Friday, January 7, 2011

लंबी कहानियाँ क्या कहानी के भविष्य का विकास कर रही हैं?

भरत की अंतप्र्रांतीय भाषाओं में जाने-पहचाने मराठी भाषा के प्रसिद्ध लेखक भालचंद नेमाड़े। उनके एक असुविधाजनक विचार का सारांश 'प्रकाशन समाचार' पत्रिका (राजकमल प्रकाशन समूह) के जुलाई 10 अंक में प्रकाशित है। नेमाड़े के अनुसार 'छोटी कहानियाँ कथा-विधा की अकूत संभावना को अवरुद्ध कर रही हैं' (पृष्ठ 1)। काबिल-ए-ंगौर है कि यह कठोर विचार तब दिया गया जब गीत चतुर्वेदी जैसे लंबी कहानी के पैरोकार की किताब का लोकार्पण हो रहा था। यदि नेमाड़े आज की लंबी कहानी को कहानी के मानदंड और शैली के रूप में देखते हैं, तो सुचिंतित तर्क के साथ। उन्हें अपने निष्कर्ष को बकायदा सिद्ध करना चाहिए। ऐसा एकतरफा निर्णय लघु कहानियों की बेमिसाल अर्थवत्ता को भी दरकिनार कर देता है। हो न हो, यह निष्कर्ष मौजूदा कहानी परिदृश्य में थीसिस या शोध-पत्रनुमा भारी-भरकम, लंबी-चौड़ी कहानियों के शोरगुल के कारण दिया गया हो। वरना नेमाड़े जी को बखूबी पता है कि प्राय: छोटे आकार-प्रकार की मारक, तत्वदर्शी और तपी-पकी हुई कहानियों को सूत्र-वाक्यों में साधने वाले एन्तोन चेखव, ओ. हेनरी, मोंपासा, खलील जिब्रान
और प्रेमचंद का विश्व साहित्य में क्या स्थान है?
समकालीन सृजन की कसौटी पर न तो लंबी कहानी को खारिज किया जा सकता है और न ही छोटी कहानी को। विषय में निहित सत्य की माँग के अनुसार कहानी के आकार-प्रकार का निर्धारण होना चाहिए। यदि कहानीकार को कोरी गपबाजी नहीं करनी है, यदि भूलभुलैया में घुमाती रहने वाली धुँआ-धुँआ भाषा का मायाजाल नहीं बुनना है, यदि उसकी मर्मभेदी निगाह विषय के असली नाजुक स्थलों पर जम गई है तो निश्चय ही वह चेतना की बेचैनी में जलते हुए अपने कीमती भावों को लंबी-लंबी कहानियों में जाया नहीं करेगा। इधर हिंदी कहानी में उदय प्रकाश ही एक ऐसे कथाकार हैं, जिन्होंने लंबी कहानियों में रोचक पठनीयता बरकरार रखते हुए उसे सर्व स्वीकार्य बनाया है। आज लंबी कहानियाँ विषयों की जटिल प्रकृति या अनेक अनसुलझे सवालों का अविस्मरणीय उत्तर देने के लिए नहीं, देखी-देखा ंफैशनपरस्ती में लिखी जा रही हैं। लंबी कहानी के लिए जिस अथक अंतर्दृष्टि, विवेक के अटूट तनाव और विषय को जड़-मूल-शाखा और फल-फूल सहित सम्पूर्णत: आत्मसात कर डालने वाले धैर्य की आवश्यकता होती है, वह आज लंबी कहानियाँ 'गढ़ने' वाले हिंदी के अधिकांश युवा कहानीकारों के व्यक्तित्व से नदारद है। आम पाठक तो बहुत दूर, साहित्य के 'परमानेंट' पाठक भी इन लघु शोध प्रबंधनुमा लंबी कहानियों को चाव से पढ़नेकी हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। जो पाठक दो सौ पेज का उपन्यास दो दिन में अक्षरश: पढ़ डालने की भूख पाले रहते हैं, वे 40 पेज की कहानी पढ़ने के पहले 40 बार सोच रहे हैं। आखिर कारण क्या है इसका, आइए, वरिष्ठ आलोचक विजय बहादुर सिंह के शब्दों में समझते हैं ''इस पीढ़ी में कुछ लोग लंबी कहानियाँ लिख रहे हैं। अगर कहानी कंटेट के कारण खिंचती जाए तो बात अलग है, लेकिन यहाँ तो कंटेट के बिना ही खींचा जा
रहा है।''
युवा स्वर
सोनू उपाध्याय अभी बिल्कुल अभी इसी साल की नई पौध हैं। 'प्र्रगतिशील वसुधा' के अप्रैल-जून 10 अंक में अपनी कहानी 'रोजाना' के साथ हांजिर हैं। इसमें सोनू ने अपनी पल-पल की सूक्ष्म अनुभव-दृष्टि का परिचय दिया है। कहानी में 'अन्ना' मछली बेचती है और रंजन से प्यार करती है। एक रात वह पुलिस की अंधी वासना का शिकार बनती है। इसी बीच रंजन लोकल ट्रेन से सफर करते वक्त आतंकी बम-ब्लास्ट में अपने दोनों पैर गवाँ बैठता है। उसे एहसास हो चुका है कि उसका बाकी जीवन आधा मरे हुए इंसान के समान है। अत: वह जान-बूझकर ऐसी पागल हरकतें करता है कि अन्ना उसकी पत्नी बनने का विचार त्याग दे। कहानी में मुम्बई जैसे महानगर की कुचली हुई जिंदगी का सैलाब चित्रमय हो उठा है। (प्रगतिशील, वसुधा,
अप्रैल-जून 10)Ð
युवा संपादक प्रकाश त्रिपाठी के संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'वचन'। इसमें गोरखपुर की कवयित्री रंजना जायसवाल की कहानी 'अगले जनम मोहि बिटिया न कीजो'। प्राय: रंजना की कहानियों में स्त्री के प्रति पुरुष के अन्याई, अत्याचारी और उसके स्थाई दुहरे चरित्र को दर्शाया गया है। स्वयं रंजना का आक्रोश इतना तल्ख है कि पुरुष लहूलुहान हो जाए। ऐसा लगता है जैसे कवयित्री के हृदय में पुरुष के लिए कोई रियायत, कोई उदारता या सहानुभूति नहीं। प्रस्तुत कहानी एक ऐसी प्रताड़ित स्त्री के पक्ष में खडी है, जिसका पति समलैंगिक है।
आगे है शैलेंद्र तिवारी की कहानी 'दाँव'। अपनी पुत्री समान पतोहू के साथ अनैतिक संबंध बनाने का घिनौना प्रयास करने वाले ससुर के सड़े-बदबूदार चरित्र पर आक्रमण करती है यह कहानी। इसमें चंद्रबली भ्रष्ट आचरण वाला बाप है, वह तीन-तिकड़म लगाकर बेटे रतन को परदेश कमाने भेज देता है क्योंकि पतोहू निर्मला के प्रति उसकी नियति बहशियाना है। यह आज के जिस्मवादी और मूल्यहीनता में शौकिया अंधे हुए आ रहे ग्रामीण समाज का सर्वव्यापक सच है, जिसे शैलेंद्र तिवारी ने स्वाभाविक प्रमाणिकता के साथ प्रस्तुत किया है। (वचन, मई 10)Ð
अपूर्व जोशी की देख-रेख और संपादन में प्रकाशित होनी वाली 'दि संडे पोस्ट' पत्रिका का 'साहित्य विशेषांक-10'। इसमें सुभाष चंद्र कुशवाह की कहानी 'यही सब चलेगा?' इसमें चंद्रेश्वर प्रतिभावान है, उसमें कुछ दुर्लभ बात हासिल कर लेने का जंज्बा है। आई.ए.एस. की परीक्षा में उत्तीर्ण न हो पाना उसकी सख्त ग्रंथि बन चुका है। पिता राजबली यादव बेटे को अफसर देखने की हसरत लिए-दिए मर गए। चंद्रेश्वर विद्यालय खोलते हैं और उसे मान्यता दिलाने के लिए शरीर पर बहते पसीने का खून को रंग दे डालते हैं, मगर असफलता 99 प्रतिशत नहीं, पूरे 101 प्रतिशत हाथ लगती है। सुभाष चंद्र ने नई सदी की बदलती, बिखरती, टूटती और दिशाशून्य होकर जीती युवा प्रतिभा के दुखद यथार्थ को विविध रंग-भंगिमा के साथ प्रस्तुत किया है। इसी अंक में कविता की कहानी 'नदी जो अब भी बहती है...' प्रकाशित है। कविता ने इसमें ऐसा अप्रत्याशित विषय चुना है, जो 'रेयर इन द रेयर्स' है। इमसें एक नव विवाहिता पत्नी के पेट में दो सिरों वाला बच्चा पल रहा है, जिसके हृदय भी दो हैं। स्वाभाविक है, ऐसे शिशु को जन्म देने वाली माँ की मानसिकता ठीक-ठाक दशा में न रहे। कविता ने अपने भाव-प्रवरण और सामयिक, अनौपचारिक भाषा-कौशल के बूते माँ की विकट और किंकर्तव्यविमूढ़ मनोदशा को पूरी संजीदगी से साधा है। (शब्द दुर्ग पर दस्तक, दि संडे पोस्ट, साहित्य विशेषांक 10)Ð
हिमाचल प्रदेश के संभावनाशील कहानीकार मुरारी शर्मा की कहानी 'मेरे घर का दरवाजा', 'असिक्नी' पत्रिका में प्रकाशित है। इसमें सोमा नामक एक ऐसी ग्रामीण युवती की करुण-कथा है, जो अपनी हरी-भरी उम्र में घर-गृहस्थी और पति-परिवार का सुख नहीं ले पाती। विजय नामक एक फौजी युवक से विवाह के बाद उसे हर कदम पर उपेक्षा, अपमान,र् ईष्या और प्रताड़ना का शिकार बनना पड़ता है। कुछ समय के बाद सोमा की दूसरी शादी सोहन लाल जैसे महापियक्कड़ से होती है। सोहन लाल की अकाल मौत के बाद उसका बड़ा भाई सोमा की जवानी से खेलना चाहता है। सोमा अपनी इज्जत की रक्षा करती है और जेठ द्वारा जबरदस्ती किए जाने पर जसकी डंडे से बाकायदा धुनाई भी कर देती है। मुरारी शर्मा के पास सामाजिक यथार्थ को उसकी जीवंतता में प्रस्तुत करने की कुशल भाव दृष्टि है। ('असिक्नी', जुलाई 10, संपादक-निरंजन देव शर्मा)Ð
'वर्तमान साहित्य' के अगस्त 10 अंक में सुषमा मुनींद्र की कहानी 'अप्रत्याशित'। इसमें एक चरित्र हैं गुरुजी, जिनकी पत्नी का नाम है 'गंजी'। रूपक गुरुजी का बेटा है, जो कि आर्मी में मेडिकल  ऑफिसर है। गुरुजी को अफसर बेटे की शादी में मोटी रकम के साथ-साथ सभ्य, सुशील और सुंदर बहू भी चाहिए। रूपक अपने धनजीवी पिता के स्वार्थी स्वभाव से तंग आकर आर्मी के ही एक अन्य अफसर की बेटी से प्रेम-विवाह कर लेता है। जब धनलोलुप गुरुजी को बेटे की असलियत का पता चलता है, तो उनके पैर के तले जमीन ही नहीं खिसकती, ऊपर का आसमान भी गायब दिखाई देता है। इसी अंक में रणीराम गढ़वाली की कहानी 'खिस्सू' प्रकाशित है। यह उत्तराखंड के ग्रामीण पहाड़ी हिस्सों में पाँव पसारे हुए अंधे सामंतवाद की कहानी है। गढ़वाली अपने भीतर के उद्वेलित और भावुक कहानीकार के मुताबिक ही विषय को छाँटते हैं, फिर उसे तीव्र वेदना की ऑंच में पकाते हैं, पुख्ता बनाते हैं। निरंतर दैनिक जीवन की कठिन जद्दोजहद को उठाने वाले कहानीकार अखिलेश श्रीवास्तव चमन इस अंक में अपनी कहानी 'जेबकतरा' के साथ उपस्थित हैं। इसमें अखिलेश ने भारत की नाकारा पुलिस और हृदयहीन वकील के शातिर खेल में पिस-पिसकर मरते हुए आम हिंदुस्तानी की दुर्दशा का मर्मस्पर्शी दृश्य पेश किया है। प्रतिवर्ष भारत के भ्रष्टाचारी व्यक्तित्व का विश्व रिकार्ड प्रकाशित होता है। वह कभी टॉप-10, कभी-15 और कभी-25 भ्रष्टतम देशों की सूची में अवश्य रहता है। प्रश्न है, किसके कारण? उत्तर साफ-साफ लीजिएराजनेताओं, माफिया मंत्रियों, घनघोर अहंकारी नौकरशाहों, दलाल पूँजीपतियों, कमीशनखोरों और बजबजाते हुए पतन के दलदल में भैंसा की तरह रात-दिन लोटने-पोटने वाले सुशिक्षित बाबुओं, कर्मचारियों और अधिकारियों के कारण। इस देश ने ही घूसखोरी को सम्मानित संबोधन दिया है 'सुविधा शुल्क'। (वर्तमान साहित्य, अगस्त10)Ð
एक साथ हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में प्रकाशित होने वाली साहसधर्मी पत्रिका का 'साहित्य विशेषांक-10' प्रकाशित है। आम पाठकवर्ग की हिंदी पत्रिकाओं को जो सीधे साहित्य से सरोकार नहीं रखतीं, चिरस्थाई भ्रम रहता है कि साहित्य का श्रेष्ठ चमकते हुए कलमकारों के आस-पास सिमटा हुआ है। इसीलिए वे ऑंख मूँदकर उन्हीं नामों के पीछे भागती हैं, जिनका नाम येन-केन-प्रकारेण सिक्के की तरह साहित्य के बाजार में चल निकला है। खुलेआम रचनाएँ आमंत्रित करने की महत्वाकांक्षा ऐसी पत्रिकाओं से गायब हो गई है। काश, 'तहलका' समूह ने यहाँ भी हिम्मत का परिचय दिया होता। खैर! बात कहानियों की... सर्वप्रथम प्रकाशित है वंदना राग की कहानी 'देवा... देवा'। इसमें 'बाबा' नामक चरित्र की अकथनीय, असीम पीड़ा और आर्थिक तंगी को छिपे और संकेतात्मक ढंग से कहने की कोशिश की गई है, मगर... इस कहानी का मूल उद्देश्य बाबा की अदृश्य अंतर्पीड़ा को सजीव-स्वर देना नहीं, बल्कि एक प्रफुल्ल और आनंदमग्न भाषा-शैली में बाबा की मात खाई हुई बेचारगी को समाचार की तरह सुना देना है। इसीलिए यह कहानी एक आर्थिक तंगी के मारे हुए किसान की मर्मव्यथा नहीं, स्वयं वंदना राग की उत्सवधर्मी कला का पंसदीदा विस्तार ही नजर आती है। गौरव सोलंकी की कहानी 'रेडियो'। इसमें कहानीकार ने माँ की दबी हुई आकांक्षा को रेखांकित किया है। माँ शादी के पूर्व किसी की बेटी रहती है और एक-दो नहीं दर्जनों दृश्य-अदृश्य बंदिशों की कठपुतली रहती है। उस वक्त उसकी व्यक्तिगत इच्छाओं और हसरतों का कोई अर्थ नहीं होता। यदि इस कहानी में तल्ख और भावासिक्त शब्दों को सुचिंतित ढंग से और जगह मिल गई होती तो कहानी की छाप और स्पष्ट रूप से अंकित हो जाती। इसी अंक में चंदन पांडेय की कहानी 'नया' प्रकाशित है। कहानी में राकेश कुशवाहा एक ग्रामीण शिक्षक है। कम तनख्वाह में घर-परिवार की परवरिश, नमक-तेल, लकड़ी का खर्च। ढंग से खेती-बाड़ी न हो तो साल भर का खर्च कैसे चले? राकेश कुशवाहा के बहाने चंदन लिखते हैं, एक बलबलाता, बौखलाया हुआ गरम पत्र देश के प्रधानमंत्री के नाम, जिसमें वे आर्थिक दुश्वारियों का कम, मौजूदा वक्त में जमी हुई दुश्वारियों का रोना अधिक रोते हैं। इस कहानी में भी चंदन पांडेय रोक नहीं पाए, मुद्दों से भाषाई खेल खेलने की कलाकारी। मानो वे देश के प्रधानमंत्री को मुद्दों पर संवेदनशील बनाने के बजाय उन्हें उनकी कमजोरियों पर चिढ़ाना चाहते हों, हम सपना देख रहे हैं कि चंदन में सामयिक मुद्दों के प्रति जिम्मेदार संजीदगी लौट रही है। ठीक आगे युवा कवि गिरिराज किराडू की कहानी 'दिनों की स्क्रिप्ट'। इसमें कवि ने एक अनोखी शैली इंजाद की है टुकड़े-टुकड़े वाक्यों में एक टुकड़ा बात कह देने की शैली। भूल जाइए कि इसमें एक मूल उद्देश्य है, कोई एक विषयवस्तु है, कोई एक केंद्रीय संवेदना है। दरअसल यह कोलाज है धुऑं वाक्यों का। एक ऐसा बेतरतीब अर्थमेला जिसका कोई सिरा ढंग से पकड़ में न आए। कवि ने कुछ पात्र, कुछ स्थितियाँ, कुछ घटनाएँ चुन ली हैं और उनमें अपनी खेलधर्मी भाषा की जमकर हवा भर दी है। इसीलिए पूरी कहानी में एक ही पात्र, एक ही स्थितियाँ, एक ही घटनाएँ गुब्बारे की तरह पन्नों पर तैरती हुई आपस में बार-बार टकरा रही हैं और हमें भ्रम हो रहा है कि नहीं, वे तो कोई नया दृश्य है। (तहलका, साहित्य विशेषांक, जून 10)Ð
सुपरिचित कहानी लेखिका उर्मिला शिरीष की कहानी 'अभिशाप', 'पाखी' के अगस्त 10, अंक में प्रकाशित है। इसमें उर्मिला शिरीष ने खुद को एक सचेत और प्रतिबद्ध बौद्धिक प्रगतिशील की भूमिका में रखते हुए कर्मकांडी धर्म के आपराधिक पडयंत्र को बेनंकाब किया है। इसमें सिद्धियाँ हासिल की हुई एक धर्मकांडी 'माँ' है, जो पहले कभी नर्स रह चुकी है, उसे पेट से बच्चा गिराने का लंबा अनुभव है। यह माँ हताश, मूक और मत्था टेकने में आस्था रखने वाले अंध-भक्तों का वर्षों से शारीरिक, मानसिक और आर्थिक शोषण करती है। आजकल शायद ही कोई धार्मिक स्थल हो, जहाँ आस्था और कल्याण के नाम पर धर्मांध पब्लिक का गाय-बैल की तरह शोषण न होता हो। तंत्र-मंत्र, पूजा-पाठ, सिद्धियाँ, चमत्कार न कभी मानवतावादी स्वरूप के रहे हैं और न कभी हो सकते हैं। यह भारत ही है, जो दवा से कई गुना ज्यादा झाड़-फूँक में, अंधभक्ति में और अदृश्य, अमूर्त के प्रति निछावर रहने में यकीन रखता है। (पाखी, अगस्त 10)Ð
मध्य प्रदेश के कवि जितेंद्र चौहान के संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'गुंजन' का 'अगस्त' अंक। इसमें वर्ष 2010 की नई पौधजयश्री राय की कहानी 'पिंजरा' प्रकाशित है। इसमें जयश्री ने एक ऐसी नवविवाहिता स्त्री के मन की अतृप्त वासना को शब्द दिया है, जो अपने शराबी और कर्महीन पति की करतूतों से आहत रहती है। इसी कारण वह दूर से सही अपने देवर की ओर भीतर-भीतर दिल को झुका हुआ महसूस करती है। जयश्री राय की माँग स्पष्ट है हर हाल में औरत को मानसिक और भावनात्मक स्वाधीनता चाहिए क्योंकि यह मौलिक इच्छा पृथ्वी की प्रत्येक स्त्री की आत्मा का अमर स्वभाव है। (गुंजन, संपादक-जितेन्द्र चौहान, अगस्त 10)Ð
'कथाक्रम' के जुलाई-सितम्बर अंक में सुपरिचित कथाकार प्रियंवद से लेकर नवधा शब्द-बीज राकेश भ्रमर और उषा ओझा तक की कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं। प्रियंवद ने 'एक छंद की निर्विध्न मृत्यु' में मूल संवेदना को वर्णनात्मकता के सामायिक शिल्प-कौशल में ढाला है। वहीं किसलय पंचोली की कहानी 'एकांड्रोप्लेजिया उर्फ बेड नंबर फोर्टी' में एक ऐसे भयावह रोग से रू-ब-रू कराया गया है, जिसमें बचपन से ही हड्डियों में कार्टिलेज का जमाव रुक जाता है। यही कार्टिलेज बच्चों के स्वाभाविक विकास के लिए जिम्मेदार है। अपेक्षाकृत नाटे कद का बना देने वाले इस विकट रोग का नाम है 'एकांड्रोप्लेजिया'। राकेश भ्रमर की कहानी 'पाँचवा घर' ऐसी लाचार और बदहाल स्त्री की व्यथा है, जिसका पति बेरोजगार है और वह खुद घर-घर मेहनत-मजूरी करके परिवार रूपी पहिया-विहीन गाड़ी खींचती है। (कथाक्रम, जुलाई-सितम्बर 10)Ð
'परिकथा' के जुलाई-अगस्त-10 अंक में प्रकाशित होने वाले स्थापित कथा-हस्ताक्षर भालचंद जोशी। उनकी कहानी 'जंगल' वन, वनवासी, उत्सव, पुलिस एनकाउंटर, दाम्पत्य प्रेम के व्यवस्थित मेल से तैयार हुई है। फिर भी दाम्पत्य जीवन की प्रेमकथा इस कहानी की आत्मा में है। यह असंदिग्ध है कि भालचंद समकालीन यथार्थ को जीवन की दर वास्तविक भाषा में सफलतापूर्वक खोलने वाले कथाकार हैं, इसी अंक में हैं 'नसीम साकेती', अपनी पहचान को लगातार सुदृढ़ बनाते हुए कहानीकार। अपनी कहानी 'ये घर ये लोग' में साकेती ने अनुभव-यथार्थ को इतनी सीधी-सरल अभिव्यक्ति में फैला दिया है कि रोचकता दम तोड़ देती है। यहाँ वे संकेतों में कहने या व्यंजना में अर्थ की खनक पैदा करने वाले कहानीकार नहीं, उबड़-खाबड़ जीवन की वास्तविकता को ज्यों का त्यों पाठकों के समक्ष रख देने वाले प्रवक्ता नजर आते हैं। यह कहानी ऐसे मुस्लिम परिवार के दारूण सच को सामने लाती है, जहाँ बच्चे पर बच्चा पैदा करना एक जुनून, एक पैशन, एक अनिवार्य कर्तव्य की तरह है। (परिकथा, जुलाई-
अगस्त 10)Ð
नये अंक : एक रचना
1.    विसर्जन, शब्बीर अहमद, शेषजुलाई-सितंबर 10, सम्पादक-हसन जमाल।
2.    मोतीचूर के लड्डू, श्याम सुंदर पोकरा, अक्सरअप्रैल-जून 10, सम्पादक-हेतु भारद्वाज।
3.    खामोशियों के देश में, जया जादवानी, सम. भार. साहित्य, जुलाई-अगस्त 10, सम्पादक-प्रभाकर श्रोत्रिय।
4.    'उधार', हबीब कैंफी, प्रतिश्रुति, अप्रैल-जून 10, सम्पादक-रमाकांत शर्मा।
5.    गोलकीपर, प्रियदर्शन मालवीय, बहुवचन, अप्रैल-जून 10, सम्पादक- राजेंद्र कुमार।
6.    पापा, साँप और मैं, लुइस बर्नार्डो होनवाना, दूर्वादल, मई-अक्टूबर 10, सम्पादक-परमात्मा नाथ द्विवेदी।
7.    हारे हुए लोग, सुधा गोयल, अक्षर पर्व, जुलाई 10, सम्पादक-सर्वमित्र सुरजन।
8.    लाजवंती, बद्री सिंह भाटिया, हिमाचल मित्र, वर्ष 10, सम्पादक- कुशल कुमार।
9.    लेखक का विक्षोभ, अजय श्रीवास्तव, युवा संवाद, जुलाई 10, सम्पादक-ए.के. अरुण।
10.    लंगड़े पिता, राकेश झरपुरे, वर्तमान साहित्य, जुलाई 10, सम्पादक-नमिता सिंह।
11.    गोलू गुरुजी की विदाई, समारोह, चंद्रमोहन प्रधान, जनपथ, जनवरी 10, सम्पादक-अनंत कुमार सिंह।
12.    गरहन, उषा ओझा, जनपथ, मार्च 10, सम्पादक-अनंत कुमार सिंह।
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