखल जा तनी के ह।' बेलवा थोड़ी देर चुप रहकर कुछ सोचते हुए बोली... 'दीदी, उ हरामी डिप्टी दरोगवा त नाहीं ह? पिछले महीना जंगलवा में तोहार बाँह पकड़ि लिहले रहल और तू जोर से चिल्लाइल रहली'। 'मुँह बंद कर आपन केहू सुन लेई त खैरियत नाईं बा' नन्दा ने डाँटते हुए बेलवा को चुप कराया।
दोनों युवतियों की गुप्त बातचीत का सिलसिला चल रहा था, उधर आकाश की ऊँचाईयों में सिंदूरी संध्या का रहस्यमय धुंधलापन प्रगाढ़ होता चला जा रहा था। नन्दा का अंदेशा सही निकला। सामने डिप्टी दरोगा चौहान की बुलेट दग्... दग्... दग्... दग् का दिल दहलाने वाला शोर मचाती हुई दिखाई दी। दो मिनट, एक मिनट, तीस सेकेंड, दस सेकेंड... पाँत में सबसे आगे चलती हुई बेलवा चौहान की मोटर साइकिल के ठीक-ठीक निशाने पर। चौहान ने गाड़ी बुझा दी, भूरा चमकदार चश्मा भी उतार लिया और गाड़ी की अंडाकार टंकी को फालतू धुन में बजाता हुआ बोला 'तुम सब ये फोकट का माल लेकर कहाँ से आ रही हो? ऐं...? जंगल से? तुम सबने बाप का धंधा समझ रखा है? किसी दिन जेल में सड़ाऊँगा, तब समझ में आएगा, तुम सालियों को।'
दारोगा की भद्दी गाली सुनते ही बेला मारे गुस्से के ऐंठ कर रह गई। आखिर जब नहीं रहा गया, तो बोली 'आपके पता होई दरोगा जी, हम लकड़ी काटिला नाईं, पेड़ से सूखि के गिरल लकड़ी बीनी ला। इ त कौनो गुनाह नाईं है?'
'अरे चुप्! जुबान लड़ाती है। सब समझता हूँ। इसी उम्र में जवानी चढ़ने लगी है क्या? बोल! तेरी वो दीदी नन्दा कहाँ है?' एक कतार में बोझा लेकर खड़ी औरतों को बेहया निगाहों से घूरा 'तो यहाँ खड़ी हो तुम! ऐं, मैंने तो सोचा तुम इधर आना ही बंद कर दी होगी, लेकिन कमाल है तुम तो साक्षात् सामने दिखाई दे रही हो। बताओ नन्दा। कैसी हो? थाने पर, घर पर, कहीं भी रहूँ, बैठा-बैठा तुम्हारे बारे में ही सोचता रहता हूँ। तुमसे मिलने की कई बार कोशिश की, मगर एक तुम हो कि हमें मौका ही नहीं देती।' चौहान के अपमानजनक, जहरीले शब्द नन्दा के एक-एक अंग में अजीब-सी थरथराहट पैदा कर रहे थे। वह चिल्लाए, रोए, बोझ पटककर भाग जाए, इस नालायक को भर कंठ गालियाँ दे या दसों अंगुलियों से उसका गंदा मुँह नोच डाले, कुछ समझ में न आ रहा था।
लकड़ी का बोझ संभाले जब बेला को लगा कि अब चक्कर खाकर गिर पड़ेगी, तो हिम्मत जुटाकर एक बार फिर बोली 'हम सबके जाए द दारोगा जी! माथे पर बोझा लिहले हईं। घरे पहुँचत-पहुँचत राति हो जाइ।' चौहान ने कुछ सोचकर बेला को त्योरियों के बल घूरते हुए कहा 'अच्छा? घर जाना चाहती है? डर लग रहा है? जाओ!'
डिप्टी दारोगा का आदेश पाकर पाँत जब फिर आगे खिसकने लगी तो गाड़ी से सटकर गुजरती हुई इक्कीस वर्षीया नन्दा को सुनाते हुए चौहान फिर फुसफुसाया 'मैं तुम्हारे जवाब का बेसब्र्री से इंतजार करूँगा, नन्दा! मुझे तुम पर पूरा भरोसा है। काफी समझदार हो तुम।' पाँच मिनट के बाद जब पूरी पाँत चौहान के बगल से होते हुए गुजर गई तो सबसे अंतिम औरत से कड़क आवाज में लगभग आदेश देते हुए बोला 'दो दिन बाद ठेकेदार तुम्हारे गाँव जाएगा।'
छोटी-छोटी दर्जन भर बस्तियों का यह ठंडा-सपाट अंचल शहर की मुख्य सड़क से करीब 12 कि. मी. के फासले पर है। इस अंचल में उतरने वाले रास्ते टूटे-फूटे, कच्चे और घुमावदार कुछ इस कदर हैं कि पूछिए मत। आना है चंदनपुर तो दस बार अपनी धड़कन रुकने के बारे में सोच लीजिए। देखना है बनकटिया, तो अपनी ऑंखों के साहस पर पुनर्विचार कर लीजिए। पहुँचना है महुआपुर तो बिना किसी सवारी के पैदल चलने की हिम्मत बाँध लीजिए। कहने-सुनने के लिए ये आजकल के गाँव हैं। यहाँ भी 21 वीं सदी की सुबह-शाम होती है। यहाँ के वायुमंडल में भी नए युग की हवा बहती है, परंतु ये सात-आठ बस्तियाँ पोलियोग्रस्त बेटियाँ हैं धरती की, बौनी झाड़ियाँ हैं मानव सभ्यता की, रिसता हुआ नासूर है बूढे क़िसान का। रात घिरती है तो धरती के नक्शे से गायब हो जाती हैं। सुबह होती है, तब यकीन होता है कि अभी इनमें जान बाकी है। एक निस्तेज, विरक्त और खोखला-सा वातावरण सदैव घिरा रहता है इस समूचे अंचल पर। लगभग दो कि. मी. के फासले पर बेहिसाब अंदाज में चौतरफा पसरा हुआ जंगल इन बस्तियों का हाथ-पैर है, इज्जत-आबरू है, जीने-खाने का स्रोत है। घास की तरह धरती से चिपकी हुई इन बस्तियों को जीवित बने रहने की ताकत इस जंगल की दौलत से ही मिलती है।
गर्मी में थकी-थकी-सी सुबह के बदरंग क्षितिज पर सूरज धीरे से उठ आया लटपटार रोशनी में नहाया हुआ। गाँव-गाँव के आकाश पर एक और दुनिया गुलजार होने लगी है। अभी कुछ देर बाद पक्षियों का रेला जंगल की तरफ बहता नजर आएगा। लावारिश छुट्टा जानवरों की तो खैर यह शरणस्थली ही है। वे देश-देश से, ताल-तलैया से चर-चुर कर भाग-फिर कर कहीं वापस आते हैं, तो इसी जंगल के निर्जन अंचल में। और पंक्षियों की आबादी? किसिम-किसिम की रंग-बेरंग चिड़ियाँ अकेले या समूह बाँधकर आकाश की हवाओं में तैरती रहती हैं। शाम ढलने के घड़ी भर पहले वे जंगल के वातावरण को अपने कलरव में डुबो लेती हैं और भोर आने के ऐन पहले ऊँची-बौनी शाखाओं के कोटर का सुख छोड़ कर पुन: उड़ जाती हैं सैर-सपाटा करने, पिकनिक मनाने, पेट-पूजा करने।
रोज की तरह आज भी चंदनपुर, जलारे, चनहवाँ, महुआपुर जैसे पड़ोसी गाँवों से अधेड़ औरतों, किशोरियों और युवतियों की पंक्तियाँ दूर से जंगल की ओर ढुलकती दिखाई देने लगी हैं। कच्ची सुबह की बेला, थिरक कर नाचती गर्मी का महीना, ताल-पोखर-बावड़ी सब मूल्यहीन होने लगे हैं। किशोरियों ने अपने माथे की पगड़ी पर तसला रख लिया है। गाँव के कुएँ का पानी जाड़े के तालाब की तरह ठण्डा-निर्मल रहता है, सात-आठ घंटे तक पीने लायक टिक जाता है। पानी के बगैर इन सबका दोपहर तक वहाँ टिक पाना दुश्वार हो जाए। एक तरफ कुल्हाड़ियों से जंगल की सूखी लकड़ियाँ काटना, दूसरी तरफ पेडाें की पत्तियों-शाखाओं से छनकर बरसती हुई चिंगारी, हलक बेतरह सूखकर काँटा बन जाता है। उस क्षण पानी का एक ठंडा घूँट भी सौ घड़ा अमृत के बराबर लगता है, जो कंठ के नीचे उतरते ही रोम-रोम को परम शांति के आनंद से तृप्त कर देता है, आत्मा अपनी जगह ठहर जाता है, चित्त थिर हो जाता है, मानो ठठरी में प्राण होने का एहसास फिर से होने लगा हो। फूलकुमारी, फुलवारी, बेला, अजोरिया, नंदिता ये हैं टोली की चार-छह युवतियाँ जिनकी नित्य की जिम्मेवारी है कि कुँए से पानी खींचे, तसला माँज कर पानी भरें, ध्यान से मुँह ढँके और विमली, जमुनी, इमरती, निदिया के माथे पर तरीके से बैठाएँ। जंगल ऐसा कुछ पास में भी नहीं, दो किलोमीटर पैदल चलने वाले के लिए कुछ तो होता है, वो भी खेत-ऊसर के बीच का कच्चा रास्ता, घुमावदारआड़ा-तिरछा। हद से हद सुबह के अभी साढ़े आठ बजे होंगे, इन औरतों और बेटियों की पाँत अदृश्य पगडंडियों पर बहती चली जा रही है। सुबह-सुबह चौहद्दी के वायुमंडल में उड़कर जमी हुई हल्की-हल्की धूल कह रही है कि कुछ ही देर पहले किसी तीसरे गाँव का हुजूम अभी जंगल की तरफ निकला है।
यह जंगल जो कि सैकड़ों वर्ष पुराना है, पंद्रह किलोमीटर से क्या कम चौड़ा होगा? अपनी इतनी लंबी उम्र में बेरोकटोक कितनी दूर तक पसरा होगा, इसकी थाह आज तक कोई नहीं लगा पाया है। बस यही समझिए कि रहस्य, रोमांच, आश्चर्य, सुख और आकर्षण की अपार माया समेटे हुए है। थोड़ा तबियत से उसकी गहराई में उतरते ही दिखाएँ गुम होने लगती हैं, पैरों के निशान साथ छोड़ देते हैं और दूर सीमांत में उतरा हुआ आकाश का खुलापन नजरों से ओझल हो जाता है। इंच-दर-इंच घने पेड़ों की ऊँची-ऊँची दीवारें आकाश के अवकाश को ढँक लेती हैं। हर वक्त इन दरख्तों के मौन से एक जादुई झनकार बरसती है, लद-बद झुकी हुई पुरानी शाखाओं से दिन-रात अंधकार चूता है और जमीन के रेशा-रेशा अंग से निपट अंजानी गंध उड़ती है। जंगली शीशम, जामुन, पाकड़, सागौन, सेमल, गूलर, कठजामुन और नीम के ऐसे-ऐसे मुस्टंड पेड़ खड़े यहाँ दिख जाएँगे, जिनका ऐसा रूप-रंग गाँव की चौहद्ददी में दूर-दूर नजर नहीं आता। आपस में एक-दूसरे को आसरा दे-देकर सबके सब इस कदर हरे हो उठे हैं कि इनको निहार कर गाँवों की हरियाली पर रोने को जी करता है। उधर ऑंधी में छूटकर गिरा हुआ पेड़ पड़ा है, इधर बूढ़े वृक्षों की उच्चस्थ शाखाओं से सूखी लकड़ियाँ टूट-टूटकर जमीन पर फैली पड़ी हैं और फिर कठजामुन का पुराना वृक्ष भी कहाँ शत-प्रतिशत हरा रहता है? इन औरतों को सूखी लकड़ियाँ बटोरने के लिए जंगल के विस्तार में दौड़ने की
जरूरत नहीं। करीब-करीब हर पेड़ एक-दो रोज के बाद इनके घर में चूल्हा जलाने लायक सूखी लकड़ियाँ धीरे से गिरा ही देता है।
गाय-भैंस के अकाल वाले गाँव
चंदनपुर, बाँसगाँव, बनकटिया कुछ बड़े गाँव नहीं हैं, न ही इनमें कोई घर पक्का लिंटर का बना हुआ है। तमाम सारे घर या तो झोपड़ीनुमा हैं या फिर खपरैल! गाँव की कमर से सटकर छिछले ताल-पोखर हैं, जिसके बजबजाते, बस्साते पानी पर हरी काई की परत जमी रहती है। थोड़ी ऊँचाई पर आबाद घने बाँस तालाब की आधा चौड़ाई को दिन-रात साष्टांग दंडवत करते रहते हैं। नन्हें मेढकों, चुलबुली मछलियों, अवारा मच्छरों और डरपोक साँपों के लिए यही अंधकारमय ठंडी छाया ही सुरक्षित शरणस्थली है। दिन भर पोखर में नाच-कूद कर मेढक जब थक जाते हैं तो पानी पर उतरी हुई बाँस की इसी सर्द छाया में इन्हें मानसिक सुकून मिलता है। बाँसगाँव की पूरब दिशा में दस कदम की दूरी पर आम, अमरूद, जामुन का एक बागीचा है, जिसमें अधिकांश वृक्ष महुआ के हैं। किसी-किसी बस्ती में तो खालिस महुआ ही महुआ के बगीचे हैं। आधा दर्जन महुआ के बाग। इनमें फूल लगते ही गाँव में चहल-पहल मच जाती है। साल भर वीरान रहने वाले कच्चे रास्तों पर धूल उड़ने लगती है और गाँव का निचला आकाश मदहोश कर देने वाले धुँए के जमाव से बोझिल होने लगता है। इन दर्जनों गाँवों में शायद ही कुछ घर मिलें जहाँ दोनों टाइम चूल्हा जलता हो, हाँ देर शाम को यहाँ भट्ठियाँ जरूर सुलगती हैं। बड़े-बड़े तसलों में उबलते हुए कच्चे महुए की मादक गंध जब गलियों में उड़ती है तो कुत्ते-बिल्ली तक उधर खिंचे चले जाते हैं और आधा-एक घंटे में हू-ब-हू लावारिश सामान की तरह चित्त पड़े हुए पूरे बारह घंटे की नींद सोते हैं। इन गाँवों में गाय-बैल का अकाल है, फिर भैंस पालने की बात सपने में भी नहीं सोची जा सकती। किसी मर्द की इतनी हैसियत ही नहीं। दरअसल यहाँ गाय-भैंस की जरूरत ही नहीं। हर घर में लरकोर माएँ हैं। दो-दो, तीन-तीन साल के वेखास बच्चे यहाँ बीसों घरों में मौजूद हैं। इंद्रावती की गोद में डेढ़ साल का पट्टू है सूखी घास की तरह चिड़चिड़ा। बात-बेबात पर रोने वाला। भट्टी के धंधे में खलल पैदा करता है तो इंद्रावती एक सीमा के बाद बर्दाश्त नहीं कर पाती, पट्टू को भर पेट दारू पिला देती है। पट्टू पल भर में सो जाता है, अथाह गहरी नींद, इतनी गहरी जिसमें सपने नहीं आते। यह ऐसी-वैसी नींद नहीं है। यह और बच्चों की तरह नींद नहीं है। इसमें सिर्फ हाथ-पैर हृदय और मस्तिष्क भी सो जाता है। पट्टू जब सोता है, तो 9-10 बजे दिन में
जगता है, फिर वह जैसे ही सूखी
अंतड़ियों से बिलबिलाकर हिन्न-हिन्न रोना शुरू करता है, माँ एक गिलास रस फिर थमा देती है।
पार्वतीबाई चंदनपुर के लखई कँहार की पत्नी है। अभी दो साल पहले उसकी गोद में इमरती बिटिया का आगमन हुआ। माँ की हसरत थी कि चाहे जो कुछ हो जाय, इस बार इमरती को अपने पिछले दो बच्चों की तरह नहीं पालेगी। पहले के वे दोनों बच्चे सयाने तो हो गए हैं। मगर चमड़ी के भीतर से एक अजीब-सा गीला पीलापन झाँकता रहता है। आठ-आठ, दस-दस बरस के हो आए, आज भी साफ-साफ चार लाइन नहीं बोल पाते। काँच की गोली की तरह लक्-लक् चमकती ऑंखें इसी उमिर में धँसने लगी हैं। बड़का बेटा तो अभी से बुजुर्ग दिखने लगा है। अपने घर में पीने को नहीं पाता तो दूसरे गाँव से पीकर आता है। दो दिन अगर लाल पानी नहीं दिखा तो आत्मा पागल की तरह ताता-थइया करने लगती है। पार्वतीबाई ने इस बार निश्चय किया है कि इमरती के लिए कहीं से भी दूध जरूर मँगाएगी, उसे दारू पीने की आदत नहीं बनने देगी, लखई से चाहे जितनी लड़ाई मोल लेनी पड़े। परंतु पार्वती की यह ख्वाहिश अभी सपने में देखी गई दूर की कौड़ी है। फिलहाल रोज शाम इमरती की भी भूख दारू पीकर की शांत होती है। यह जरूर है कि पीने ही जिद्द कम करती है। घर के कोने-अंतरे में पड़ी-पड़ी माँ की प्रतीक्षा करती रहती है कि माँ अभी आएगी और पेट भर देगी।
एक दिन सुबह-सुबह मुरारीलाल ठेकेदार अपनी खटारा स्कूटर हनहनाता हुआ चंदनपुर आ धमका। मीठी-मीठी बातें फेंकने में अव्वल दर्जे का, जानी दुश्मन को भी अपने पाले में शामिल कर लेने वाला। जरूरत से कई गुना ज्यादा हँसमुख, बात-बात पर बत्तीसी दिखाने में पारंगत, कहीं भी, किसी के साथ किसी भी मुद्दे पर सिर्फ टेप की तरह हाँ-हाँ बोलने वाला और पहले दर्जे का घुटना टेकू। पार्वती झोपड़ी के बाहर कुछ करने के वास्ते निकली तो देखती है कि मुरारी स्कूटर के दोनों बगल लटके 'कंटेनर' उतार रहा है। उसे देखते ही मारे घृणा और क्रोध के पार्वती की अंतरात्मा में एक अजीब आग धधक उठी। एक मिनट के अंदर उसने मन में गालियों की झड़ी लगा दी 'कमीना! दारू बेंचले क धंधा खोलले बा, दलाली करा ला, दरोगा-पुलिस एकर दमाद हवें। एतना काली कमाई कइसे पचा लेत बा, हरमिया? जी त जरत बा-उठाईं डंडा और चुत्तर पर मारि-मारि के कचूमर निकाल लेईं। इहाँ से दारू लेइ जाई दस रुपया लीटर अउर शहर में पैकिट बना के बेंची पच्चीस रुपया में। लूट क जमाना है। अउर इ लुटाई में भी लूट। बिना थाना-पुलिस के घूस देहले चैन नाही बा। अरे जा कलमुँहऊ! हमार बाल-बच्चे रोज-रोज भुक्खन रोवत-कलपत बाटँऽ, तुम्हें संतान क मुँह देखल नसीब नाईं होई।' मन में मुरारीलाल के प्रति इतनी वितृष्णा के
बावजूद पार्वतीबाई ने नरमी भरे लहजे में पूछा... 'बुलाईं इमरती के दादा के?
माल लेवे आइल बाटा?' मुरारी लाल की वही घिसी-पिटी मशीनी मुस्कान... 'हाँ-हाँ, भउजी! बुलाओ लखई भाई को। किस दुनिया में रहते हैं आजकल? दिखाई
नहीं पड़ते। बुलाओ, जरा काम की बात करनी है।'
पार्वती तैश में धीमे-धीमे बुदबुदाती हुई झोपड़ी के अंदर गई और अपने पति लखई से बिफरते हुए बोली 'जा, बाहर देखा, शैतान बुलावत बा, जल्दी जा, देर करबा त सनक जाई।'
'शैतान? केकर बात करत बाटी? (माथे पर बल देकर सोचते हुए) अच्छा, अच्छा मुरारी लाल। आइल बा का?'
'हाँ, उहऽ मुररिया। दारू लेवे आइल बा। बड़का कंटेनर लेके। कहि द घर में माल-ताल नाई बा।'
'कइसन बात करत बाटी? दारू बेंचबे नाई, त घर क खर्चा-बर्चा कइसे चली? भुला गइली, पिछले महिन्ना जंगल से लकड़ी लावत समय तें बेहोश हो के गिर पड़ल रहली। हजार के आस-पास नोट फुँका गइल झाड़-फूँक, सूई-दवाई में। आपन धंधा न होत, त के देत एतना रुपया? इहाँ त जहर खाए खातिर उधार मँगले पर रोकड़ा मिले वाला नाई बा।'
'तब जा, जौन मन में आवऽ करा।' तमतमा कर बोलती हुई पार्वती हार खाकर चुप हो गई।
लखई को झोपड़ी से बाहर आते देखकर मुरारीलाल की पुतलियाँ लबालब खुशी के मारे नाचने लगीं। लपक कर बढ़ आया लखई की ओर और चापलूसी भरी याचना की मुद्रा में बोला 'का भाई लखई, आजकल मुझसे खंफा-खंफा से रहते हो? हिसाब-किताब में कभी बेईमानी करता हूँ क्या तुमसे? मैंने तो कितनी बार एडवांस भी दिया है, ताकि मैं भी निश्ंचित रहूँ और तुम्हारा भी कामकाज रुकने न पाए।'
'ना, ना भाई साब। अइसन कौनो बात नाई। दरसल घर में दुई साल क बिटिया भी त बा। वोकरे पीए भर के बचावे के पड़ी न! आजकल धंधा मद्धिम चलत
बा। तोहें देवे भर के आजकल बचा ला कहाँ?'
'मैं सब समझ रहा हूँ, भाई! मगर क्या करूँ? शहर के हाकिम-हुक्काम, कंपनी-कारोबार के मालिक दिन पर दिन दारू का आर्डर बढ़ाते चले जा रहे हैं। बार-बार धमकाते भी हैं कि चाहे जैसे भी हो, दारू ले आओ। उन्हें 'ना' सुनना बर्दाश्त नहीं है।'
'त ऊ सबके डर से कहीं भाग जाईं या आपन जान दे देईं का? एक त हम जइसन अभागा लोगन के एतना भी औकात नाई कि दू-दू, तीन-तीन साल के बच्चन के दूध पिला सकल जा। मगर का करिं? दिमाक कुछ काम नाईं करे ला। सब तुहीं के बेंचि देब, त इमरती के का पियाइब? तोहरे कारन अब वोकर हिस्सा भी न रहे पावऽ?'
'मेरी भी मजबूरी है, लक्खू भाई, आर्डर पूरा नहीं कर पाया तो मेरी ठेकेदारी चौपट हो जाएगी, लुट जाऊँगा मैं, सड़क पर आ जाऊँगा। साहब लोगों की
मेहरबानी पर ही यह ठेकेदारी सालों से चल रही है।'
पार्वती झोपड़ी के अंदर बैठी दम साधे मुरारीलाल और लखई की बहस सुन रही थी। ठेकेदार की यह निर्दयी बोली सुनी तो बैठा रहा न गया और तडाक से दरवाजा खोलकर बाहर निकल आई, बोली 'देखा ठेकेदार जी, तोहरे आडर-फाडर से हमके कौनो मतलब नाईं बा। जब अपने जरूरत से फालतू दारू बची, तब्बऽ तोहें मिली, जनला की नाहीं? पार्वती के आक्रोश पर ठेकेदार भी आपा खो बैठा और बड़बड़ाया 'लक्खू भाई, समझाइए भौजी को। हम कोई उधार या फोकट में माल लेने नहीं आए हैं। इस बार तो कोई बात नहीं, मगर अगली बार मैं आना-कानी नहीं सुनना चाहता। चर्बी चढ़ गई है तुम लोगों को। मुझे तो इंकार कर दे रहे हो, चौहान दरोगा को कैसे मना कर पाओगे? उनके तो एक ही इशारे पर खुद ही लेकर थाने भागे चले जाओगे।'
लखई नहीं चाहता था कि द्वार पर आए मेहमान के साथ कोई बखेड़ा खड़ा हो, इसीलिए इशारे से पार्वती को चुप
कराते हुए मुरारीलाल को भी संकेत दिया कि वह चला जाए और बाद में किसी दिन आए। अपमान के क्रोध में भीतर-भीतर झुलसते हुए ठेकेदार ने सीधे निगल जाने वाली ऑंखों से पार्वती को घूरा और स्कूटर स्टार्ट करते हुए एक मिनट में ओझल हो गया।
'भुक्खन ऐंठी-वैंठी के मरि जाब, लेकिन...'
चनहवाँ और महुआपुर गाँव जुड़वाँ भाई जैसे हैं। एक बराबर घर वाले, एक ही तौर-तरीके में जीते हुए, एक ही तरह की बोली-बानी, एक ही जैसा काम-धंधा और एक ही रंग-ढंग की खेती-गृहस्थी। दारू का धंधा चलाने वाले कई परिवारों के पास तो खेती के नाम पर बित्ता भर भी जमीन नहीं। अपनी झोपड़ा जहाँ खड़ा है, बस उसे ही अपनी जमीन कह लें तो कह लें, वरना अपनी खेती किसे कहते हैं, इसका एहसास उनके हृदय से कोसों दूर है, अपने श्रम की हरियाली देखने का सुख इन्हें सपने में ही सुलभ है। ये खेत में खड़ी फसल का अनाज तो छू सकते हैं, मगर मजदूर बनकर, अपनी मेहनत को बेचकर। वरना इन गाँवों की चौहद्दी में क्या खेती-बारी नहीं होती? या धान, गेहूँ, अरहर, मक्का और ईंख की हरियाली नहीं दिखती? मगर मजाल क्या कि लखई जैसे निवासी वर्षों-बरस की इस अनाजदार हरियाली पर एक अंगुल भी दावा कर सकें। ऐसा एक बार नहीं, सैकड़ों बार हुआ है कि दूसरे के खेत में मजूरी-धतूरी करते वक्त ये भरी दोपहर बेहोश हुए हैं। मिनट-मिनट पर कच्ची शराब की उल्टियाँ हुई हैं और चौबीस घंटे के भीतर झोपड़ी के दरवाजे से लाशें उठी हैं। अब अधिकांश ने खेत में मजूरी करना बंद कर दिया है, उधर कभी ताकते भी नहीं। खाली पेट धूप में खटने से सिर्फ मौत ही मिलती है, और कुछ नहीं। जब पी-पी कर मरना बदा है तो पराई धरती पर क्यों मरें, अपनी जमीन पर क्यों नहीं? रोज-रोज दारू की भट्टी फूंक कर पूरे परिवार का पेट भर पाना दिनों-दिन कठिन होता जा रहा है लखई के लिए। केवल लखई ही क्यों, उसके गाँव के चइतू, मंगल, लंगड़, सुग्रीव गिरधारी आदि की दशा भी कहाँ उससे अलग है? इनमें से एक-दो नहीं, कई कुल्हाड़ी और रस्सी लेकर देर शाम को घर से निकलते हैं और चारों ओर काला अंधेरा पसर जाने पर गाँव लौटते हैं। सोच यह रहती है कि उनको न कोई जाते हुए देखे और न आते। एक-एक कदम फूँक-फूँककर रखने के बावजूद न जाने कैसे सरकारी चौकीदारों को खबर लग जाती है। फिर तो सड़ो थाने में। खाकी वर्दी पहने वहाँ एक से बढ़कर एक भुक्खड़ हैं।
एक शाम चंदनपुर का लंगड़ जंगल की डालियाँ काटते पकड़ लिया गया। न जाने कब, किसने, किस लालचवश थाने में खबर कर दी कि लंगड़ कुल्हाड़ी लेकर जंगल की ओर गया है। नाटे कद के ललन चौकीदार ने सीधे-सीधे, साक्षात्, सशरीर लंगड़ को लकडियाँ काटते धर लिया। लंगड़ हाथ पकड़कर लाया गया थाने और बैठा दिया गया लावारिस गठरी की तरह डिप्टी दारोगा की कस्टडी में। रात के आठ बजे का समय, दीवार पर टंगी, टक्-टक् करती घड़ी की नीरस आवाज लंगड़ की कनपटी को मानो छेद डाल रही थी। घूमने के लिए फ्री रहने वाली ऊँची कुर्सी में चौहान को धँसा हुआ देखकर लंगड़ की दोनों ऑंखों को करंट मार गया। एक पल के लिए लगा जैसे वह मर चुका है, उसे यकीन हो चुका है कि वह जीवित नहीं है। वह अपने मुर्दा होने को साफ-साफ महसूस कर सकता है। कुछ पल के भीतर चौहान और लंगड़ के बीच सवाल-जवाब की शक्ल में आक्रमण और बचाव का युद्ध आरंभ हो गया 'पता चला है कि आजकल तू रोज शाम लकड़ियाँ काटने जाता है?'
'रोज कहाँ मालिक? हफ्ता में एक या दो बार ही।'
'दिमाग ठंडा करके बोल। यह थाना है। कितना कमा लेता है लकड़ियाँ बेचकर?'
'आप भी साहेब! ...अरे, गरीब आदमी दुइ दिन दूध-दही खा लेई त केतना मोटा जाइ?'
'एक बात जानता है, लंगड़, जब टेढ़ी अंगुली से भी घी न निकले तो उसको आग दिखानी पड़ती है।' लंगड़ ताड़ गया कि चौहनवा के कहने का आशय क्या है? परंतु दृढ़ता और साफगोई भरे लहजे में बोला 'आप जइसन समझीं मालिक, मगर बाप क कसम ह, हम अपने बेटा रामबिहारी के स्कूल में पढ़ावे-लिखावे के चिंता में ही लकड़ी काटे जाइ ला। किताब-कॉपी, फीस, डरेस क खर्चा संभाल लेब आजकल हम जइसे गरीब के बसे में कहाँ?'
'मगर दारू का धंधा तू भी तो सालों से चला रहा है, क्या उसकी कमाई से तेरे परिवार का पेट नहीं चलता?'
दारू का नाम सुनते ही लंगड़ के रोम-रोम से घृणा, नफरत, आत्मग्लानि और भी न जाने कितनी विषैली भावनाओं की चिंगारी फूटने लगी, लाचार क्रोध के तनाव में पूरा माथा ठनकने लगा, बोला 'दारू के धंधा से घर बर्बाद हो गइल। हम मिट गइलीं, मालिक। हमरे रामबिहारी के लील जाइल चाहती बा इ दारू। हम इ ना होवे देब। रामबिहारी से दारू क लत छोड़ाई के रहब। वोकरा भविष्य बनवले खातिर हमके चाहे भीख माँगे के पड़ऽ... हम माँगब... मगर दारू से पीछा छोड़ाइ के ही अब तसल्ली होई।' लंगड़ के इस भाषण पर चौहान के सुर्ख होठों से बड़ी हिंसक मुस्कान फूटी... 'हँह्...! हँह्...! हहा...! हहा...! तो अवैध तरीके से चोरी-चोरी लकड़ी काटने की तुम्हारी नैतिकता ये है, ऐं?' फिर तो अपनी गरीबी की आड़ में तुम किसी का घर भी लूट सकते हो? बेटे को काबिल इंसान बनाने की इतनी ही फिकर थी तो इस धंधे में आए ही क्यों?'
मालिक भूल-चूक क्षमा कइल जाइ, इ पुलिस के नौकरी में का आप अपने शौक से आइल हईं? गरीब क ज्यादे मुँह खोलल गुनाह होला... तनी इ बताईं, इहाँ गाँव-गाँव में दारू क धंधा केकरे इशारे पर चलत बा? सरकार हमके लाइसेंस देले, तब हमन के इ नीच धंधा कइल जाला।
'अबे, चुप बे हरामी! साला, कमीना, डेढ़ पैर का जानवर, सरकार पर अंगुली उठाता है। कल हम पर उठाएगा, थाने पर उठाएगा, पुलिस महकमे को बदनाम करेगा। मुँह में हाथ डालकर तेरी जीभ खींच
लूँगा। एक तो सरेआम चोरी, ऊपर से हरिश्चन्द्रगिरी।'
'भद्दी-भद्दी गारी काहें देहला सरकार? हम आपके अधीन बाटीं जरूर, मगर आप क गुलाम नाईं होईं। हमार भी कौनो
इज्जत बा। एतना त कम से कम ख्याल रखीं।'
अंधे क्रोध की विषम ज्वाला चौहान की खोपड़ी में न जाने कब से सुलग रही थी, जंज्ब करते-करते जब न रहा गया तो चिल्लाया गला फाड़कर 'चोप्, चोट्टा साला!' और भरपूर ताकत से चौहान ने मारी लात स्टूल पर। लंगड़ वैसे भी सही-सलामत इंसान के वजन का नहीं था, लद्द से आ गिरा ंजमीन पर। चौहान तैश खाकर कुर्सी से उठा और शुरू कर दी लात और थप्पड़ की ताबड़तोड़ बारिश। पूरे बीस-पच्चीस मिनट तक नौ बजे रात के सुन्न-सपाट सन्नाटे में थाने के बाहर आघात-दर-आघात, गाली-दर-गाली, कराह-दर-कराह की खून जमा देने वाली गूँज उठती रही, फिर दिशामुक्त हो गई, मायावी सत्ता जैसी, रहस्य जैसी। लंगड़ की मर्मांतक कराह मौत के दर्द को भी एकबारगी फीकी कर देने वाली थी। बीच-बीच में वह इस सरकारी हत्यारे से प्रश्न भी करता था 'अगर जंगल क लकड़ी काटल जुलुम ह, पाप ह, त दारू के धंधा में आप क कमीशन खोरी का ह?'
अंधकार केवल रात में नहीं घिरता, दिन में भी घिरता है। सूरज सिर्फ शाम को नहीं डूबता, भरे दिन में भी डूबता है। रात सिर्फ काली नहीं होती, उजली भी होती है। वह केवल डराती ही नहीं, लुभाती भी है, मोहित भी करती है, कस लेती है अपनी मादक बाँहों में। मौत सिर्फ मरने का नाम नहीं, जीने का भी नाम है। इन दस-बारह गाँवों का सच, सच होते हुए भी सच नहीं लगता। यहाँ दर्जनों गाँवों में बच्चे, वृद्ध, औरत सब के सब एक पानी के जीव हैं डूबने वाले, तैरने वाले, बहने और बहकने वाले। वे सुबह जगते हैं तो सूरज का गोला नहीं, महुए की रोटी दिखाई देती है। यहाँ किसी के जीने का कोई मकसद नहीं। वे जीते हैं क्योंकि जिंदा हैं, वे सोते हैं क्योंकि रात होती है, उठते हैं क्योंकि सुबह होती है। कोई चार पैर, दो सींग और एक पूँछ वाला जानवर भी खुद को इतना बेमूल्य का नहीं समझता होगा, जितना कि ये। चालीस-पचास बरस गुजर गए, इन गाँवों में एक भी ग्रेजुएट नहीं, किसी ने भी सरकारी नौकरी का स्वाद नहीं चखा। ऐसा एक भी नौजवान नहीं, जो महुए का रस पीए बिना बड़ा हुआ हो। इनके बारे में उम्र की बनी-बनाई धारणाएँ फेल कर जाती हैं। ये बचपन में ही नौजवान हो जाते हैं और नौजवानी
आने से बहुत पहले वृद्ध। अधेड़ कहलाने का सुख पाना इनमें से विरले को ही नसीब है। फिर तो बूढ़े होने की नौबत ही नहीं आती। और लोगों की साँसें चलती
होगीं नियमित रूप से, यहाँ वो भी
निश्चित नहीं।
थाना पर इन दिनों डिप्टी एस.पी. साहब का दौरा है। साल में एक बार इधर उनका दौरा जरूर पड़ता है, इलाका है उनका, कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी है, अमन-चैन बनाए रखना है जिले में, शांति कायम रखनी है। राज्य सरकार से अपनी कर्तव्यनिष्ठा का प्रमाणपत्र लेना है इसलिए साहब अपनी सामर्थ्य भर कोई कोताही नहीं बरतना चाहते। थाने पर दो दिन पहले से ही 'उत्सव' की तैयारी चल रही है। सभी चौकीदारों को अलग-अलग जिम्मेदारी सौंप दी गई है और छह सात कांस्टेबिलों को उन कामों की देखरेख करने के लिए लगा दिया गया है। बीस लीटर दूध उनकी पूरी टीम के चाय-साय पीने के लिए, पाँच किलो ताजा गोश्त, पाँच किलो रोहू मछली। चौहान ने खुद एक-एक सामग्री की व्यवस्था में पूरी ताकत झोंक दी है। पुरानी फाइलें दुबारा 'मेंटेन' हो गई हैं, ंगैर जरूरी ंफाइलों को हटा लिया गया है। चौहान को सिर्फ अपनी ही नहीं, पूरे थाने की 'इमेज' 'मेंटेन' रखनी है। हर तरह से डिप्टी एस.पी. साहब को खुश रखना है। सुई की नोंक के सौंवे हिस्से के बराबर भी कोई कमी न रहने पाए। डिप्टी एस.पी. साहब और उनकी लाव-लश्कर की 'दिव्य खातिरदारी' में जरा-सा भी भूल-चूक चौहान को बर्दाश्त नहीं है। सुबह-सुबह सात बजे ही ललन चौकीदार को अपने कक्ष में बुलाकर चौहान ने आदेश दिया कि गाड़ी लेकर जाओ और महुआ पट्टी से जितना हो सके उतना 'अमृतरस' लेकर आओ। ललन चौकीदार भौचक रह गया इतनी मात्रा में दारू का आदेश सुनकर। मगर चौहान की कमजोर नस वह जानता था कि 'ना' सुनते ही वह साक्षात् जूनियर यमराज बन जाता है। आधे घंटे में पहुँचा चंदनपुर और सीधे लखई की झोपड़ी पर गाड़ी रोक कर चौहान का आदेश सुना दिया। सुनते ही गुस्से के मारे लखई की पूरी देह सनसना उठी, किसी तरह खुद को संभालते हुए बोला 'लल्लन भाई, तुहीं बतावा, एतना दारू क इंतजाम एक्कऽ साथे
कइसे होई?'
'देखो लक्खू! हमें थाना से आदेश मिला है। चौहान को अच्छी तरह से जानते हो न! पिछले महीने दारू भेजने से इंकार करने पर लंगड़ की क्या दुर्गति हुई थी थाने में? लेकिन मुझे विश्वास है कि तुम लंगड़ की तरह खाँटी गँवार नहीं हो। अपना हला-भला अच्छी तरह सोच सकते हो। जाओ जल्दी, पट्टी में सूचना दे दो। जिसके पास जितना भी मीठा पानी है, आधे घंटे के भीतर लेकर हाजिर हो जाए।' दारू की व्यवस्था का निर्देश देते समय ललन कोई ढिलाई नहीं बरतना चाहता था।
लखई पैर में टुटहा चप्पल डालकर द्वार से निकला तो जी में आया, उसी चप्पल से पीट डाले अपना सिर, नोंच डाले अपना मुँह। शराब के धंधे को लेकर अभी तक अपने को कोसता था, पछताता था, बेतरह धिक्कारता भी था। लेकिन आज उसने खुद को भद्दी-भद्दी गालियाँ भी देना आरंभ कर दिया। चलते-चलते उसने अपने आपको इतनी गालियाँ दीं, इतनी कि कोई सात जन्म के दुश्मन को भी नहीं देता होगा। जी तो करता था उसका कि सड़ा हुआ कुर्ता-धोती फाड़कर नाचे, कूदे, लोट जाए जमीन पर और अंजुरी जोड़कर पट्टी-पुरवा वालों से कहे भाईयो, मैंने हत्या की है, पापी-नीच-कमीना हूँ मैं। अपने ही हाथों निर्दयी की तरह गला दबाया है अपने बच्चों का और आज भी वही करने जा रहा हूँ। मुझे बस दो दाने की भीख दे दो, गुजारा कर लूँगा, आधा पेट रहकर जीवन काट लूँगा, मगर कोई आजाद कर दे मुझे दारू के मायाजाल से। नहीं, नहीं, इतना हत्यारा कैसे हो सकता हूँ? कोई मुझसे एक बार कह दे कि लखई तुम निर्दोष हो, तुमने जान-बूझकर अपने बच्चों को नहीं मारा है। तुम गुलाम हो, लाचार हो, बेवश हो। लाचारी ने मार-मारकर तुम्हारी कमर तोड़ डाली है मगर तुम अपराधी नहीं हो।
आधे-पौन घंटे के भीतर चौहान के आदेश के मुताबिक 'अमृतरस' की व्यवस्था लगभग हो गई, मगर हिसाब में अभी भी कुछ लीटर दारू की कमी पड़ रही थी। अब क्या किया जाए? लंगड़ ने मात्र पाँच लीटर ही दिया था, उसे आदेश हुआ कि पाँच का इंतजाम और करे। लंगड़ लाठी के सहारे भचकता हुआ तेजी से लपका अपनी झोपड़ी की ओर और कोने अंतरे में भूले-भटके जितनी भी दारू बची हुई थी,
सब उठाकर ले आया और चौकीदार के सामने धरते हुए बोला 'ल इ रामबिहारी का हिस्सा रहल। चौहान से कहि दिहो
कि आज के बाद लंगड़ क घर भुला जाय।'
लंगड़ की तरह लखई, चइतू, मंगल एक बार फिर अपनी-अपनी झोपड़ी की ओर लपके और गोदिया बच्चों के लिए एक-दो लीटर जो भी बचाकर रखा था, सब बटोरकर वापस चौकीदार के पास आ गए। चलते-चलते जरूरत से भी ज्यादा दारू की व्यवस्था हो जाने पर चौकीदार बड़ा प्रसन्न हुआ और कंटेनर में भरकर मोटर साइकिल पर लटकाता हुआ बोला 'आज तुम सब ने हमारी इज्जत बचा ली, थाने का मान रख लिया। चौहान खुश हो जाएँगे। एस.पी. साहब की तबियत
खिल जाएगी। चिंता मत करना। कहूँगा चौहान से कि तुम सब पर इतना जुल्म
न ढाएँ।
चौकीदार थाने जाने के लिए जैसे ही तैयार हुआ, महुआ पट्टी की चार औरतें आकर खड़ी हो गईं उसके सामने और चिल्लाईं 'हे चौकीदार बाबू! उतारा गाड़ी से कंटेनर। हमार बच्चे का पीहंऽ हमार मरद, दहिजरा क पूत, हमरे चोरी-चोरी सारा दारू लाइ के तुहें दे दिहलस। घर में एक छटाक दारू नाईं बचल। का पी के जीहंऽ हमार बच्चे?'
'अब कंटेनर से एक बूँद भी रस नहीं निकलेगा। सब मेहमानों के लिए है। बच्चे दो दिन दारू नहीं पीएँगे तो मर
नहीं जाएँगे।' चौकीदार ने धमकाया
औरतों को।
'अच्छा? तुम्हें दुइ दिन अन्न न मिलऽ, त कौन बुरा बा? तूहूँ मरि त नाईं जाबा?' चारों औरतें इस समय हू-ब-हू अगियाबैताल बनी हुई थीं, चौकीदार ने उनके मुँह लगना जरूरी नहीं समझा और मोटर साइकिल स्टार्ट कर उन्हें अनेदखा करते हुए अपनी राह पकड़ी।
सुबह का वक्त, चंदनपुर गाँव से हाहाकार उठने लगा है। क्या अधेड़ मरद और क्या दो-तिहाई बाल सफेद कर लेने वाली औरतें पछाड़ खा-खाकर रो रही हैं, छाती पर मुक्का मार रही हैं और कारन कर-करके ऑंसू बहाते हुए ललन चौकीदार को शराप रही हैं 'तोहार निर्वंश होइ जाय, पापी! हमरे बाल-बच्चन के खा गइला। एतना अत्याचार कइसे पची? बचवा हमार दुइ दिन से भुक्खन, कलप-कलप के मरि गइ लंऽ। इ भुक्खड़न के मारे आपन दुइ घूँट गंदा रस भी नाईं पीए पउलंऽ।' नौ बजते-बजते गँवई खेत की पगडंडियों पर धूल का धुऑं उठने लगता था, आज वह भी किसी दिशा में उठता नहीं नजर आता। दोपहर हो आई, सूरज मानों तप नहीं रहा, तपा रहा है। दो-तीन बजे के वक्त का दृश्य ऑंखें संज्ञा शून्य कर देने वाला था। चंदनपुर से एक साथ पाँच-पाँच लाशें उठीं। अभी सब अबोध थे, इसीलिए अर्थी नहीं बनाई गई। लखई, चइतू, मंगल अपने-अपने बच्चों को कपड़े में लपेटकर गोद में उठाए नदी की ओर ढुलकते जा रहे थे। इनमें लंगड़ का पाँच साल का बेटा रामबिहारी भी था। अपने बाप को ढंग से समझना अब धीरे-धीरे सीख रहा था। लंगड़ ने चोरी-चपाटी कर, लात-जूता खाकर रामबिहारी को पाला-पोसा। पत्नी नहीं थी, उसके सिवा माँ और कौन बनता? उसकी हमेशा कोशिश रही कि रामबिहारी की हलक में एक बूँद भी महुए का रस न जाने पाए। तीन-चार मील दूर एक प्राइवेट नर्सरी स्कूल में बच्चे का नाम भी लिखा दियाा था। वह रामबिहारी को खुद स्कूल ले जाएगा, क्या फर्क पड़ता है? इतना ही होगा न कि आने-जाने को मिलाकर कुछ छ: मील चलना होगा। लंगड़ को मंजूर है, हजार बार मंजूर। पढ़-लिखकर बेटा काबिल इंसान बन गया तो लंगड़ भी समझेगा कि वह दुनिया में इतना भी अभागा नहीं है। मगर नहीं, लंगड़ की सभी कल्पनाओं में आग लग गई। एक ही पल में सारे अरमान मिट्टी में दफ्न हो गए। इस वक्त नदी के किनारे-किनारे फैली हुई श्मशान भूमि का साम्राज्य है और गोद में बेटे का ठंडा शरीर।
गाँव के तीन-चार आदमियों ने मिलकर लंबा-चौड़ा गङ्ढा खोदा, मृतक बच्चों को पिता की गोद से अलग किया। उन्हें जतन से गङ्ढे में रखा और फावड़े से मिट्टी डालने लगे। लंगड़ ने लपक कर हाथ पकड़ लिया सुक्खू महरा का 'तनिक संभाल के भइया, गढ़हा में माटी धीरे-धीरे गिरावा।' सुक्खू एक पल में समझ गया कि लंगड़ ऐसा क्यों कह रहा है। बोला 'बेफिक्र रहा काका, रामबिहारी सिर्फ तोहार बेटवा नाईं, हमार छोट भाई भी रहल।' बार-बार कहने के बावजूद लंगड़ मिट्टी के ढेर पर जड़वत् खड़ा रहा। मानो किसी भी दिशा से, किसी भी मुँह से उठने वाली आवाज सुनने-समझने में उसके कान असमर्थ हो चुके हों। वह इस वक्त कहाँ है, यह भी उसे नहीं पता। बस एकटक मिट्टी से ढँक उठे रामबिहारी का शरीर ताक रहा था। क्रिया-कर्म संपन्न करने के बाद चइतू, मंगल, लखई, लंगड़ अपने गाँव वापस चले। शाम ने नीले आसमान में अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था। छह जने चुप्पी मारे हुए हैं। कोई किसी से रत्ती भर भी बोल नहीं रहा। सबके सब एक-दूसरे की नजर में नालायक हैं, अभागे हैं। खुद अपनी ही नजर में पल-पल इतना गिर रहे हैं कि दूसरे से कुछ भी पूछने का ख्याल न जाने किधर गुम हो गया है।
गाँव के किनारे-किनारे घिरे हुए आसमान से अंधेरा झरने लगा था। पाँच के पाँच करीब पहुँच आए गाँव के। लखई ने एकाएक मुर्दा-चुप्पी तोड़ी ''इ दारू बेंचले क धंधा हमार जिनगी बर्बाद कइ दिहलस।'' मन मारकर लखई की बात सुन लेने के बाद मंगल ने प्रतिवाद किया ''कइसन बात करत बाटा तू लोग, ऐं? अरे इ रोजगार छोड़ि देबा, त करबा का?'' सुनते-सुनते लंगड़ से न रहा गया, तड़प कर बोला ''का मंगल? एतना गँवार न बना। सीना पर हाथ रखि के कहा तोहार बाल-बच्चे कब्बो दूध-दही क स्वाद जान पउलँऽ? अरे, तोहरा लोगन के अभागि घेरले बा, अभागि। भटकसुन्न हो गइल बाटा तू सब। फूल-बतिया जइसन लइकन के गंवाई के आवत बाटा, तौ पर ऑंखि नाई खुलत बा। जागा-जागा तू सब, देखा! माथा पर महापाप नाचि रहल बा। और इ बगल का थाना? सारे गाँव-जवार के नरक क कारन इहऽ हऽ। अपने मतलब खातिर ई पुलिस-दरोगा चोर-दलाल क पीछे-पीछे सपोर्ट करे लँ। खुल्लम-खुल्ला कइसे करंऽ? उ ठेकेदरवा ससुरा पालतू केंचुआ ह डिप्टी दरोगा क। अगर चौहान आपन थूक चाटे के कहऽ, त ठेकेदार धड़ाक् से थूक चाटि लेई। तू सबके कुछ पता बा? इ दोगला, बेईमान थानेदार के बँधल-बँधावल कमीशन देला। दूनो पइसा लूटि-लूटि के गच्च बाटँऽ। हमरे सबके खून-पसीना की कमाई पर इ सब भैंसा जइसन मोटा गइल बाँटऽ। अरे, तोड़ि-ताड़ि के भागि निकला इन कैदखाना से। अपने स्वारथ खातिर इ ठेकेदार-पुलिस सारे गाँव जवार के साक्षात् नरक बना दीहँऽ।'' लंगड़ की इस सूझ-बूझ की काट किसी के पास न थी। सभी उसके सामने निरुत्तर थे। सभी मुँह लटकाए अपनी-अपनी झोपड़ी में आकर विलाप करने लगे।
पहर भर रात बीत जाने पर पड़ोसियों ने लंगड़ की झोपड़ी से 'खटाखट', 'तड़ातड़' की आवाजें सुनीं। कुतूहलवश चार-छह लोग उसके घर की ओर लपक आए कि आखिर बात क्या है? अंदर झाँक कर देखा तो ठक्क रह गए, लंगड़ फावड़े से अपनी भट्टी तोड़ रहा था। वही भट्टी जिस पर होश संभालने के बाद बैठना शुरू किया था। वही भट्टी जो मुट्ठी भर इज्जत तो दूर, दो वक्त का अन्न भी नहीं दे सकती थी। एक पड़ोसी ने लंगड़ से सवाल-जवाब किया 'भइया, दारू क धंधा छोड़ देबा, त आगे कइसे गुजर-बसर होइ? कुछ
सोचले बाटा?'
लंगड़ फावड़े से भट्ठी पर प्रहार करते हुए ही बोला 'हाँ, हाँ, हम सोचि लिहले बाटीं। भुक्खन ऐंठी-ऐंठी के मरि जाब, लेकिन अब इ घर में भट्ठी नाहीं जरी। अब हमके केकर चिंता-फिकिर बा? मरब त मन शांत रही कि हमरे पीछे केहू भुक्खन मरे वाला नाईं बा।'
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