Tuesday, November 9, 2010

युवा कहानी और उसका समय - भरत प्रसाद

1. पिछले दो दशकों, अर्थात बीस वर्षों का कालखंड अपने विकास के एक-एक चरण में आश्चर्यजनक तेजी के साथ बदला है। यह समय अप्रत्याशित परिवर्तनों के तूफान के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। पारिवारिक संबंधों में अविश्वसनीय विघटन, मानवीय मूल्यों की विकलांगता, व्यक्ति के आचरण में चोर दरवाजे से कुत्सित दुष्वृत्तियों की घुस-पैठ, सामाजिक संरचना में एक प्रकार से दरार आ जाना, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हवस, स्वार्थ, बाजार, पूँजी और ऐशवादी मनोवृत्ति का साम्राज्य स्थापित होना, ये कुछ ऐसे मूल तत्व हैं, जिनके आधार पर पिछले बीस वर्ष के युग-सत्य को परिभाषित किया जा सकता है।

2. साहित्य की कोई एक विधा अपने समय के बहुमुखी यथार्थ को प्रामाणिक संपूर्णता के साथ नहीं व्यक्त कर सकती। यहाँ तक कि समूचा साहित्य अपने दौर के प्रकृत-सत्य को पूर्णत: उद्भासित कर देने के लिए नाकाफी है। सच तो यह है कि साहित्य में युग का जो सत्य प्रकट होता है, वह उस युग के आकर्षक या विकर्षक, शान्तिपूर्ण या हिंसक, सुखद या आतंककारी रंग की एक-एक झलक, एक तरंग, एक लहर या एक आभासी चित्र मात्र होता है। इसका अर्थ यह भी नहीं कि साहित्य में युग की अल्प-प्रामाणिक अभिव्यक्ति होती है, हकीकत यह है कि किसी भी युग की कलम के द्वारा उस दौर के प्रतिनिधि सत्यों की प्रभावशाली प्रस्तुति होती है। सृष्टि के अनन्त यथार्थ की मूल प्रकृति ही ऐसी है कि साहित्यकार अपनी सारी क्षमताओं को कलम में दूह डालने के बावजूद कागज पर सृष्टि की प्रति-सृष्टि रचने में अधूरा रह जाता है। अनूभूति से अधिक व्यापक और शक्तिशाली होता है यथार्थ, और सर्जक की अनुभूति अधिक चटक एवं गहरी होती है, उसकी अभिव्यक्ति की तुलना में।

यदि इस कसौटी पर युवा कलम का मूल्यांकन किया जाए तो जो निष्कर्ष सामने आता है वह दो प्रकार का है। एक तो यह कि कुछ लोकोन्मुख जनवादी और जनपदीय कहानीकारों की कहानियों में दिन-प्रतिदिन के विकट, विषम और द्वंद्वपूर्ण वर्तमान की प्रमाणिक, स्वाभाविक और सीधी अभिव्यक्ति हुई है। यथार्थ के 'ज्यों के त्यों' को उद्धाटित करने की प्रतिबद्धता इनमें भरपूर है। दूसरे प्रकार के युवा कहानीकारों ने यथार्थ के अंत: सत्य को प्रमाणिक स्तर देने की बजाय उसको संकटों में प्रतीकात्मक ढंग, बल्कि एक गौण समस्या के रूप में मात्र छुआ भर है। सामने उपस्थित युग की बेहिसाब समस्याओं को कागज पर उकेर डालना उनके सृजन की प्राथमिकता है भी नहीं। उन्होंने भाषा का खेल भर खेला है।

3. यदि विश्व के कहानी लेखन के इतिहास पर नजर डालें, तो हिंदी कहानी की उम्र कुछ कम नहीं है। हाँ, गुणवत्ता, उच्चता और कलात्मकता की दृष्टि से वह अवश्य विश्व की अन्य भाषाओं के समक्ष 'उन्नीस' पड़ेंगी।

समूची भारतीय रचनात्मकता को छान मारने पर कुल चार ही कथाकार खडे नजर आते हैं रवींद्रनाथ टैगोर, शरतचंद, प्रेमचंद और रेणु। हिंदी कहानी के सौ वर्षों का इतिहास प्रेमचंद की कलम के एकछत्र साम्राज्य का इतिहास है। हमारे सामने जयशंकर प्रसाद और प्रेमचंद से लेकर उदय प्रकाश, संजीव और शिवमूर्ति तक का इतिहास है, ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, स्वयं प्रकाश तक का इतिहास है। कहानी को उच्च दार्शनिक कविता की शैली में ढालना हो तो प्रसाद के पास आइए। कलम की ताकत को किसी की धमनियों में बहने वाला खून साबित करना हो तो प्रेमचंद के पास आइए। दूर बैठकर किसी अंचल और लोकजीवन के तीते-मीठे, कड़वे, बेस्वाद, खट्टे सत्य का हू-ब-हू एहसास, जीवंत, सचित्र, सशक्त एहसास करना हो रेणु के पास आ जाइए। तकरीबन दर्जनों ऐसे कहानीकार हैं जिन्होंने भाव, शिल्प, संवेदना, कथ्य, संरचना, वैचारिकता इत्यादि अनेक रूपों में हमारे सृजन-मानस को समृद्ध किया है। हिंदी का प्रत्येक कहानीकार ऋणी है उन कहानीकारों का। प्रेमचंद हिंदी कहानी के युगान्तकारी और सबसे निर्णायक मोड़ तो हैं ही, दूसरा उल्लेखनीय मोड़ रेणु और नागार्जुन ने पैदा किया। 'नई कहानी आंदोलन' कहानी की धारा का एक उल्लेखनीय मोड़ है अवश्य, लेकिन व्यापक यथार्थ के प्रति अटूट, बेचैन प्रतिबद्धता की वजह से न कि किसी उच्च स्तरीय कहानी-साधक की वजह से। मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव और कमलेश्वर में से एकमात्र कमलेश्वर ही वह युग-शिखर हैं, जिन्हें इस विधा में कुछ जोड़ने वाला शिल्पी कहा जा सकता है। इनकी कहानियाँ हमें सलीका और समझ देती हैं कि ठीक-ठीक सामने प्रत्यक्ष खड़े समय से संवाद, विमर्श, बहस करते हुए कैसे सृजन किया जाता है। भाषाई और शैलीगत सलीका और तरीका तो हमें निर्मल वर्मा ने भी दिया, लेकिन विषय के प्रति बौद्धिक सजगता का आग्रह हमारे पाठक-चित्त को संतुष्ट नहीं करता। रेणु और नागार्जुन के बाद विदू्रप, विकृत, धोखेबाज, हिंसक और साम्प्रदायिक समय से साहसिक मुठभेड़ करने की समझ और सीख हमें यशपाल और भीष्म साहनी देते हैं। युग-चरित्र की अमर प्रतिमा गढ़ने, जन-मन की मूक वाणी को निर्भय स्वर देने, साधारण में असाधारण की सम्भावना पैदा करने, कलम की खेती से उत्पन्न 'अन्न' से करोड़ों जनता की आत्मा संतुष्ट करने और शब्दों से जागरण का काम लेने में हमारे सबसे कमाल के प्रेरणा-पुरुष, 'सृजन के स्कूल' प्रेमचंद ही हैं।

4. 'नयापन' शब्द आज की युवा कहानी से इतना चिपक गया है कि लगता है, इसके पहले कभी कहानी में नयेपन पर ध्यान नहीं दिया गया या पहले इस तरह नयापन आया ही नहीं, जैसा कि अब आया है। 'नई कहानी आंदोलन' में विषयों का आश्चर्यजनक, किन्तु जरूरी नयापन था किंतु उस समय नयेपन पर जोर डालने के बजाय परम्परा से, मूल्य से, लीक से विद्रोह करने पर ज्यादा बल दिया गया। देखिए उस धारा के प्रतिनिधि कथाकार राजेन्द्र यादव इन शब्दों में नयेपन की नियति पर कैसे पछता रहे हैं ''नयेपन के आवेश और उत्साह में हम सभी भटके हैं और इधर-उधर टटोलते रहे हैं, लौटे भी हैं और फिर बढ़े हैं।''

जीवन या साहित्य में नयेपन का आना अगले मूल्यवान विकास का ही सूचक है। कभी-कभी यही नयापन उस विधा में क्रांतिधर्मी जागरण का सूत्रपात्र करता है, परन्तु यह नयापन प्रायोजित, प्रचारित या ऊपर से थोपा गया न हो, बल्कि समय के स्वभाव से पैदा हुआ हो, तत्कालीन मानव-समुदाय की जरूरत के तौर पर उत्पन्न हुआ हो, अर्थात् नयापन सिर्फ कहानी, कविता या आलोचना ही नहीं, विचार, व्यवहार और जीवन-मूल्यों के स्तर पर भी अपरिहार्य लगने लगे। यह नयापन सामान्य तौर पर हिंदी कहानी में दो प्रकार से घटित हुआ है एक विषयवस्तु, अभिव्यक्ति-दक्षता और अंतर्वस्तु का नयापन और दो कहानी की बाहृय संरचना अर्थात भाषा, शैली, शिल्प, रूप-कला का नयापन। इस नयेपन की कसौटी अंतर्वस्तु है, न कि भाषा और शिल्प। भाषा और शिल्प के नयेपन को वैधता अंतर्वस्तु की उत्कृष्टता से मिलती है। आज के युवा कहानीकार जो कि उत्तेजित मुद्रा में, ऑंखें मूँदकर नई भाषा, नए शिल्प, नई प्रस्तुति का डंका बजा रहे हैं, वह चंद आलोचकों की कृत्रिम तारीफ और कुछ संपादकों के प्रोत्साहनों पर टिका हुआ है। ऐसे आलोचकों और संपादकों द्वारा गुब्बारे या गेंद या बच्चे की तरह उछाले गए युवा कहानीकार प्रशंसा और प्रचार की तेज लहर में बह रहे हैं, उल्टे-पुल्टे, आड़े-तिरछे, तने और झुके हुए चले आ रहे हैं। ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि मात्र तीन कहानियों की कर्णभेदी तारीफों के दम पर कोई कहानीकार हिंदी साहित्य में अमरता हासिल कर ले। आज प्रचार की मदहोशी में नश-शिख मुद्रा में सुबह से देर रात तक डूबा हुआ युवा कहानीकार गिनती में 10-12 कहानियों की वैसाखियों पर अमर होने जा रहा है। कहना जरूरी है कि तरंग में बहती, नित नये रंग बिखेरती, बल खाती, तथ्य और सत्य से अगंभीर खेल-खेलती इन युवा कहानीकारों की भाषा में मोहक आकर्षण है, लीक छोड़कर बेफिक्र चलने का साहस है, और है कुछ नया करतब दिखाते रहने की आत्ममुग्ध जिद। गोला बाँधकर सिमटे हुए इन युवा कहानीकारों ने कहानी की पुरानी, एकरस और सीधी चाल चलने वाली भाषा-शैली में तोड़-फोड़ मचाई है, बल्कि समय के आचारण के अनुकूल अत्याधुनिक कथात्मकता का एक मार्ग भी खोल दिया है, मगर कहानी के अन्त:सत्य की, अंतर्वस्तु की जितनी उपेक्षा, जितना परिहास इस दशक के युवा कहानीकारों द्वारा किया गया है, उतना इसके पहले शायद ही कभी हुआ हो। देखिए, कथाकार शिवमूर्ति क्या टिप्पणी करते हैं ''किसान, मजदूर और दस्तकारों का इस देश की आबादी में अस्सी प्रतिशत हिस्सा है। अधिकांश बेरोजगार भी इन्हीं में से हैं, फिर भी हिंदी कथा जगत में इनके जीवन का प्रतिनिधित्व एक प्रतिशत भी नहीं है। हिंदी में वर्तमान कहानीकारों की कुल संख्या को देखते हुए इन पर लिखने वालों की संख्या उँगलियों पर गिनने लायक भी नहीं है। युवतम पीढ़ी में तो यह प्रतिनिधित्व चिंताजनक ढंग से नगण्य हो गया है'' (हंस, अगस्त-06)Ð

5. आज समय, समाज, संस्कृति और जीवन-संरचना को उसकी प्रकृत सम्पूर्णता में समझने के लिए कोई एक वाद, विचारधारा या मत नाकाफी, अधूरा और अपर्याप्त है, लेकिन... साथ-साथ यह भी सच है कि बिना कुछ तर्कसम्मत सिद्धांतों, मतों या वैज्ञानिक विचारधाराओं के सहयोग के जड़ या चेतन सृष्टि की मूर्त-अमूर्त संरचना को समझा भी नहीं जा सकता। मनुष्य का मस्तिष्क चाहे जितनी विलक्षण शक्ति, अनोखी कल्पना और सर्वग्राही चेतना का ऊर्जा केंद्र क्यों न हो, वह बिना विचारों के परिपक्व हो ही नहीं सकता। इसलिए क्या साहित्य और क्या सृजन की अन्य कोई कला, सबमें विचारधारा की भूमिका तीसरी ऑंख की तरह है। यह जरूर है, अब आज के जटिल, अबूझ, उलझे, सूक्ष्म और अमूर्त समय की परत-दर-परत समझने, उसका बेबाक, निर्भ्रांत विश्लेषण करने के लिए मात्र एक विचारधारा ही कारगर नहीं है, यहाँ तक कि अकेले मार्क्सवाद भी नहीं। इसलिए अब निरंतर फैलते अंतर्बाहृय विश्व को समझने के लिए कई दर्शन-धाराओं, विचार-स्रोतों और चिन्तन-पद्धतियों के सर्वोत्तम को ग्रहण करना भोजन में नमक और जल की तरह अनिवार्य है।

6-7. हमारे मौजूदा समय में उत्कृष्ट और समृद्ध भाषा-शिल्प के साथ-साथ सशक्त अंतर्वस्तु को साध लेने वाले प्रथम उदाहरण उदय प्रकाश ही हैं। उनकी अविस्मरणीय कहानी 'छप्पन तोले की करधन' में यह दुर्लभ संतुलन साधा गया है। यदि इस कसौटी पर युवा कहानीकारों को निरपेक्ष दृष्टि से परखा जाए तो बहुत दूर से देखने पर किसी आकर्षक ऊँचाई पर चमकता हुआ नाम मुश्किल से दिखेगा। राकेश कुमार सिंह में समसामयिक लोक- दुख के बदरंग, बेखास यथार्थ को समर्थ, सटीक और अनौपचारिक भाषा में जीवंत बनाने की कूबत है। 'कहानी-खत्म नहीं होती' शीर्षक कहानी में राकेश कुमार सिंह ने अपने कल्पना-कौशल के दम पर मौजूदा जीवन की मायाविनी पीड़ा को प्रेमचंद के दुख ('कफन' के पात्र घीसू-माधव) के साथ कुशलतापूर्वक जोड़ा है। सुपरिचित कथाकार अरुण कुमार 'असफल' ने 'पाँच का सिक्का' नामक लकीर खींचने वाली कहानी लिखी है। असफल की सधी हुई लोक-चेतना में व्याकुल असंतोष का एक मौन धैर्य भी है। वे चरित्र को कथा में अपने अनुसार चलने की पूरी छूट देते हैं। उनकी कलम विषय की प्रकृति में अपनी पसंद-नापसंद नहीं थोपती। यह उनकी कहानी-कला का स्थाई राज है। इधर पंकज मित्र ने कई लोक चरित्रमय कहानियों में अपनी अनोखी-विनोदपूर्ण, चटक-मटक वाली भाषा-दृष्टि का परिचय दिया है। 'हुड़कलुल्लु', 'बेला का भू', 'पप्पू कांट लव सा...' जैसी कहानियाँ मानो इनकी लोकरसमय भाषा का झंडा फहरा रही हों। अपने कहानी-विन्यास में समकालीन मध्यवर्गीय चरित्रों को उनकी द्वंद्वपूर्ण मानसिकता के साथ सामने लाने वाली कविता ने अपनी पीढ़ी में अलग पहचान बनाई है। यह सच है कि उनके विषय का दायरा ज्यादा विस्तृत नहीं, नौकरीपेशा, शिक्षित और लगभग सुखी-सम्पन्न मध्यवर्ग तक ही सीमित है, मगर उतने दायरे में ही कविता अपनी सूक्ष्म मनोविश्लेषण प्रतिभा का प्रभावशाली परिचय देती हैं। लंबे समय तक कविता की दुनिया में टिक कर कहानी की ओर तयपूर्वक रुख बनाने वाले कवियों में संजय कुंदन का नाम जरूरी तौर पर लिया जा सकता है। लगातार दोनों विधाओं में उनकी गतिशील मौजूदगी कायम है। तकनीकी, सूचना, व्यवसाय और बाजारतंत्र से जुडे हुए विषय उनकी कहानियों के केंद्रीय मुद्दे हैं। संजय कुंदन अपने अनुभवों की हकीकत से आश्वस्त हो लेने के बाद ही कलम उठाते हैं, इसीलिए उनकी भाषा में आत्मविश्वास की दृढ़ता साफ दिखाई देती है। 'के.एन.टी. की कार' विशिष्ट शिल्प और मजबूत अंतर्वस्तु का उदाहरण है। सुपरिचित युवा कहानीकार राकेश बिहारी अपनी भाषा और विषयवस्तु की 'अप-टू-डेट' प्रकृति के कारण अलग से पहचान बना रहे हैं। शहर या महानगर के पूँजीवादी, बाजारवादी तंत्र में ठीक-ठीक आज का पढ़ा-लिखा महत्वाकांक्षी नौजवान कैसे लड़ता, हारता, टूटता, फिर भी हालात से समझौता नहीं करता, राकेश बिहारी पूरी बौद्धिक और सूचनात्मक तैयारी के साथ सामने लाते हैं। अपनी 'प्रस्थान' कहानी में उन्होंने मध्यवर्गीय भारतीय युवा में आए हुए साहसिक मानसिक बदलाव के आत्मसंघर्ष को पेंटर की भाँति उकेरा है। 'शहर की मौत' जैसी स्तरीय कहानी देकर प्रेम भारद्वाज समय की उलझनों को अपनी दिमागी तंत्रिकाओं में अनवरत जीने वाले कहानीकार हैं। अपने चरित्रों की मात खाई हुई वेदना से उनका जनवादी हृदय किसी चुम्बक की भाँति अभिन्न होता है। आभ्यांतरिक सहृदयता की आग में तपकर निकले हुए वाक्य प्रेम भारद्वाज को एक परिवर्तनकामी कहानीकार का व्यक्तित्व प्रदान करते हैं। पिछले लगभग तीन वर्षों से ताबड़तोड़ कहानियों की फसल उगाकर उभर उठने वाले उत्तराखंड के कहानीकार हैं रणीराम गढ़वाली। परिणाम की दृष्टि से शायद ही कोई कहानीकार मिले, जो गढ़वाली से अधिक आनन-फानन में कहानी लिख कर दिखा सके। उनके ठेठ पहाड़ी अंचल के पात्रों में तत्पर भाषा की टटकी चित्रात्मकता आकर्षित करती है। वे अपने लोक-विषय को समस्याओं के चक्रव्यूह में न छोड़कर, एक विश्वसनीय लक्ष्य तक ले जाते हैं। जीवन में सर्व प्रचलित भाषा में उनका अटूट यकीन बढ़-चढ़कर बोलता है। युवा कहानीकार हनीफ मदार को 'पदचाप', फारूख मास्टर की मौत जैसी जीवनधर्मी कहानियों की वजह से पहचान मिली है। अंतर्वस्तु की कसौटी पर यदि अन्य युवा कहानिकारों की परख करें तो कैलाश बनवासी और टी. श्रीनिवास लगभग खरे साबित होने वाले विषय-शिल्पी हैं। कैलाश बनवासी को यदि खुद से आगे निकलना है तो 'बाजार में रामधन' का मोह त्यागना पड़ेगा, क्योंकि यही कहानी उनके भविष्य की सीमा बन जा रही है। खुद के पिछले मानदंड को तोड़कर ही सर्जक सही मायने में आगे जा पाता है। टी. श्रीनिवास अपनी कहानी 'इंटरव्यू' में उच्च शिक्षा जगत की प्रतिभाभक्षी व्यवस्था को तरंगपूर्ण व्यंग-भंगिमा में तार-तार करते हैं।

उपर्युक्त कहानीकारों के पास अंतर्वस्तु की सत्ता साधने, पहचानने और उसे समर्थ, संवेदनशील शब्दों में अभिव्यक्त करने की दूरगामी क्षमता मौजूद है। इनमें से राकेश कुमार सिंह, पंकज मित्र, कविता, कैलाश बनवासी और टी. श्रीनिवास मौलिक किंतु स्वाभाविक भाषा की नई से नई संभावना विकसित करने की भी क्षमता रखते हैं। अंतर्वस्तु और शिल्प दोनों कसौटियों पर आगे बेहतर साबित होने वाले कहानीकार मनोज कुमार पांडेय भी हैं।

8. भविष्य की पहली और अंतिम कसौटी वर्तमान है बीज और वृक्ष, बादल और बारिश, सूरज और दिन की तरह। संभव है कि लम्बे वक्त तक मौजूदा हिंदी कहानी में रूप-शिल्प-संरचना और मोहक भाषा के नशे का खुमार आलोचकों, संपादकों और पाठकों पर भी अभी छाया ही रहे, किंतु सौ वषोर्ें का इतिहास साक्षात गवाह है कि समय की सान पर लंबे समय तक चमकने में वही सफल हुआ, जिसके पास बहुअर्थी समर्थ भाषा और चुस्त शिल्प के साथ-साथ विषय के अन्त:सत्य को दूध की तरह दुह लेने की क्षमता भी मौजूद थी। समय की सूई मनुष्य से कहीं ज्यादा निष्पक्ष निर्णायक होती है। वह कभी पीछे नहीं घूमती। समय निर्णय करने के अपने पुराने अंदाज से पीछे हट ही नहीं सकता। जब पाठक भी थक जाता है, हार जाता है, तो फैसला करने के लिए अंतत: समय खड़ा होता है।

5 comments:

Anonymous said...

एक सारगर्भित लेख

लोकेन्द्र सिंह said...

चिट्ठा जगत से जुडऩे पर आपका स्वागत है।

Anonymous said...

शुभकामनाएं

उपेन्द्र नाथ said...

बहुत ही अच्छा लेख. युवा कहानी और उसके देशकाल पर बहुत अच्छा प्रकाश डाला है आप ने.
.
सृजन_शिखर (www.srijanshikhar.blogspot.com ) पर आपका स्वागत है.

Patali-The-Village said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति..धन्यवाद|