Tuesday, November 9, 2010

ऑंखों से अर्थ पाने की कला- भरत प्रसाद

वर्तमान शताब्दी में हिन्दी कविता ने यदि बहुत कुछ खोया है, तो बहुत कुछ हासिल भी किया है। कविता अब परिवर्तन के औजार की बजाय एक कला है, वह कवि की अन्त:स्फूर्त प्रकृति की बजाय एक चालाकी और सझबूझ भरी चेष्टा है, वह हृदय की उथल-पुथल से उठने वाली तीव्र तरंग नहीं, बल्कि मस्तिष्क की सायास कलाकारी है। परन्तु इसके साथ एक सच यह भी है कि हिन्दी कविता ने समकालीनता की अभूतपूर्व कमाई की है। समकाल की बहुमुखी भाषा, उस भाषा का नया से नया स्तर, समकाल का व्यावहारिक शिल्प, उस शिल्प का प्रतिक्षण परिवर्तित रूप और समकाल की विविध लयात्मकता, वह लयात्मकता जो व्यक्ति की गद्यपूर्ण बोली-बानी में ही नहीं, रोज-रोज विचलित करने वाली घटनाओं में भी होती है, स्थूल विषय के सूक्ष्म अर्थों में होती है, हमारे सोचने की शैली में भी होती है।

सत्ता, राजनीति, समाज, संस्कृति, धर्म, विज्ञान, प्रकृति इत्यादि अनगिनत क्षेत्रों और विषयों के शब्द बाढ़ के पानी की माफिक आवाजाही मचाए हुए हैं हिन्दी कविता में। इससे यह साफ जाहिर होता है कि आज का युवा कवि सचेत है अपने विस्तार लेते हुए वातावरण के प्रति। प्रतिदिन जन्म लेने वाली सूचनाओं और घटनाओं को ग्रहण करने क ेलिए उसके दोनों कान आठों दिशाओं में खुले हैं, बल्कि अब वह ऑंखों से भी तथ्य, अर्थ पीने की कला जान चुका है। आज कविता नये-नये प्रयोगों के अप्रत्याशित दौर से गुजर रही है। पैराग्राफ शैली, फुटनोट शैली, बतकही शैली ऐसे ही कुछ नये प्रयोग हैं। कविता में अन्य गद्य-विधाओं का दखल बढ़ गया है। वह अब विशुद्ध काव्य विधा कहाँ रह गई है? उसमें आजकल की घटनाएँ बिना किसी काट-छाँट या तराश के चस्पाँ हैं। बाजार, बिजनेस और प्राइवेट लाइफ में प्रयुक्त होने वाले शब्दों को बेधड़क कविता में उठाकर भर दिया जा रहा है। यदि भाषा, शिल्प, शैली और विषय-विस्तार को उपलब्धि जैसी कोई चीज माना जाए तो समकालीन युवा कविता ने उसे अवश्य हासिल किया है। परन्तु यहाँ गौर करने लायक है 'बेलिंस्की' का वाक्य, जिसको चिंतन का अनिवार्य हिस्सा बनाए बिना 21वीं सदी की हिन्दी कविता के अच्छे स्वास्थ्य की कामना नहीं की जा सकती ''कवि की सम्पूर्ण कला इस बात में निहित है कि वह पाठक को एक ऐसी दृष्टि प्रदान करे जिससे वह समूची प्रकृति को, नक्शे पर बने विश्व की भाँति, लघु आकार में, छोटी अनुकृति के रूप में देख सके। ऐसी संवेदनशीलता प्रदान करे, जिससे वह उस श्वास का अनुभव कर सके जो विश्व में व्याप्त है और वह जोत जगाए जो आत्मा को गरमाती है। कवि की कृति अगर ऊँचे मस्तिष्क तथा उत्कृष्ट भावना की देन है, यदि वह मुक्त तथा स्वत: स्फूर्त रूप में उसकी आत्मा से नि:सृत है तो वह इस ऊँचे लक्ष्य को प्राप्त करने में सदा सफल होगा।'' (बेलिंस्की : दर्शन, साहित्य और आलोचना, पृ. सं. 19)



युवा शब्द

राकेश रंजन की कुछ कविताएँ (जाग रे, मंडूक-नाद-संवाद, गती राम, खप्पर कथा...) 'आलोचना' के अक्टूबर-दिसम्बर 08 में आई हैं। राकेश रंजन अपनी कविता में रोचक लय और प्रछन्न ताल बाँधे रखने के साथ-साथ अपने लोक प्रतिबद्ध अर्थों की दूरगामी खनक भी पैदा करते हैं। मूलचेतना में लोकोन्मुख मिजाज के होते हुए भी वे अपनी कविताओं पर टिपिकल जनवाद का ठप्पा नहीं लगने देते, यही उनकी समर्थ मौलिक दृष्टि का प्रमाण है। आगे इसी अंक में शहंशाह आलम की कविता 'साइबेरियाई पक्षी'। प्रस्तुत कविता में कवि ने साइबरिया से आने वाले प्रवासी पंक्षियों का न सिर्फ स्वागत-गान किया है, बल्कि वे जिस उल्लास और गीतमय कंठ से भरे इधर आते हैं उस उल्लास को सहज भावुकता के साथ याद किया है। अभी पिछले वर्ष कोलकाता के अनशब्द प्रकाशन से शहंशाह आलम का काव्य-संग्रह 'अच्छे दिनों में उँटनियों का कोरस' भी प्रकाशित हुआ है। उनकी कविताओं में लगभग शतप्रतिशत आज की भाषा है और उस सामयिक भाषा में असंतोषजनक वर्तमान को पीट देने का उत्साह भी। उनके इस सग्रह की कविता 'हत्यारे' ऐसे रक्तपिपासु व्यक्ति के चरित्र का आख्यान है, जो प्रत्येक पीड़ित व्यक्ति की आत्मा को महसूस अवश्य होता है, किन्तु उस दर्द को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं मिलते। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित काव्य-संग्रह 'यह भूमंडल की रात है' के कवि पंकज राग की कविता आलोचना के उपरोक्त अंक में '1857 के डेढ़ सौवें वर्ष में' प्रकाशित हुई है। दरअसल यह कविता इतिहास के यथार्थ, मिथ और लोक विश्वास के त्रिकोणीय अंतर्दृंदृ में घूमती रहने वाली शोधपरक कविता है। यह कविता 1857 के विद्रोह के अमर महत्व की रक्षा तो करती ही है, साथ ही साथ उसकी आन्तरिक दुर्बलताओं को भी संकेतों में कह देने से नहीं चूकती। (आलोचना : अक्टूबर-दिसम्बर, 08, सम्पादक-अरुण कमल)

'साखी' के ताजा अंक (अप्रैल 2010 ई.) में प्रकाशित मोहन कुमार डहेरिया की की चार कविताएँ (इस घर में रहना एक कला है, नाचना इन दिनों, बहुरुपिया और जंगलों के बीच का वह हाट)। इनकी कविताओं में बौद्धिकता का अनिवार्य प्रवेश संवेदना पर लगातार भारी पड़ता हुआ उन्हें कमजोर बना देता है। इसके अलावा विषय के प्रत्येक पक्ष का सविस्तार वर्णन अर्थ के बारे में पाठक को सोचने का अवकाश बहुत कम दे पाता है। बावजूद इसके सामयिक घटनाओं को नवीन तरीके से उद्धटित करने की कलात्मक भंगिमा कविता को प्राणवंत बनाए रखती है।

'साखी' के इस अंक के साथ मुफ्त में एक काव्य-पुस्तिका भी उपहार-स्वरूप है। इस पुस्तिका के एकल युवा कवि हैं बृजराज कुमार सिंह। इनकी कुछ कविताएँ जैसे कामरेड अब तुम क्या करोगे, दुनिया घोर अशान्ति में जी रही है, एक शहर ऐसा बसाया जाय..., कवि के तल्ख, खुद्दार, तेज तर्रार किन्तु भावपूर्ण कवि हृदय का प्रमाण देती हैं। बृजराज में अन्त: अनुभूति को साहसपूर्वक प्रकट करने की प्रखरता है, उपेक्षित यथार्थ को ठोस स्वर देने का संकल्प है और जन-मन में रची-बसी आसक्ति, जिसको बचाए रखना बृजराज के हस्तक्षेपकारी कवि बनने के लिए अनिवार्य है। (साखी: अप्रैल, 10, सम्पादक-सदानंद शाही)

'नया ज्ञानोदय' के जनवरी 09 में प्रकाशित तुषार धवल की दो कविताएँ 1. मुझे भरोसा है, 2. तुम्हें फाँसी नहीं होगी। तुषार धवल अपने सृजनात्मक अनुभव में इतनी ऐंठन भर देते हैं कि वह कविता किसी अबूझ अर्थ का मॉडल बनकर रह जाती है। समकालीन हिन्दी कविता में बनावटी कलात्मकता एक दो नहीं, कई युवा कवियों के मस्तक में महामाया बनकर नाच रही है और वे तमाम दंद-फंद से लबरेज ऐसी अनोखी, अनदेखी, अज्ञात भाषा-शैली गढ़ रहे हैं कि उसका सामना पड़ने के बाद कविता का मँजा हुआ पाठक भी गश खाकर गिर पड़े और दुबारा कविता पढ़ने का दुस्साहस न करे। (नया ज्ञानोदय: जनवरी, 09, सम्पादक-रवींद्रकालिया)
'प्रगतिशील वसुधा' के अक्टूबर-दिसम्बर, 07 अंक में प्रकाशित प्रेम रंजन अनिमेष की कविताएँ। प्रेम रंजन अनिमेष समकाल के प्रति छोटे-छोटे अन्तर्मुखी एहसासों को लम्बी उम्र देने का प्रयास करने वाले कवि हैं। उनकी कथन-शैली में संक्षिप्तता के बावजूद अर्थ की संकेतपूर्ण स्पष्टता है। देखें चार पंक्तियाँ कैसी दीवार उठाई है कैसे दरवाजे लगाये हैं कैसी साँकल चढ़ाई है कि आजकल ख्याल भी दस्तक देकर आते हैं... (हद) इसी अंक में शैलेय की कविता 'खबर' इनकी कविताओं में बदलाव की लोकोन्मुख बेचैनी रह-रहकर जल उठती है। जनवादी परिवर्तन देखने की यही कसक उनकी कविताओं में ऊष्मा बनकर लगातार प्रकट होती है। (प्रग. वसुधा : अक्टूबर-दिसम्बर, 09, सम्पादक-कमला प्रसाद)

'वाक्' पत्रिका के जनवरी-मार्च 10 अंक में प्रकाशित केशव तिवारी की दो कविताएँ। पहली कविता 'एक हठ यहाँ भी है।' दृष्टि को दृश्य के बहाने कहने की श्रमसाध्य कला प्रस्तुत कविता में मौजूद है। दूसरी कविता 'वो लौटें तो पूछूँ' में कवि ने अत्याधुनिक सर्वहारा की ठीक पहचान की है। उसे अब रोजी-रोटी की चिंता भयाक्रान्त नहीं करती, न ही उसमें शोषक से दो-दो हाथ करने की आग प्रज्जवलित होती है। वह पूँजीवादी संस्कृति में ऑंख-मुँह बंद कर घुल-मिल गया है। इसी वर्ष 'रॉयल पब्लिकेशन्स' से केशव तिवारी का काव्य संग्रह 'आसान नहीं विदा कहना' प्रकाशित हुआ है। पहली कविता 'आसान नहीं विदा कहना' में गहन संवेदना को दूरगामी विचार में ढालने की परिपक्व दृष्टि दिखाई देती है इसमें उनका कवि आकंठ डूबा हुआ है प्रकृति के प्रति अकथ कृतज्ञता के एहसास में। देखिए पंक्तियाँ। इस पहाड़ से विदा कहूँ जहाँ आकर वर्षों पहले खो चुकी माँ की गोद याद आ जाती है। (पृष्ठ संख्या 11) ('वाक्' : जनवरी-मार्च 10, सम्पादक-सुधीश पचौरी)

स्थापित युवा कवि और आलोचक श्री प्रकाश शुक्ल के सम्पादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'परिचय' का ताजा अंक- दिसम्बर 09। इसमें पवन करण की कविता 'गरीब देश' उल्लेखनीय है। आज ग्लोबलाइजेशन के युग में अमेरिका जैसे पँजीवादी देश अपनी आर्थिक तानाशाही का विस्तार बड़े सधे हुए सौम्य व्यवहार के साथ भारत जैसे विकासशील देशों में कर रहे हैं। प्राणघाती शोषण के इस अल्पज्ञात तरीके का पर्दाफाश यह राजनीतिक चेतना सम्पन्न कविता खुलकर करती है। एक अन्य कविता 'काले'। इसमें काले रंग के प्रति नफरत की आदिम मानसिकता को नग्न किया गया है। वस्तुत: रंगभेद भले ही राजनीतिक और संवैधानिक तौर पर दुनिया के नक्शे से मिट चुका हो, मगर श्वेत शरीर धारी 'रंगबाजों' के दिलोदिमाग से यह भेद अभी खत्म नहीं हुआ है, वरना अमेरिका के महान लोकतंत्रवादी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की हत्या का कलंक ढोने को मानव-इतिहास विवश न होता। पिछले वर्ष राजकमल प्रकाशन से पवन करण का तीसरा काव्य संग्रह 'अस्पताल के बाहर टेलीफोन' प्रकाशित हुआ। पवन करण के काव्य-शब्द देखने-सुनने में भले ही साधारण और सीधे हों, मगर उसकी अर्थधारा में एक उद्देश्यपूर्ण गंभीरता और ठहराव रहता है। वे विषय के प्रति मन में महसूस होती गुत्थियों को एक-एक कर सुलझाने में इस कदर तल्लीन नजर आते हैं मानो विषय स्वयं अपने मुँह से अपनी आत्मकथा कह रहा हो। इसी अंक मे ब्रज श्रीवास्तव की कविता 'इस दौर का एक नुमाइंदा'। यह कविता एक शिक्षित व्यक्ति के पथभ्रष्ट चित्त का मूलसूत्र है। आज के समझदार और विचारों के कानूनची आदमी के क्रूर आचरण की जितनी व्याख्या की जाए, वह थोड़ी है। आगे है 'देशज' के सम्पादक अरुण शीतांश की तीन कविताएँ। अरुण जी के पास अनुभव है, उद्विनता है, बेचैनी है और उस बेचैनी को एक रचनात्मक शिखर देने का संकल्प भी, किन्तु इस संकल्प को साकार करने की तत्वदर्शी दृष्टि दुर्बल है। 'पनघट' कविता आस-पास जमे-पसरे-बहते लोकजीवन का दृश्य है, प्रामाणिक दृश्य, मगर, महज दृश्य ही। कुछ पन्ने पलटने के बाद प्रांजल धर अपनी कविताओं के साथ उपस्थित नजर आते हैं। उनकी कविताओं में 21वीं सदी के विषय हैं, सामयिक गतिशील शब्द हैं और साहित्यिक स्तर के वाक्य। मगर इनमें हार्दिक अनुभवों की प्रगाढ़ अनौपचारिकता नहीं है और यहाँ विषय के अन्त: मर्म से एक विद्वतापूर्ण दूरी कायम है। इसीलिए शब्द अनुभूति की गहराई से निर्झर की तरह फूट निकलने वाला जल नहीं, बल्कि रुक-रुक कर खिसकने वाली बर्फ नजर आती है। परिचय के इसी अंक में 'राहुल झा' की कविता 'विद्वता'। वस्तुत: यह द्विअर्थी शब्द है। एक विद्वान कबीर हैं जिन्होंने कागज-कलम को हाथ नहीं लगाया और दूसरा विद्वान है रावण जो अपने समय में अपने ज्ञान का प्रतिद्वन्द्वी नहीं जानता था। यही रावणो विद्वता ज्ञान के चरम अहंकार का दूसरा नाम है, परन्तु कबीर की विद्वता को कैसे खारिज करेंगे? (परिचय : दिसम्बर 09, सम्पादक-श्री प्रकाश शुक्ल)

'समकालीन भारतीय साहित्य' के अंक जनवरी-फरवरी, 10 में प्रकाशित राहुल राजेश की कविताएँ 'कोलकाता में प्रेम', 'आज इस तरह', 'मीता के लिए'। राहुल राजेश की दृष्टि लोक जीवन और प्रकट प्रकृति के प्रति उत्साह से भरी है और उसको धड़कते वाक्यों में जिंदा भी करती है, किन्तु उसमें निर्णायक दूरगामिता का अभाव है। वह अभी जीवन की रंगीनियत के साथ आमोद-प्रमोद एवं उछाह के खेल खेलते रहने में ही परम संतोष का अनुभव करती है। आगे हैं परितोष चक्रवर्ती की दो कविताएँ 1. घर की जड़ों पर 2. उम्र को नदियों की तरह देखना। दोनों कविताओं में परितोष ने अपने अनुभव की परिपक्वता को अर्थपूर्ण कविता के ढाँचे में फिट करने का प्रयास किया है, किन्तु ऊँची और स्पष्ट दृष्टि के अभाव में शब्द महज रहस्यमय सार्थकता का भ्रमजाल बुनकर रह जाते हैं। (सम. भार. साहित्य : जनवरी-फरवरी 10, सम्पादक-ब्रजेंद्र त्रिपाठी)

'शेष' पत्रिका के अप्रैल-जून 10 अंक में प्रकाशित रंजना जायसवाल की कविता 'ऐसे समय में भी'। यह कविता गोरखपुर शहर के सम्मानित कथाकार बादशाह हुसैन रिंजवी की सदाशय प्रकृति और मैत्रीपूर्ण स्वभाव पर केन्द्रित है। आज दहशत और अविश्वास के इतने धुमैले वातावरण के बावजूद 'मुसलमान' शब्द आतंक या साम्प्रदायिकता का पर्याय नहीं है, जैसा कि भारत में भारत के बाहर इस शब्द को इसी रूप में प्रचारित किया जाता है। रिजवी को व्यक्ति से व्यक्तित्व के रूप में तराशना और मुसलमान के बारे में कट्टर हिन्दुओं की मानसिकता पर चोट करना कविता की मूल चिंता में शामिल है। ठीक-ठीक पिछले वर्ष रंजना जायसवाल का नया-चौथा काव्य संग्रह 'जब मैं स्त्री हूँ' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। कहना जरूरी है कि रंजना जी की काव्यवेदना के दो छोर हैं एक हाशिए पर गुमनाम रहकर जीती अपमानित स्त्री और दूसरी ओर ग्रामांचल की जमीनी प्रकृति। स्त्री को सिर्फ स्त्री की ऑंखों से देखना हिन्दी में बहुत कम कवियों को पता है। किसी के लिए वह चटपटे विमर्श का मसाला है, किसी के लिए हाथ-पैर सेंकने वाला अलाव तो किसी के लिए दो-दो हाथ आजमाने वाला एजेंडा, परन्तु रंजना अपनी स्त्री को महज एजेंडा बनने से बचा लेती हैं और उसके हृदय में पैठ लगाकर एक-दो नहीं दर्जनों मुख से अलग-अलग स्वरों में बोलती हैं। पूरे विश्वास, प्रतिबद्धता और प्रखरता के साथ। ('शेष' : अप्रैल-जून, 10, सम्पादक-हसन जमाल, कविता प्रमाणित करती है...)

हिमाचल प्रदेश के युवा सर्जक सुरेश सेन निशांत। निशांत जी का संग्रह अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित होकर हिन्दी पाठकों के समक्ष आया है। शीर्षक है 'वे जो लकड़हारे नहीं हैं।' निशांत जी की काव्य-प्रकृति में एक बेचैन-विनम्र करुणा है खेती-किसानी के प्रति, बचपन, बुढ़ापे के प्रति, गुमनाम-उपेक्षित के प्रति। बेखास को खास बनाने की गहरी जिद उनकी काव्य-प्रकृति का अनिवार्य हिस्सा है, जिसे वे अपनी धड़कनों से दूर नहीं रखना चाहते। उदाहरण के लिए उठा लीजिए उनकी कविता 'मुड़ा-तुड़ा नोट'। इसमें कवि ने लगभग बेकार हो चुके एक रुपये के मुड़े-तुड़े नोट को असीम बना दिया है। याद करें अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने क्या कहा था 'मेहनत से कमाए गए पाँच डालर का मूल्य बिना परिश्रम के कमाए गये 500 डालर से भी अधिक कीमती है।' देखिए कविता की कुछ पंक्तियाँ वह मुड़ा-तुड़ा नोट एक रुपये का अब भी है मेरे बचपन की स्मृतियों की जेब में सुरक्षित वह मुड़ा-तुड़ा नोट जिसमें गंध थी रची-बसी माँ के पसीने की जिसमें क्षमता थी इतनी लड़ सकती थी माँ अपने बुरे दिनों से। (पृष्ठ संख्या 12)

'बन्द टाकीज' काव्य-संग्रह (कवि: विजय सिंह) की पहली कविता है 'सीरासार चौक'। आज तकरीबन प्रत्येक शहर में ऐतिहासिक मूल्य रखने वाला कोई सार्वजनिक स्थल होता है, परन्तु आज का शहराती बाबू उसके बहुमूल्य महत्व से विमुख होकर जीता ही जा रहा है। कवि ने अपनी प्रस्तुत कविता में इसी तकलीफ को सीधा-सादा शब्द दिया है। वरिष्ठ कवि प्रेमशंकर रघुबंशी की पंक्तियाँ इनकी कविता पर गौर तलब हैं ''विजय की कविताएँ देखने में छोटी लगती हैं, लेकिन वे जगदलपुर की प्रकृति और परिवेश की पट-कथाओं के अनेकानेक संकेत-सूत्र संजोए अनायास ही एक प्रकार के नये शिल्प के साथ सौंदर्य का नया विन्यास पेश करती हैं।'' (भूमिका)

जीवन दृष्टि की सधी हुई कलात्मकता एक और संग्रह 'पृथ्वी पर एक जगह' (शिरीष कुमार मौर्य, शिल्पायन प्रकाशन दिल्ली) की कविताओं में मुखर है। शिरीष विषय में 'वस्तु' के कवि हैं, 'वर्णन' के नहीं अर्थ के शब्दकार हैं। अर्थ बुनने की इस कला का एक लाभ यह भी होता है कि कवि शब्दों का गैर जरूरी बिखराव करने से बच जाता है जो कि आज के 90 प्रतिशत युवा कवियों का पसंदीदा तरीका बन चुका है। संग्रह की एक अन्य कविता है 'गिद्ध'। गिद्ध हमारे बीच किसका प्रतीक है यह किसी को बताने की आवश्यकता नहीं। इस कविता की ताकत गिद्ध के चरित्र में छिपी वह 'बात' है जो हमारे ही बीच के किसी आदमी के भीतर जन्म लेती है। ये पंक्तियाँ इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं दुनिया भर के दरिन्दों-परिन्दों में उनकी छवि सबसे घिनौनी थी किसी को भी डरा सकते थे उनके झुर्रीदार चेहरे वे रक्त सूँघ सकते थे नोंच सकते थे कितनी ही मोटी खाल माँस ही नहीं हड्डियों तक तोड़कर वे निगल जाते थे। (पृष्ठ संख्या 30)

उत्तराखण्ड से उभरते हुए युवा कवि महेश चन्द्र पुनेठा का काव्य-संग्रह 'भय अतल में'। अडिग रहना कीमती परिवर्तन की उम्मीद बचाए रखना है अविचल होना जिंदा होना है। अनम्य होना सत्य की बेपनाह इज्जत करना है। पुनेठा जी की कविता 'अस्तित्व और सुन्दरता' इसी अर्थ को शब्द देती है। यदि कवि को काल के अदृश्य चक्रवात में विलीन होने से अपनी कलम को बचाना है तो दृश्य, बिम्ब, चित्र और घटना के भीतर उतर कर अर्थ के स्थाई सूत्रों की खोज करनी ही पड़ेगी।

उत्तर प्रदेश के पूर्वी अंचल के युवा कवि वेदप्रकाश में समकालीन जिंदगी की भाग-दौड़ का पुरुता अनुभव तो है, परन्तु उस अनुभव को मार्मिक कला में ढालने की अन्तर्दष्टि आनी बाकी है। एक तरह से कहें तो उनकी प्रतिभा की ऑंखें ढंग से नहीं खुल पाई हैं। इसीलिए अनुभवों का विस्तार चित्रों का एक समूह बनकर रह जाता है वह अन्तस्थल में बहुत देर तक हलचल नहीं पैदा कर पाता। इसी वर्ष कवि का संग्रह 'एक उपकथा' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है, जो कवि के उत्तरोत्तर आत्म-विकास का प्रमाण से देता है।

युवा कवि : एक कविता

1. विष नहीं मार सकता था हमें, अशोक कुमार पांडेय : परिंदे मार्च-मई, 10, सम्पादक - राघवचेतन राव।

2. नई तमीज, शैलेन्द्र : सबके दावेदार, फरवरी 10, सम्पादक - लालसा लाल तरंग।

3. घर नहीं बदल रहे हैं वे, विवेक गुप्ता, गुंजन, मई 10, सम्पादक - जितेन्द्र चौहान।

4. कट हुए द्वीप, दिनकर कुमार, प्रगति. वसुधा, अक्टूबर-दिसम्बर 09, सम्पादक - कमला प्रसाद।

5. गदहों पर कुछ पंक्तियाँ, शुभेश कर्ण, संवदिया, अक्टूबर-दिसम्बर 09, सम्पादक - अनीता पंडित।

6. उलट बाँसी है यह..., संजय कुमार सिंह, संवदिया, जनवरी-मार्च 09, सम्पादक - उपरोक्त।

7. यह सच है, सुशांत सुप्रिय, दस्तावेज, जुलाई-सितम्बर 09, सम्पादक - विश्वनाथ प्रताप तिवारी।

8. सृजन उत्सव, प्रताप राव कदम, परिकथा, मार्च-अप्रैल 10, सम्पादक- शंकर।

9. भाई भगवान, प्रमोद कुमार तिवारी, आलोचना, जनवरी-मार्च 10, सम्पादक - अरुण कमल।

10. मांस के झंडे, अंशु मालवीय, युवा संवाद, अगस्त 09, सम्पादक - ए.के. अरुण।

11. 'दृष्टिपथ', मनोज कुमार झा, पाखी, मार्च 09, सम्पादक - अपूर्व जोशी।

1 comments:

rakesh ranjan said...

dhanyawaad bharat ji! aapka ek paathak-prashanshak main bhi hoon.